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सिविल कानून

अर्जित भूमि के बदले नौकरी का अधिकार नहीं

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 10-Nov-2025

संजीव कुमार बनाम हरियाणा राज्य और अन्य

"अधिनियम के प्रावधानों के अधीन, अर्जित की जा रही भूमि पर, याचिकाकर्त्ता या उसका परिवार केवल पहले से संदाय किये गए प्रतिकर का ही हकदार है। अर्जित भूमि के बदले नौकरी देने का कोई प्रावधान नहीं है।"

न्यायमूर्ति पंकज मिथल और न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी. वराले

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, न्यायमूर्ति पंकज मिथल और न्यायमूर्ति प्रसन्ना बी. वराले ने 1998 में अर्जित भूमि के बदले सरकारी नौकरी की मांग करने वाली याचिका को खारिज कर दिया, यह निर्णय देते हुए कि भूमि अर्जन अधिनियम, 1894 ऐसे मामलों में केवल मौद्रिक प्रतिकर का प्रावधान करता है – नियोजन का नहीं।

  • उच्चतम न्यायालय ने संजीव कुमार बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य (2025) मामले में यह निर्णय दिया ।

संजीव कुमार बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?

  • याचिकाकर्त्ता के परिवार के पास कृषि भूमि थी जिसे राज्य सरकार ने वर्ष 1998 में भूमि अर्जन अधिनियम, 1894 के उपबंधों के अधीन अधिग्रहित किया था।
  • 1998 में भूमि अर्जन के समय याचिकाकर्त्ता का जन्म भी नहीं हुआ था और इसलिये अर्जन में उसकी कोई प्रत्यक्ष भागीदारी नहीं थी।
  • अर्जन के अनुसरण में, सक्षम प्राधिकारी द्वारा उचित प्रतिकर अवधारित किया गया तथा अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार याचिकाकर्त्ता के परिवार के सदस्यों को विधिवत संदाय किया गया।
  • परिवार ने भूमि अर्जन अधिनियम, 1894 के सांविधिक ढाँचे के अधीन दी गई प्रतिकर राशि स्वीकार कर ली।
  • अर्जन के लगभग तीन दशक बाद, वर्ष 2025 में, याचिकाकर्त्ता ने राज्य सरकार को अनुकंपा के आधार पर सरकारी सेवा में नियुक्ति की मांग करते हुए आवेदन दिया।
  • याचिकाकर्त्ता का नियोजन का दावा इस आधार पर किया गया था कि उसे 1998 में उसके परिवार से अर्जित भूमि के बदले में नियोजन प्रदान किया जाना चाहिये।
  • याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि सरकारी सेवा में नियोजन भूमि अर्जन से प्राप्त एक परिणामी अधिकार है और परिवार को हुए नुकसान की भरपाई के लिये यह प्रदान किया जाना चाहिये।
  • संबंधित प्राधिकारियों ने नियुक्ति के लिये याचिकाकर्त्ता के आवेदन को यह कहते हुए खारिज कर दिया कि अर्जित भूमि के बदले में नियोजन देने का कोई सांविधिक प्रावधान या अधिकार नहीं है।
  • अस्वीकृति से व्यथित होकर याचिकाकर्त्ता ने रिट याचिका के माध्यम से उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया तथा अधिकारियों को उसे नियोजन उपलब्ध कराने का निदेश देने की मांग की।
  • उच्च न्यायालय ने प्राधिकारियों के निर्णय को बरकरार रखते हुए रिट याचिका को खारिज कर दिया तथा याचिकाकर्त्ता के नियोजन के दावे में कोई योग्यता नहीं पाई।
  • उच्च न्यायालय के निर्णय से असंतुष्ट होकर याचिकाकर्त्ता ने भारतीय संविधान के अनुच्छेद 136 के अधीन उच्चतम न्यायालय में विशेष अनुमति याचिका दायर की।
  • याचिकाकर्त्ता ने तर्क दिया कि यदि भूमि अर्जन से प्रभावित परिवारों को नियोजन उपलब्ध कराने के लिये कोई प्रशासनिक नीति विद्यमान है, तो भी उसे ऐसी नीति का लाभ मिलना चाहिये।

