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आपराधिक कानून
सूचनाकर्त्ता द्वारा की गई आपराधिक पुनरीक्षण की कार्यवाही का उपशमन उसकी मृत्यु के पश्चात् भी नहीं होता
«24-Dec-2025
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सैयद शाहनवाज अली बनाम मध्य प्रदेश राज्य "चूँकि पुनरीक्षण कार्यवाही पर सुने जाने का का कठोर नियम लागू नहीं होता है, इसलिये पुनरीक्षणकर्त्ता की मृत्यु पर, अपील पर लागू होने वाली उपशमन की विधि पुनरीक्षण कार्यवाही पर लागू नहीं होती है, विशेष रूप से तब जब पुनरीक्षण किसी अभियुक्त की ओर से न हो।" न्यायमूर्ति संजय करोल और मनोज मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
सैयद शाहनवाज अली बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2025) के मामले में न्यायमूर्ति संजय करोल और मनोज मिश्रा की पीठ ने निर्णय दिया कि जब किसी सूचनाकर्त्ता या पीड़ित द्वारा आपराधिक पुनरीक्षण याचिका दायर की जाती है तो पुनरीक्षणकर्त्ता की मृत्यु पर उसका स्वतः उपशमन नहीं हो जाता है और अन्य पीड़ित कार्यवाही जारी रख सकते हैं।
सैयद शाहनवाज अली बनाम मध्य प्रदेश राज्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला संपत्ति विवाद से जुड़ा है जिसमें कपट, छल और षड्यंत्र के अभिकथन सम्मिलित हैं।
- अपीलकर्त्ता सैयद शाहनवाज अली के पिता शमशाद अली ने दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 156(3) के अधीन प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज करने के लिये आवेदन दायर किया।
- पुलिस अन्वेषण के बाद, भारतीय दण्ड संहिता के अधीन कई अपराधों के लिये आरोप पत्र दायर किया गया।
- मार्च 2020 में, सेशन न्यायालय ने अभियुक्त को भारतीय दण्ड संहिता की धारा 420 के अधीन छल के सिवाय सभी अपराधों से उन्मुक्त कर दिया।
- सूचनाकर्त्ता ने मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय में उन्मोचन आदेश को चुनौती देते हुए एक आपराधिक पुनरीक्षण याचिका दायर की ।
- पुनरीक्षण कार्यवाही के लंबित रहने के दौरान, सूचनाकर्त्ता शमशाद अली की मई 2021 में मृत्यु हो गई।
- उनके पुत्र सैयद शाहनवाज अली ने विधिक उत्तराधिकारी और पीड़ित के रूप में अपनी क्षमता के आधार पर पुनरीक्षण कार्यवाही जारी रखने की अनुमति मांगी।
- उच्च न्यायालय ने इस अनुरोध को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि आपराधिक पुनरीक्षण में प्रतिस्थापन का कोई प्रावधान नहीं है और पुनरीक्षण का उपशमन हो चूका है।
- अपीलकर्त्ता द्वारा बाद में दायर की गई एक वापसी याचिका को भी उच्च न्यायालय ने खारिज कर दिया।
- तत्पश्चात् अपीलकर्त्ता ने उच्च न्यायालय के दोनों आदेशों को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय का रुख किया।
न्यायालय की क्या टिप्पणियां थीं?
