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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

बाल यौन शोषण और दुर्व्यवहार सामग्री

 26-Sep-2024

जस्ट राइट्स फॉर चिल्ड्रन अलायंस बनाम एस. हरीश    

हम न्यायालयों को यह नोटिस देते हैं कि "चाइल्ड पोर्नोग्राफी" शब्द का उपयोग किसी भी न्यायिक आदेश या निर्णय में नहीं किया जाएगा। इसके बजाय "बाल यौन शोषण और दुर्व्यवहार सामग्री" (CSEAM) शब्द का समर्थन किया जाना चाहिये।

भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों?

भारत के उच्चतम न्यायालय ने सिफारिश की है कि संसद को "चाइल्ड पोर्नोग्राफी" शब्द को "बाल यौन शोषण और दुर्व्यवहार सामग्री" (CSEAM) से परिवर्तित करने के लिये लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO) में संशोधन करना चाहिये।

  • न्यायालय ने कहा कि "चाइल्ड पोर्नोग्राफी" शब्द अपराध की गंभीरता को कम करता है, क्योंकि यह सहमति और स्वैच्छिक कृत्यों को दर्शाता है, जबकि CSEAM बच्चों के शोषण और दुर्व्यवहार को सटीक रूप से दर्शाता है।
  • न्यायालय ने सभी न्यायिक निकायों को इन अपराधों की गंभीरता को उजागर करने के लिये अपने फैसलों में CSEAM का उपयोग करने का निर्देश दिया।
  • भारत के मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति जे.बी. पारदीवाला ने जस्ट राइट्स फॉर चिल्ड्रन अलायंस बनाम एस. हरीश के मामले में फैसला सुनाया।