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि भूमि अर्जन अधिनियम, 1894 के प्रावधानों के अधीन भूमि अर्जन के पश्चात् प्रभावित व्यक्ति या उसका परिवार केवल सांविधिक योजना के अधीन विहित मौद्रिक प्रतिकर का ही हकदार है।
  • न्यायालय ने कहा कि भूमि अर्जन अधिनियम, 1894 में अर्जित भूमि के बदले नियोजन या नौकरी देने का कोई उपबंध नहीं है।
  • पीठ ने कहा कि अधिनियम की सांविधिक योजना में अर्जन के माध्यम से संपत्ति के अधिकारों से वंचित करने के लिये पूर्ण और व्यापक उपचार के रूप में पर्याप्त प्रतिकर के संदाय की परिकल्पना की गई है।
  • न्यायालय ने कहा कि एक बार अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार वैध प्रतिकर दे दिया गया तो विधि के अधीन राज्य का दायित्त्व पूरी तरह से पूरा हो जाता है।
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि यदि किसी भी समय भूमि अर्जन से प्रभावित व्यक्तियों को नियोजन प्रदान करने के लिये कोई प्रशासनिक नीतिगत निर्णय लिया गया हो, तो ऐसी नीति भूमि अर्जन अधिनियम के स्पष्ट सांविधिक प्रावधानों पर अधिभावी नहीं हो सकती या उन्हें अप्रभावी नहीं कर सकती।
  • न्यायालय ने कहा कि प्रशासनिक नीतियाँ या कार्यकारी निर्णय ऐसे अधिकार प्रदान नहीं कर सकते जो मूल संविधि के अंतर्गत परिकल्पित या प्रदत्त न हों।
  • पीठ ने कहा कि याचिकाकर्त्ता द्वारा नियोजन के लिये दावा, ऐसी किसी भी नीति के तैयार होने की तारीख से 18 वर्ष से अधिक के विलंब के बाद दायर किया गया था, जिससे दावा पुराना और कालवर्जित हो गया।
  • न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्त्ता, जो अर्जन के समय पैदा भी नहीं हुआ था, को ऐसे संव्यवहार के आधार पर नियोजन पाने का कोई अधिकार नहीं है, जिसमें वह पक्षकार नहीं था।
  • उच्चतम न्यायालय ने संबंधित प्राधिकारियों द्वारा पारित आदेशों या याचिकाकर्त्ता के दावे को खारिज करने वाले उच्च न्यायालय के निर्णय में कोई त्रुटि, अवैधता या विकृति नहीं पाई।
  • न्यायालय ने कहा कि प्राधिकारियों और उच्च न्यायालय ने नियोजन के दावे को सही तरीके से खारिज कर दिया था, क्योंकि यह न तो विधि में टिकने योग्य था और न ही किसी सांविधिक प्रावधान द्वारा समर्थित था।
  • पीठ ने निष्कर्ष निकाला कि चूँकि परिवार ने पहले ही सांविधिक प्रतिकर प्राप्त कर लिया है तथा उसे स्वीकार कर लिया है, इसलिये अर्जन के लगभग तीन दशक बाद कोई और अनुतोष या लाभ का दावा नहीं किया जा सकता।
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इस तरह के विलंबित दावों पर विचार करने से एक खतरनाक पूर्व निर्णय स्थापित होगा और यह भूमि अर्जन विधि के स्थापित सिद्धांतों तथा विधिक कार्यवाही में अंतिमता के सिद्धांत के विपरीत होगा।

किन विधिक प्रावधानों का उल्लेख किया गया?

भूमि अर्जन अधिनियम, 1894

  • भूमि अर्जन अधिनियम, 1894, लोक प्रयोजनों के लिये राज्य द्वारा निजी भूमि के अर्जन को नियंत्रित करने वाला प्राथमिक सांविधिक ढाँचा है तथा प्रभावित भूमि स्वामियों के लिये प्रतिकर के अवधारण और संदाय का उपबंध करता है।
  • भूमि अर्जन अधिनियम, 1894 के प्रावधानों के अधीन, भूमि अर्जन के पश्चात्, प्रभावित व्यक्ति या उसका परिवार केवल सांविधिक योजना के अधीन विहित मौद्रिक प्रतिकर का हकदार है।
  • अधिनियम में अधिग्रहण के माध्यम से संपत्ति के अधिकारों से वंचित करने के लिये पूर्ण और संपूर्ण उपचार के रूप में पर्याप्त प्रतिकर के संदाय की परिकल्पना की गई है।
  • भूमि अर्जन अधिनियम, 1894 में अधिग्रहित भूमि के बदले नियोजन या नौकरी देने का कोई उपबंध नहीं है।
  • एक बार अधिनियम के उपबंधों के अनुसार वैध प्रतिकर दे दिया गया तो विधि के अधीन राज्य का दायित्त्व पूरी तरह से समाप्त और तुष्ट हो जाता है।
  • प्रशासनिक नीतियाँ या कार्यकारी निर्णय ऐसे अधिकार प्रदान नहीं कर सकते जो मूल विधि के अंतर्गत परिकल्पित या प्रदत्त न हों, तथा ऐसी नीतियाँ भूमि अर्जन अधिनियम के स्पष्ट सांविधिक प्रावधानों पर अधिभावी नहीं हो सकतीं या उन्हें अप्रभावी नहीं कर सकतीं।

भारत के संविधान का अनुच्छेद 136

  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 136 उच्चतम न्यायालय को भारत के राज्यक्षेत्र में किसी न्यायालय या अधिकरण द्वारा पारित या बनाए गए किसी वाद या मामले में किसी निर्णय, डिक्री, अवधारण, दण्डादेश या आदेश के विरुद्ध अपील करने की विशेष अनुमति प्रदान करने का विशेष अधिकार प्रदान करता है।
  • याचिकाकर्त्ता ने अनुच्छेद 136 का हवाला देते हुए उच्चतम न्यायालय में विशेष अनुमति याचिका दायर की, जिसमें उसने उच्च न्यायालय के उस निर्णय को चुनौती दी जिसमें उसने अर्जित भूमि के बदले नियोजन की मांग करने वाली अपनी रिट याचिका को खारिज कर दिया था।