- न्यायालय ने यह माना कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 394 के अंतर्गत आने वाली अपीलों के विपरीत, आपराधिक पुनरीक्षणों को समाप्त करने के लिये कोई सांविधिक प्रावधान नहीं है।
- दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 397 और 401 के अधीन पुनरीक्षण अधिकारिता विवेकाधीन है और इसका प्रयोग आपराधिक न्याय प्रशासन की निगरानी करने और अवैधता या अनुचितता को सुधारने के लिये किया जाता है।
- पीठ ने इस बात पर बल दिया कि पुनरीक्षण कार्यवाही पर locus standi (सुने जाने के अधिकार) के कठोर नियम लागू नहीं होते हैं, विशेषत: जब यह किसी सूचनाकर्त्ता या पीड़ित द्वारा दायर की जाती है।
- न्यायालय ने अभियुक्त व्यक्तियों द्वारा दायर पुनरीक्षण याचिकाओं और सूचनाकर्त्ता द्वारा दायर पुनरीक्षण याचिकाओं के बीच अंतर किया, और यह माना कि जब पुनरीक्षण याचिका किसी सूचनाकर्त्ता या परिवादकर्त्ता द्वारा दायर की जाती है, तो उनकी मृत्यु पर कार्यवाही का उपशमन नहीं होता है।
- जबकि किसी को भी पुनरीक्षणवादी के रूप में प्रतिस्थापन का दावा करने का निहित अधिकार नहीं है, पुनरीक्षण न्यायालय के पास दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 2(बक) के अधीन "पीड़ित" की परिभाषा को मार्गदर्शक सिद्धांत के रूप में उपयोग करते हुए, उपयुक्त व्यक्तियों को इसकी सहायता करने की अनुमति देने का विवेक है।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जब पुनरीक्षण के लंबित रहने के दौरान पीड़ित की मृत्यु हो जाती है, तो धारा 2(बक) के अंतर्गत आने वाले अन्य पीड़ितों को न्याय को आगे बढ़ाने में न्यायालय की सहायता करने की अनुमति दी जा सकती है।
- वर्तमान मामले में, अपीलकर्त्ता, विवादित संपत्ति में प्रत्यक्ष हित रखने वाला पुत्र और विधिक उत्तराधिकारी होने के नाते, पीड़ित की परिभाषा के अंतर्गत आता है और उसे उच्च न्यायालय की सहायता करने की अनुमति दी जानी चाहिये थी।
- उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के दोनों आदेशों को अपास्त कर दिया, आपराधिक पुनरीक्षण याचिका को बहाल किया और निदेश दिया कि अपीलकर्त्ता को पीड़ित के रूप में सहायता प्रदान करते हुए इस पर शीघ्रता से निर्णय लिया जाए।
आपराधिक पुनरीक्षण क्या है?
सांविधिक ढाँचा:
- दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 397 (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 438) उच्च न्यायालय और सेशन न्यायाधीश को अपनी स्थानीय अधिकारिता के अंतर्गत आने वाली अवर दण्ड न्यायालय के समक्ष की किसी कार्यवाही के अभिलेखों को मंगवाने और उनकी परीक्षा करने का अधिकार देती है जिससे पारित किये गए निष्कर्ष, निर्णयों, दण्डादेश और प्रक्रियात्मक अनुपालन की शुद्धता, वैधता और औचित्य को सत्यापित किया जा सके।
- ये न्यायालय अभिलेखों की परीक्षा के दौरान दण्ड के प्रवर्तन को निलंबित कर सकते हैं या अभियुक्त व्यक्तियों को जमानत/निजी बंधपत्र प्रदान कर सकते हैं।
- धारा 397(2) जांच, अपील, विचारण या इसी तरह की कार्यवाही के दौरान दिये गए अंतरिम आदेशों को चुनौती देने के लिये पुनरीक्षण शक्ति को लागू करने से रोकती है।
- दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 401 (भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 442) यह उपबंधित करती है कि जब अपील दायर की जा सकती थी परंतु नहीं की गई, तो पुनरीक्षण नहीं किया जा सकता है, सिवाय इसके कि जब उच्च न्यायालय न्याय के हित में ऐसे पुनरीक्षण आवेदन को अपील के रूप में मान सकता है।