जस्ट राइट्स फॉर चिल्ड्रन अलायंस बनाम एस. हरीश मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • 29 जनवरी 2020 को चेन्नई के अंबत्तूर में अखिल महिला पुलिस स्टेशन को राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (NCRB) की साइबर टिपलाइन रिपोर्ट के बारे में अतिरिक्त पुलिस उपायुक्त से सूचना मिली।
  • रिपोर्ट में आरोप लगाया गया कि प्रतिवादी नंबर 1 चाइल्ड पोर्नोग्राफी का सक्रिय उपभोक्ता था और उसने अपने मोबाइल फोन पर ऐसी सामग्री डाउनलोड की थी।
  • उसी दिन प्रतिवादी नंबर 1 के विरुद्ध सूचना प्रौद्योगिकी अधिनियम, 2000 (IT अधिनियम) की धारा 67B और लैंगिक अपराधों से बालकों के संरक्षण अधिनियम, 2012 (पोक्सो) की धारा 14(1) के तहत अपराधों के लिये एक प्राथमिकी दर्ज की गई थी।
  • जाँच के दौरान प्रतिवादी का मोबाइल फोन ज़ब्त कर लिया गया और फोरेंसिक जाँच के लिये भेज दिया गया।
  • जाँचकर्त्ताओं द्वारा पूछताछ किये जाने पर प्रतिवादी ने कॉलेज में नियमित रूप से पोर्नोग्राफी देखने की बात स्वीकार की।
  • 22 अगस्त 2020 की कंप्यूटर फोरेंसिक जाँच रिपोर्ट में प्रतिवादी के फोन पर चाइल्ड पोर्नोग्राफी से संबंधित दो वीडियो फाइलों के साथ-साथ सौ से अधिक अन्य अश्लील वीडियो फाइलें पाई गईं।
  • जाँच पूर्ण होने पर 19 सितंबर 2023 को प्रतिवादी के विरुद्ध IT अधिनियम की धारा 67B और पोक्सो की धारा 15(1) के तहत अपराधों के लिये आरोप-पत्र दायर किया गया।
    • एकत्र किये गए साक्ष्य के आधार पर पोक्सो के तहत आरोप को धारा 14(1) से परिवर्तित कर 15(1) कर दिया गया।
  • प्रतिवादी ने मद्रास उच्च न्यायालय में दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 482 के तहत एक आपराधिक मूल याचिका दायर की, जिसमें आरोप-पत्र को रद्द करने की मांग की गई।
  • मद्रास उच्च न्यायालय ने याचिका को स्वीकार कर लिया और 11 जनवरी 2024 को आरोप-पत्र को रद्द कर दिया, जिससे प्रतिवादी के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही प्रभावी रूप से समाप्त हो गई।
  • अपीलकर्त्ता, जो मूल कार्यवाही में पक्ष नहीं थे, ने मामले में शामिल सार्वजनिक महत्त्व के गंभीर मुद्दे का हवाला देते हुए उच्च न्यायालय के फैसले को चुनौती देने के लिये उच्चतम न्यायालय से अनुमति मांगी।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • मद्रास उच्च न्यायालय:
    • उच्च न्यायालय ने प्रतिवादी के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया, यह फैसला सुनाया कि केवल निजी तौर पर चाइल्ड पोर्नोग्राफी देखना या रखना, इसे प्रकाशित या प्रसारित किये बिना, POCSO अधिनियम की धारा 14 (1) या आईटी अधिनियम की धारा 67 B के तहत अपराध नहीं बनता है।
    • उच्च न्यायालय ने कहा कि इन कानूनों के तहत अपराध बनाने के लिये, इस बात का साक्ष्य होना चाहिये कि आरोपी ने पोर्नोग्राफिक उद्देश्यों के लिये किसी बच्चे का इस्तेमाल किया या सामग्री प्रकाशित/प्रसारित की, जो इस मामले में सिद्ध नहीं हुआ।
  • उच्चतम न्यायालय:
    • न्यायालय ने संसद को निर्देश दिया कि वह लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम (POCSO) में संशोधन करने पर विचार करे, ताकि "चाइल्ड पोर्नोग्राफी" शब्द को "बाल यौन शोषण और दुर्व्यवहार सामग्री" (CSEAM) से बदला जा सके।
      • न्यायालय ने सुझाया कि भारत संघ अंतरिम रूप से अध्यादेश के माध्यम से इस संशोधन को लाने पर विचार करे।
    • न्यायालय ने कहा कि, हम न्यायालयों को यह नोटिस देते हैं कि "चाइल्ड पोर्नोग्राफी" शब्द का उपयोग किसी भी न्यायिक आदेश या निर्णय में नहीं किया जाएगा। इसके बजाय "बाल यौन शोषण और दुर्व्यवहार सामग्री" (CSEAM) शब्द का समर्थन किया जाना चाहिये।
    • न्यायालय ने इस बात पर ज़ोर दिया कि "चाइल्ड पोर्नोग्राफी" शब्द अपराध की संपूर्ण सीमा को संबोधित करने में असमर्थ है और अपराध को महत्त्वहीन बना सकता है, क्योंकि पोर्नोग्राफी प्रायः वयस्कों के बीच सहमति से किये गए कृत्यों से संबंधित है।
    • न्यायालय ने कहा कि CSEAM शब्द अधिक सटीक रूप से इस वास्तविकता को दर्शाता है कि ऐसी सामग्री उन घटनाओं का रिकॉर्ड है, जहाँ किसी बच्चे का यौन शोषण या उसके साथ दुर्व्यवहार किया गया है।
    • न्यायालय ने कहा कि CSEAM शब्द का उपयोग उचित रूप से बच्चे के शोषण और दुर्व्यवहार पर बल देता है, जो कृत्य की आपराधिक प्रकृति और गंभीर प्रतिक्रिया की आवश्यकता को उजागर करता है।
    • न्यायालय ने पाया कि उच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में एक गंभीर त्रुटि की थी, परिणामस्वरूप विवादित निर्णय और आदेश को रद्द कर दिया।

IT अधिनियम की धारा 67B क्या संबोधित करती है?

  • इलेक्ट्रॉनिक रूप में चाइल्ड पोर्नोग्राफी का प्रकाशन, प्रसारण, निर्माण, संग्रह, ब्राउज़िंग, डाउनलोड, विज्ञापन, प्रचार, आदान-प्रदान या वितरण शामिल है।
  • यौन रूप से स्पष्ट कृत्यों के लिये बच्चों को ऑनलाइन संबंधों में फँसाना या उन्हें कृत्य के लिये लुभाना शामिल है।
  • पहली बार दोषी पाए जाने पर 5 वर्ष का कारावास या 10 लाख रुपए तक का ज़ुर्माना हो सकता है।
  • बाद में दोषी पाए जाने पर: 7 वर्ष तक का कारावास और 10 लाख रुपए तक का ज़ुर्माना का प्रावधान है।

