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सिविल कानून
सरकारी स्थान अधिनियम राज्य के किराया नियंत्रण विधियों पर वरीयता रखता है
« »12-Dec-2025
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भारतीय जीवन बीमा निगम और अन्य बनाम वीटा "सरकारी स्थान पर अप्राधिकृत अधिभोग करने वाला व्यक्ति किराया नियंत्रण अधिनियम के संरक्षण का लाभ नहीं उठा सकता।" न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, संदीप मेहता और एन.वी. अंजारिया |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति विक्रम नाथ, संदीप मेहता और एन.वी. अंजारी की पीठ ने लाइफ इंश्योरेंस कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया और अन्य बनाम वीटा (2025) के मामले में यह निर्णय दिया कि एक बार स्थान "सरकारी स्थान" की परिभाषा के अंतर्गत आ जाता है और किराएदारी विधिक रूप से समाप्त हो जाती है, तो अप्राधिकृत अधिभोगी राज्य किराया नियंत्रण अधिनियमों का संरक्षण प्राप्त करने का दावा नहीं कर सकते हैं और उन्हें सरकारी स्थान (अप्राधिकृत अधिभोगियों की बेदखली) अधिनियम, 1971 के अधीन बेदखली का सामना करना पड़ेगा।
भारतीय जीवन बीमा निगम और अन्य बनाम वीटा (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में LIC ने मुंबई स्थित एक फ्लैट से वीटा प्राइवेट लिमिटेड को बेदखल करने की मांग की थी।
- वीटा अप्रैल 1957 में किराएदार बनी थी, सरकारी स्थान अधिनियम के 16 सितंबर, 1958 से पूर्वव्यापी रूप से लागू होने से बहुत पहले और LIC की स्थापना से पहले।
- जब LIC ने किराएदारी समाप्त करने के बाद सरकारी स्थान अधिनियम के अधीन बेदखली की कार्यवाही शुरू की, तो वीटा ने महाराष्ट्र किराया नियंत्रण अधिनियम के अधीन संरक्षण का दावा करते हुए इसका विरोध किया।
- 2014 में, सुहास एच. पोफले बनाम ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड के मामले में दो न्यायाधीशों की पीठ ने किराएदारी की तारीख के आधार पर एक अंतर स्थापित किया, जिससे उन किराएदारों को संरक्षण मिला जो स्थान के "सरकारी स्थान" बनने से पहले उसमें प्रवेश कर चुके थे।
- सुहास पोफले के निर्णय में यह माना गया कि सरकारी स्थान अधिनियम उन किराएदारों पर लागू नहीं किया जा सकता है जो स्थान के "सरकारी स्थान" बनने से पहले (अर्थात्, LIC या राष्ट्रीयकृत बैंक जैसी सरकारी संस्था द्वारा अधिग्रहण किये जाने से पहले) उस स्थान पर कब्जा कर रहे थे।
- ऐसे अधिभोगियों के लिये, राज्य किराया नियंत्रण अधिनियम का सुरक्षात्मक दायरा लागू रहना सुनिश्चित किया गया।
- बॉम्बे उच्च न्यायालय ने सुहास पोफले (2014) के निर्णय पर विश्वास करते हुए किराएदार का पक्ष लिया और बेदखली के आदेश को रद्द कर दिया, जिसके बाद LIC ने उच्चतम न्यायालय में अपील की।
- अशोका मार्केटिंग लिमिटेड बनाम पंजाब नेशनल बैंक (1990) के मामले में संविधान पीठ के पूर्व के निर्णय से मतभेद को देखते हुए, दो न्यायाधीशों की पीठ ने इस मामले को एक आधिकारिक निर्णय के लिये एक बड़ी पीठ के पास निर्दिष्ट किया।
न्यायालय की क्या टिप्पणियां थीं?
