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पारिवारिक कानून
हिंदू विधि के अधीन दूसरी पत्नी से उत्पन्न संतान के विभाजन के अधिकार
«12-Dec-2025
परिचय
हिंदू विधिक परंपराओं के अंतर्गत पारिवारिक संपत्ति के विभाजन की अवधारणा संयुक्त परिवार और सहदायिकी व्यवस्था की प्राचीन परंपराओं से गहराई से जुड़ी हुई है। वर्षों से, विधायी ढाँचा लैंगिक समता, वैधता संरक्षण और पारिवारिक संरचनाओं की पुनर्परिभाषा को सम्मिलित करने के लिये विकसित हुआ है। एक विशेष रूप से जटिल और संवेदनशील क्षेत्र है द्वितीय पत्नी से उत्पन्न संतानों के विधिक अधिकार, विशेषकर उन मामलों में जहाँ हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के अधीन विवाह स्वयं ही शून्य हो सकता है।
विवाह और विरासत को नियंत्रित करने वाला विधिक ढाँचा
- हिंदू विवाह अधिनियम वैध विवाह के लिये शर्तों को परिभाषित करता है।
- धारा 5 में यह उपबंध है कि एक हिंदू पुरुष या महिला अपने पहले विवाह के अस्तित्व में रहते हुए द्वितीय विवाह नहीं कर सकता।
- पहले पति या पत्नी के जीवित रहते हुए, विवाह-विच्छेद किये बिना किया गया द्वितीय विवाह, धारा 11 के अधीन शून्य है, जो द्विविवाह को शून्य घोषित करती है, और धारा 17 के अधीन जिसमे द्विविवाह को दण्डनीय अपराध बनाया गया है।
- हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 उत्तराधिकार का संचालन करता है। प्रथम वर्ग के उत्तराधिकारियों में पुत्र, पुत्री, विधवा, माता और अन्य निर्दिष्ट उत्तराधिकारी सम्मिलित हैं।
- महत्त्वपूर्ण बात यह है कि हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 16 शून्य या शून्यकरणीय विवाहों से उत्पन्न संतान को वैधता प्रदान करती है और पिता से उनके उत्तराधिकार के अधिकारों की पुष्टि करती है।
द्वितीय विवाह से उत्पन्न संतान: वैध बनाम शून्य
अवधारणा को परिभाषित करना:
- यदि प्रथम विवाह मृत्यु या विवाह-विच्छेद के कारण समाप्त हो गया हो, तो द्वितीय विवाह वैध है। ऐसे विवाह से उत्पन्न संतानें अन्य सभी संतानों के समान ही मानी जाती हैं।
- यद्यपि, यदि प्रथम पत्नी के जीवित रहते हुए बिना तलाक के द्वितीय विवाह हो जाता है, तो हिंदू विवाह अधिनियम के अधीन वह शून्य है। इसके होते हुए भी, धारा 16(1) यह सुनिश्चित करती है कि ऐसी संतान धर्मज हैं।
यह कहाँ लागू होता है?
- यह संरक्षण हिंदू विधि के अधीन शून्य या शून्यकरणीय किये जा सकने वाले विवाहों से जन्मे सभी संतान को प्राप्त है, जिससे यह सुनिश्चित होता है कि उन्हें उन परिस्थितियों के लिये दण्डित न किया जाए जो उनके नियंत्रण से बाहर हैं। धारा 16 के अधीन प्रदत्त वैधता पिता की संपत्ति से उत्तराधिकार के अधिकारों पर लागू होती है।
न्यायिक निर्वचन:
- परायनकंदियल एरावथ कनाप्रवन बनाम कल्लिआनी अम्मा (1996) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि विधिक रूप से अमान्य विवाह से उत्पन्न हुई संतान धर्मज हैं और उन्हें उत्तराधिकार का अधिकार है।
- रेवनासिद्दप्पा बनाम मल्लिकार्जुन (2011) के मामले में न्यायालय ने निर्णय दिया कि विधिक रूप से अमान्य विवाहों से उत्पन्न संतान धर्मज हैं और संपत्ति विरासत में पाने के पात्र हैं।
- जिनिया केओटिन बनाम कुमार सीताराम मांझी (2003) के मामले में पहले उत्तराधिकार को सीमित किया गया था, किंतु बाद के निर्णयों द्वारा इसे रद्द कर दिया गया था।
हिंदू विधि में विभाजन
अवधारणा को परिभाषित करना:
- विभाजन संयुक्त परिवार की संपत्ति को सहदयिकी के बीच बांटने की प्रक्रिया है।
- यह चार पीढ़ियों तक विरासत में मिली पैतृक संपत्ति और व्यक्ति द्वारा व्यक्तिगत रूप से अर्जित स्वयं उपार्जित संपत्ति पर लागू होता है।
2005 के बाद के सहदायिकी व्यवस्था सुधार:
- हिंदू उत्तराधिकार संशोधन अधिनियम, 2005 के साथ, पुत्रियों समान रूप से सहदायिकी बन गईं। यह भूतलक्षी रूप से लागू होता है।
- दूसरी शादी से हुए बच्चे, चाहे बेटा हो या बेटी, पैतृक संपत्ति होने पर बंटवारे की मांग करने के हकदार हैं।
विभाजन के अधिकार का दावा कौन कर सकता है:
- द्वितीय विवाह से उत्पन्न हुई संतान, चाहे वह विवाह शून्य हो या अवैध, पैतृक संपत्ति में सहदयिकी के रूप में विभाजन के अधिकारों का दावा कर सकते हैं।
- 2005 के संशोधन के बाद पुत्रों और पुत्रियों को समान अधिकार प्राप्त हैं।
किस न्यायालय के पास अधिकारिता है?