IT अधिनियम की धारा 67B का विश्लेषण

  • धारा 6767B(a): चाइल्ड पोर्नोग्राफी का प्रसार
    • लैंगिक रूप से स्पष्ट कृत्यों में बच्चों को शामिल करने वाली सामग्री के प्रकाशन या प्रसारण पर दंडित करता है।
    • वास्तविक प्रकाशन/प्रसारण और प्रक्रिया में आरोपी की भागीदारी की आवश्यकता होती है।
  • धारा 67B(b): चाइल्ड पोर्नोग्राफी सामग्री का निर्माण, संग्रह और उससे संबंध 
    • बच्चों को अश्लील/अशिष्ट/लैंगिक रूप से स्पष्ट चित्रित करने वाले विडियो या छवि-आधारित सामग्री के निर्माण को शामिल करता है।
    • ऐसी सामग्री के संग्रह, ब्राउज़िंग, डाउनलोडिंग, विज्ञापन, प्रचार, विनिमय या वितरण को दंडित करता है।
    • सामग्री के निर्माण और उससे संबंध आदि, समेत 67B(a) के प्रावधानों से अधिक व्यापक।
  • धारा 67B(c): यौन कृत्यों के लिये बच्चों को लुभाना
    • कंप्यूटर संसाधनों का उपयोग करके यौन रूप से स्पष्ट कृत्यों में भाग लेने के लिये बच्चों को प्रेरित या लुभाना दंडित करता है।
    • वास्तविक प्रलोभन पर्याप्त है; अपराध के लिये बच्चे की भागीदारी आवश्यक नहीं है।
  • धारा 67B(d): सुकर ऑनलाइन बाल शोषण 
    • सुकर ऑनलाइन बाल शोषण के किसी भी रूप को दंडित करता है।
    • किसी भी विशिष्ट आशय की आवश्यकता नहीं है; कार्य में ऑनलाइन बाल शोषण में सहायता या सक्षमता की संभावना होनी चाहिये।
  • धारा 67B(e): बच्चों से संबंधित लैंगिक कृत्यों की रिकॉर्डिंग
    • बच्चे के साथ या उसकी उपस्थिति में यौन रूप से स्पष्ट कृत्यों की रिकॉर्डिंग को दंडित करता है।
    • बच्चे को शारीरिक रूप से मौजूद होने की आवश्यकता नहीं है; ऐसे कृत्यों (जैसे- वीडियो के माध्यम से) के संपर्क में आना पर्याप्त है।

POCSO अधिनियम का विधायी इतिहास और उद्देश्य क्या है?

  • बच्चों के विरुद्ध यौन अपराधों के संबंध में मौजूदा कानूनों में अपर्याप्तता को दूर करने के लिये अधिनियमित
  • बच्चों को यौन दुर्व्यवहार और शोषण से बचाने के लिये एक व्यापक ढाँचा प्रदान करने का लक्ष्य
  • साक्ष्य की रिकॉर्डिंग, जाँच और परीक्षण प्रक्रियाओं के संदर्भ में बच्चों के अनुकूल बनाया गया