- न्यायमूर्ति अंजारिया द्वारा लिखित निर्णय में उच्च न्यायालय की इस बात के लिये आलोचना की गई कि उसने ' stare decisis (निर्णीत बातों पर कायम रहना)' के सिद्धांत का पालन करने में असफल रहते हुए अशोका मार्केटिंग लिमिटेड (1990) के बाध्यकारी पूर्व निर्णय को नजरअंदाज कर दिया, जो सुहास पोफले (2014) के निर्णय से बहुत पहले दिया गया था।
- न्यायालय ने माना कि सरकारी स्थान अधिनियम एक बाद की और विशेष विधि है जिसे विशेष रूप से सार्वजनिक स्थानों पर अप्राधिकृत अधिभोगियों से निपटने के लिये बनाई गई है और यह अनिवार्य रूप से राज्य किराया नियंत्रण संविधि के परस्पर विरोधी प्रावधानों पर प्रभावी है।
- न्यायालय ने आगे कहा कि सरकारी स्थान अधिनियम की प्रयोज्यता अवधारित करने के लिये किराएदार द्वारा स्थान में प्रवेश करने की तिथि अप्रासंगिक है।
- न्यायालय ने सुहास एच. पोफले बनाम ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड (2014) के निर्णय को खारिज कर दिया, इसे एक गलत निर्वचन बताते हुए कहा कि यह अशोका मार्केटिंग लिमिटेड (1990) के बाध्यकारी संविधान पीठ के पूर्व निर्णय के विपरीत है।
- न्यायालय ने अशोका मार्केटिंग लिमिटेड (1990) मामले से संबंधित विधि के प्रमुख सिद्धांतों को इस प्रकार दोहराया:
- किराया नियंत्रण अधिनियम 1971 और राज्य किराया नियंत्रण अधिनियम दोनों विशेष विधि हैं। किसी भी प्रकार के टकराव की स्थिति में, दोनों विधियों के अंतर्निहित उद्देश्य और नीति का संदर्भ लिया जाना चाहिये। किराया नियंत्रण विधियों में उल्लिखित प्रावधानों पर किराया नियंत्रण अधिनियम 1971 का प्रभुत्व होगा।
- इन दोनों विशेष अधिनियमों के बीच सामान्य विशेषीकरण का नियम लागू नहीं होगा। उद्देश्य, नीति और विधायी आशय को ध्यान में रखते हुए, सरकारी स्थानों के अप्राधिकृत अधिभोगियों को बेदखल करने के संबंध में 1971 का सरकारी स्थान अधिनियम राज्य किराया नियंत्रण अधिनियमों पर प्रभावी होगा।
- सरकारी स्थान अधिनियम, 1971 के प्रावधान, जहाँ तक वे किराया नियंत्रण अधिनियम के दायरे में आने वाले स्थानों की बात करते हैं, किराया नियंत्रण अधिनियम के प्रावधानों पर वरीयता होगी।
- अधिनियम की धारा 2(ङ) के अधीन 'सरकारी स्थान' पर अप्राधिकृत अधोभोग वाला व्यक्ति किराया नियंत्रण अधिनियम का संरक्षण प्राप्त नहीं कर सकता है।
- जिन मामलों में किराए पर दी गई संपत्तियों को राज्य किराया नियंत्रण अधिनियम के अंतर्गत आने का दावा किया जाता है और वे 'सरकारी स्थान' भी बन गई हैं, उन पर अप्राधिकृत अधोभोग के लिये सरकारी स्थान अधिनियम 1971 लागू होगा।
- सरकारी स्थान अधिनियम 1971 के अधीन परिकल्पित सांविधिक तंत्र को परिभाषा में उल्लिखित किसी भी सरकार या सरकारी संस्था द्वारा सरकारी स्थानों पर अधिभोग वापस लेने के लिये सक्रिय किया जा सकता है।
- सरकारी स्थान अधिनियम 1971 उन किराएदारियों पर लागू होता है जो अधिनियम के लागू होने से पहले बनाया गया था और अस्तित्व में था या जो अधिनियम के लागू होने के बाद बनाया गया हों।
- लागू होने के लिये दो शर्तें पूरी होनी चाहिये: पहली, किराए पर दिया गया स्थान सरकारी स्थान अधिनियम 1971 की धारा 2(ङ) के अधीन परिभाषा के दायरे में आना चाहिये। दूसरी, स्थान पर अप्राधिकृत अधिभोग होना चाहिये।
- संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 106 के अधीन नोटिस जारी करके 'सरकारी स्थान' की किराएदारी समाप्त करना, किराएदार के कब्जे को अप्राधिकृत घोषित करने के तरीकों में से एक है। यह नियम संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1971 के लागू होने से पहले या बाद में बनाई गई किराएदारियों पर भी लागू होगा।
- सरकारी स्थान अधिनियम 1971 के प्रावधानों का आह्वान और प्रयोज्यता कब्जे के पहलू पर निर्भर नहीं है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि स्थान पर अधिभोग अप्राधिकृत अधिभोग बन गया है। अधिभोग एक सतत प्रक्रिया है।
सरकारी स्थान (अप्राधिकृत अधिभोगियों की बेदखली) अधिनियम, 1971 क्या है?