प्रकृति और दायरा:
- पुनरीक्षण अधिकारिता, दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 397, 399 और 401 के अधीन उच्च न्यायालय और सेशन न्यायाधीश द्वारा प्रयोग की जाने वाली एक पर्यवेक्षी शक्ति है।
- इसका दायरा व्यापक है, जिससे अधीनस्थ न्यायालयों में किसी भी निष्कर्ष, दण्डादेश, आदेश की शुद्धता, वैधता या औचित्य तथा कार्यवाही की नियमितता की परीक्षा की जा सकती है।
- उच्च न्यायालयों और सेशन न्यायाधीशों के पास अपनी स्थानीय अधिकारिता के भीतर अधीनस्थ दण्ड न्यायालयों पर समवर्ती और व्यापक पुनरीक्षण अधिकारिता होती है।
- पुनरीक्षण अधिकारिता का प्रयोग विवेकाधीन है और सामान्यत: विधि के प्रश्नों या अनुचित निष्कर्षों से जुड़े मामलों तक ही सीमित होता है।
सांविधिक परिसीमाएँ:
- धारा 397(3) एक न्यायालय को पुनरीक्षण अधिकारिता का प्रयोग करने से रोकती है यदि दूसरे न्यायालय ने उसी विषय पर पहले ही ऐसा कर लिया हो।
- अंतरिम आदेशों को संशोधित करने पर प्रतिबंध (धारा 397(2)), यद्यपि अभियुक्त के पक्ष में उदारतापूर्वक निर्वचन किया गया है।
- एक ही व्यक्ति द्वारा एकाधिक पुनरीक्षण आवेदन दाखिल करने पर निर्बंधन (धारा 397(3))।
- प्रतिकूल आदेश पारित करने से पहले अभियुक्त या प्रभावित व्यक्ति की अनिवार्य सुनवाई (धारा 401(2))।
- दोषमुक्ति को दोषसिद्धि में परिवर्तित करने पर प्रतिबंध (धारा 401(3))।
- जहाँ अपील का सांविधिक उपचार उपलब्ध होते हुए भी उसका प्रयोग नहीं किया गया हो, वहाँ पुनरीक्षण कार्यवाही पर प्रतिबंध लागू होता है (धारा 401(4))।
शक्तियां और परिसीमाएँ:
- पुनरीक्षण न्यायालय सामान्यतः साक्ष्यों का पुनर्मूल्यांकन नहीं कर सकते, सिवाय उन मामलों के जिनमें प्रक्रियात्मक त्रुटियाँ स्पष्ट हों या ऐसी स्पष्ट त्रुटियाँ हों जिनके कारण न्याय का घोर उल्लंघन हुआ हो।
- धारा 401(1) पुनरीक्षण न्यायालयों को अधीनस्थ न्यायालय के निर्णयों की शुद्धता, वैधता या औचित्य सुनिश्चित करने के लिये अपीलीय न्यायालय शक्तियों (धारा 386 के तहत) का प्रयोग करने की अनुमति देती है।
- धारा 377 के अधीन राज्य अपीलों के उपबंध होते हुए भी, उच्च न्यायालय पुनरीक्षण अधिकारिता में वर्धित दण्ड की शक्ति बरकरार रखते हैं।
- पुनर्विचार याचिका में दोषमुक्त होने के निर्णयों में हस्तक्षेप कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में ही अनुमेय है: अधिकारिता का अभाव, साक्ष्य का गलत बहिष्कार, महत्त्वपूर्ण साक्ष्य की अनदेखी, या अपराधों का अमान्य शमन।
विशेष लक्षण:
- पुनरीक्षण अधिकारिता का प्रयोग न्यायालय द्वारा स्वतः संज्ञान से या पर-पक्षकार के अनुरोध पर किया जा सकता है, क्योंकि यह शक्ति स्वयं न्यायालय में निहित है।
- आपराधिक अपीलों की तरह, आपराधिक पुनरीक्षण याचिकाओं को भी व्यतिक्रम या अभियोजन की कमी के कारण खारिज नहीं किया जा सकता है।
- इस बात पर न्यायिक राय बंटी हुई है कि क्या सेशन न्यायाधीश पुनरीक्षण अधिकारिता में वर्धित दण्ड दे सकते हैं, और उच्च न्यायालयों के विचार भी परस्पर विरोधी हैं।
- अधिकार को पर्याप्त रूप से प्रभावित करने वाले या महत्त्वपूर्ण विवाद्यकों पर निर्णय लेने वाले आदेशों को धारा 397(2) के अधीन विशुद्ध रूप से अंतरिम नहीं माना जाता है।