POCSO की धारा 15 का विश्लेषण

  • POCSO के तहत "चाइल्ड पोर्नोग्राफी" की परिभाषा: 
    • POCSO की धारा 2(1)(d) के अनुसार "बच्चा" अठारह वर्ष से कम आयु का कोई भी हो सकता है।
    • यह परिभाषा लैंगिक-तटस्थ या लैंगिक रूप से अनुकूल नहीं (Gender-Neutral and Gender-Fluid) है।
    • धारा 2(1)(da) के अनुसार "चाइल्ड पोर्नोग्राफी" किसी भी ऐसे दृश्य चित्रण के रूप में है, जिसमें किसी बच्चे से लैंगिक संबंधी व्यवहार किया गया हो
    • इसमें वास्तविक बच्चे से अलग दिखने वाली तस्वीरें, वीडियो, डिजिटल/कंप्यूटर-जनरेटेड छवियाँ शामिल हैं
    • इसमें बच्चे को चित्रित करने के लिये बनाई गई, अनुकूलित या संशोधित छवियाँ भी शामिल हैं
  • पोर्नोग्राफिक सामग्री में "बच्चे" का निर्धारण:
    • प्रथम दृष्टया उपस्थिति परीक्षण: सामग्री में विवेकशील मस्तिष्क वाले सामान्य व्यक्ति के रूप में बच्चा होना चाहिये
    • उद्देश्यपूर्ण आयु निर्धारण के बजाय व्यक्तिपरक संतुष्टि मानदंड लागू होते हैं
    • तर्क: पोर्नोग्राफिक सामग्री में आयु को निर्णायक रूप से स्थापित करने में व्यावहारिक कठिनाइयाँ
  • धारा 15 के तहत तीन अलग-अलग अपराध:
    • धारा 15(1): चाइल्ड पोर्नोग्राफी को डिलीट/नष्ट/रिपोर्ट किये बिना संग्रहीत/रखना, साझा/प्रसारित करने का आशय 
    • धारा 15(2): संचारित, प्रदर्शित, प्रचार या वितरण के लिये संग्रहीत/रखना
    • धारा 15(3): व्यावसायिक उद्देश्यों के लिये संग्रहीत/रखना
  • कब्ज़े की अवधारणा:
    • वर्ष 2019 में हुए संशोधन ने धारा 15 के सभी उपखंडों में "भंडारण" के साथ-साथ "कब्ज़ा" शब्द भी जोड़ा
    • इसमें रचनात्मक कब्ज़े की अवधारणा शामिल है: तत्काल भौतिक कब्ज़े के बगैर भी नियंत्रण करने की शक्ति या आशय
  • दोषी मानसिक स्थिति की धारणा (POCSO की धारा 30):
    • विशेष न्यायालय POCSO के तहत अभियोजन में दोषी मानसिक स्थिति के अस्तित्व की धारणा बनाएगा
    • अभियुक्त ऐसी मानसिक स्थिति के दोष को सिद्ध करके इस धारणा का खंडन कर सकता है
    • खंडन के लिये साक्ष्य का मानक: उचित संदेह से परे
    • "दोषी मानसिक स्थिति" में आशय, उद्देश्य, किसी तथ्य का ज्ञान और किसी तथ्य पर विश्वास करने का कारण शामिल है

बाल यौन शोषण एवं शोषण सामग्री (CSEAM) के संबंध में उच्चतम न्यायालय ने भारत संघ को क्या सुझाव दिये हैं?

  • इन अपराधों की प्रकृति को अधिक सटीक रूप से दर्शाने के लिये "चाइल्ड पोर्नोग्राफी" शब्द को "बाल यौन शोषण और दुर्व्यवहार सामग्री" (CSEAM) से परिवर्तित करने के लिये POCSO अधिनियम में संशोधन करने पर विचार करें। यह संशोधन या अध्यादेश के माध्यम से किया जा सकता है।
  • संभावित अपराधियों को रोकने में सहायता करने के लिये CSEAM के कानूनी और नैतिक प्रभावों के बारे में जानकारी शामिल करने वाले व्यापक यौन शिक्षा कार्यक्रम लागू करना।
  • पीड़ितों के लिये सहायता सेवाएँ और अपराधियों के लिये पुनर्वास कार्यक्रम प्रदान करना, जिसमें मनोवैज्ञानिक परामर्श, चिकित्सीय हस्तक्षेप तथा शैक्षिक सहायता शामिल है।
  • CSEAM की वास्तविकताओं और इसके परिणामों के बारे में जन जागरूकता अभियान चलाना ताकि इसकी व्यापकता को कम करने में सहायता मिल सके।
  • समस्याग्रस्त यौन व्यवहार (PSB) वाले युवाओं के लिये प्रारंभिक पहचान और हस्तक्षेप रणनीतियों को लागू करना, जिसमें चेतावनी संकेतों को पहचानने के लिये शिक्षकों, स्वास्थ्य सेवा पेशेवरों और कानून प्रवर्तन के लिये प्रशिक्षण शामिल है।
  • PSB को रोकने में सहायता करने के लिये छात्रों को स्वस्थ संबंधों, सहमति और उचित व्यवहार के बारे में शिक्षित करने के लिये स्कूल-आधारित कार्यक्रम लागू करना
  • स्वास्थ्य और यौन शिक्षा के लिये एक व्यापक कार्यक्रम तैयार करने के लिये एक विशेषज्ञ समिति के गठन पर विचार करना, साथ ही कम उम्र से ही बच्चों के बीच POCSO के बारे में जागरूकता बढ़ाना।
  • न्यायालयों को सभी न्यायिक आदेशों और निर्णयों में "चाइल्ड पोर्नोग्राफी" के स्थान पर "बाल यौन शोषण और दुर्व्यवहार सामग्री" (CSEAM) शब्द का प्रयोग करना चाहिये