बारे में:
- सरकारी स्थान (अप्राधिकृत अधिभोगियों की बेदखली) अधिनियम, 1971 (PP Act) एक विशेष विधान है जिसे सरकारी स्थानों से अप्राधिकृत अधिभोगियों को शीघ्रता से बेदखल करने के लिये अधिनियमित किया गया है।
- यह अधिनियम 16 सितंबर, 1958 से भूतलक्षी रूप से लागू हुआ।
- धारा 2(ङ) के अंतर्गत "सरकारी स्थान" से तात्पर्य सरकारी संस्थाओं, सरकारी क्षेत्र के उपक्रमों, राष्ट्रीयकृत बैंकों, LIC जैसी बीमा कंपनियों और अन्य निर्दिष्ट सार्वजनिक प्राधिकरणों के स्वामित्व या नियंत्रण वाले स्थानों से है।
- यह अधिनियम सामान्य किराया नियंत्रण विधियों के अधीन आवश्यक लंबी प्रक्रियाओं के बिना, अप्राधिकृत अधिभोगियों को बेदखल करने के लिये एक संक्षिप्त प्रक्रिया प्रदान करता है।
उद्देश्य एवं लक्ष्य:
- सरकारी स्थान अधिनियम का प्राथमिक उद्देश्य अप्राधिकृत अधिभोगियों से सरकारी स्थानों को शीघ्रता से वापस लेना है जिससे सार्वजनिक संपत्ति का कुशल उपयोग सुनिश्चित किया जा सके।
- इस अधिनियम का उद्देश्य सार्वजनिक प्रयोजनों के लिये निर्धारित स्थानों पर अप्राधिकृत अधिभोगियों को रोककर जनहित की रक्षा करना है।
- इसे राज्य किराया नियंत्रण अधिनियमों के अधीन लंबी बेदखली प्रक्रियाओं को दरकिनार करने के लिये बनाया गया था, जो अक्सर सरकारी स्थानों की वसूली में वर्षों का विलंब होता था।
जब अधिभोग अप्राधिकृत हो जाता है:
- संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 106 के अधीन उचित नोटिस के माध्यम से या समाप्ति के अन्य वैध तरीकों से किराएदारी समाप्त होने पर कब्जा अप्राधिकृत हो जाता है।
- एक बार किराएदारी समाप्त हो जाने के बाद, सरकारी स्थान पर निरंतर कब्जा अप्राधिकृत हो जाता है, जिससे सरकारी स्थान अधिनियम लागू हो जाता है।
- यह अधिनियम इस बात पर ध्यान दिये बिना लागू होता है कि मूल किराएदारी कब बनाई गई थी - चाहे परिसर "सरकारी स्थान" बनने से पहले या बाद में, या सरकारी स्थान अधिनियम के लागू होने से पहले या बाद में।
राज्य किराया नियंत्रण अधिनियमों के साथ संबंध:
- सरकारी स्थान अधिनियम और राज्य किराया नियंत्रण अधिनियम दोनों ही विशेष विधान हैं, किंतु अपने विशिष्ट उद्देश्य और नीति के कारण विवाद की स्थिति में सरकारी स्थान अधिनियम ही प्रभावी होता है।
- एक बार जब स्थान "सरकारी स्थान" के रूप में योग्य हो जाता है और उस पर आधिभोग अप्राधिकृत हो जाता है, तो किराएदार राज्य किराया नियंत्रण अधिनियमों के अधीन संरक्षण की मांग नहीं कर सकते हैं।
- सरकारी स्थान अधिनियम की संक्षिप्त बेदखली प्रक्रिया सरकारी स्थानों के अप्राधिकृत अधिभोगों के लिये राज्य किराया नियंत्रण अधिनियमों के सुरक्षात्मक प्रावधानों पर वरीयता रखती है।