- संपत्ति के बंटवारे के वाद उस सिविल न्यायालय में दायर किये जाते हैं जिसकी अधिकारिता में संपत्ति स्थित हो या जहाँ प्रतिवादी निवास करता हो।
- सिविल प्रक्रिया संहिता के सुसंगत प्रावधानों के अधीन आवेदन किये जा सकते हैं।
व्यावहारिक उदाहरण:
- मान लीजिए कि ‘X’ की दो पत्नियाँ हैं: प्रथम पत्नी (विधिक) और द्वितीय पत्नी (विधिक रूप से अमान्य विवाह)।
- प्रथम पत्नी से संतानें: ‘A’ और’B’, द्वितीय पत्नी से ‘C’ और ‘D’।
- यदि ‘X’ निर्वसीयत मर जाता है और पूर्वजों से विरासत में मिली संपत्ति छोड़ जाता है, तो द्वितीय पत्नी का कोई अधिकार नहीं होता। परंतु ‘A’, ‘B’, ‘C’ और ‘D’ सभी को समान अंश मिलता है। प्रत्येक को ‘X’ के अंश का एक-चौथाई अंश मिलता है।
- इससे यह स्पष्ट होता है कि दोनों विवाहों से उत्पन्न संतानें विभाजन और उत्तराधिकार के अधिकारों के संबंध में समान स्थिति में हैं।
मुख्य अंतर: द्वितीय पत्नी बनाम उसकी संतान
- द्वितीय पत्नी (यदि विवाह विधिक रूप से अमान्य है): हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के अधीन विधिक उत्तराधिकारी नहीं है। पति की संपत्ति में अंश नहीं मांग सकती।
- द्वितीय पत्नी से उत्पन्न संतानें: हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 16 के अंतर्गत धर्मज हैं। प्रथम विवाह से उत्पन्न संतानों के समान ही पैतृक संपत्ति की उत्तराधिकारिता के पात्र हैं। सहदायिकी के रूप में पैतृक संपत्ति के विभाजन की मांग कर सकते हैं।
भरणपोषण का अधिकार
आपराधिक विधि के अधीन भरणपोषण:
- यदि द्वितीय पत्नी को अपने विवाह के समय पहले विवाह के बारे में जानकारी नहीं थी, तो वह दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन भरणपोषण का दावा कर सकती है।
- न्यायालयों ने निर्णय दिया है कि सद्भावना से विवाह करने वाली महिला भरणपोषण की हकदार है।
व्यक्तिगत विधि के अधीन भरणपोषण:
- संतान हिंदू दत्तक तथा भरणपोषण अधिनियम, 1956 के अधीन भरणपोषण का दावा कर सकते हैं।
- धर्मज और अधर्मज दोनों प्रकार की संतानों को अपने पिता से भरणपोषण प्राप्त करने का अधिकार है।
द्वितीय पत्नी की संतान के बीच विभाजन के अधिकार
- द्वितीय पत्नी से उत्पन्न संतानें आपस में समान संपत्ति के हकदार होते हैं। पुत्र और पुत्री दोनों ही आपस में संपत्ति के बंटवारे की मांग कर सकते हैं।
- 2005 के पश्चात् से पुत्रियाँ पैतृक संपत्ति में सहदयिकी हैं और उन्हें पुत्रों के समान अधिकार प्राप्त हैं।
- संपत्ति में विभाजन किसी भी सहदायिकी द्वारा मांगा जा सकता है, और संपत्ति को एक ही पीढ़ी के सभी सहदायिकों के बीच समान रूप से विभाजित किया जाता है।
- धारा 16 के अधीन धर्मजता स्थापित करने के लिये विवाह प्रमाण पत्र, तस्वीरें, शपथपत्र या रिश्ते को साबित करने वाले अन्य दस्तावेज़ी साक्ष्य प्रस्तुत करने की आवश्यकता हो सकती है।
निष्कर्ष
हिंदू विवाह द्वितीय पत्नी से उत्पन्न संतानों को पूर्ण धर्मजता और संपत्ति अधिकार प्रदान करता है, भले ही विवाह शून्य हो। हिंदू विवाह अधिनियम की धारा 16 और हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के पीछे विधायी उद्देश्य निर्दोष संतान को उनके माता-पिता के विवाह की अमान्य स्थिति के कारण होने वाले नुकसान से बचाना है।
विधिक पेशेवरों को यह सुनिश्चित करना चाहिये कि ऐसे संतान के अधिकारों की उचित विधिक कार्यवाही और परामर्श के माध्यम से रक्षा और प्रवर्तन किया जाए। 2005 के संशोधन ने पुत्रियों को समान सहदायिकी दर्जा प्रदान करके इन अधिकारों को और मजबूत किया, जिससे यह सुनिश्चित हुआ कि द्वितीय विवाह से जन्मे पुत्र और पुत्रियाँ दोनों ही पैतृक संपत्ति में विभाजन के माध्यम से अपना उचित अंश प्राप्त कर सकें।