सांविधानिक विधि

शिक्षा का अधिकार

 26-Sep-2024

महेश सीताराम राउत बनाम महाराष्ट्र राज्य

कारावास किसी व्यक्ति के शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार को प्रतिबंधित नहीं करता है।”

न्यायमूर्ति डॉ. नीला गोखले और न्यायमूर्ति ए.एस. गडकरी

स्रोत: बॉम्बे उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति डॉ. नीला गोखले और न्यायमूर्ति ए.एस. गडकरी की पीठ ने कहा कि कारावास किसी व्यक्ति के शिक्षा प्राप्त करने के अधिकार को प्रतिबंधित नहीं करता है।

उच्चतम न्यायालय ने महेश सीताराम राउत बनाम महाराष्ट्र राज्य मामले में यह निर्णय दिया।

महेश सीताराम राउत बनाम महाराष्ट्र राज्य वाद की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • याचिकाकर्त्ता एक अभियुक्त है, जिसके खिलाफ भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 153 A, 505 (1) (B), 117, 120 B, 34 और विधिविरुद्ध क्रियाकलाप (निवारण) अधिनियम, 1967 की धारा 13, 16, 17, 18, 18 B, 20, 38, 39 और 40 के तहत मामला दर्ज किया गया है।
  • आरोप-पत्र दाखिल किया गया और मामला राष्ट्रीय अन्वेषण अभिकरण (NIA) को स्थानांतरित कर दिया गया। 
  • अभियुक्त के खिलाफ मामला विशेष न्यायाधीश, सिटी सिविल एवं सत्र न्यायालय, मुंबई के समक्ष लंबित है।
  • याचिकाकर्त्ता वर्तमान में नवी मुंबई के तलोजा सेंट्रल जेल में बंद है। 
  • याचिकाकर्त्ता विशेष न्यायाधीश द्वारा दी गई अनुमति के अनुसार महाराष्ट्र कॉमन एंट्रेंस टेस्ट (CET) विधि की परीक्षा में शामिल हुआ था। 
  • अंतिम मेरिट सूची में उसे 95वाँ स्थान दिया गया था।
  • उन्हें सिद्धार्थ विधि महाविद्यालय में अनंतिम रूप से सीट आवंटित की गई थी और उनकी बहन ने याचिकाकर्त्ता को आवंटित सीट को फ्रीज़ करने के लिये आवश्यक शुल्क का भुगतान किया था। 
  • याचिकाकर्त्ता को प्रवेश लेने के उद्देश्य से अपने दस्तावेज़ों के सत्यापन के लिये शारीरिक रूप से उपस्थित होना आवश्यक था। 
  • हालाँकि वह शारीरिक रूप से उपस्थित नहीं था क्योंकि वह तलोजा सेंट्रल जेल में बंद था। 
  • याचिकाकर्त्ता का कहना है कि 21 सितंबर 2023 को उसे ज़मानत पर रिहा करने का आदेश पारित किया गया था। हालाँकि NIA ने इस आदेश के खिलाफ विशेष अनुमति याचिका दायर की है। 
  • याचिकाकर्त्ता ने कहा कि उसे सिद्धार्थ विधि महाविद्यालय में प्रवेश लेने की अनुमति दी जानी चाहिये क्योंकि शिक्षा का अधिकार एक मौलिक अधिकार है। 
  • हालाँकि सिद्धार्थ विधि महाविद्यालय के वकील ने प्रस्तुत किया कि LLB एक पेशेवर पाठ्यक्रम है और विश्वविद्यालय के नियमों के अनुसार अभ्यर्थी की प्रत्येक शैक्षणिक वर्ष के दौरान 75% की न्यूनतम उपस्थिति अनिवार्य है। याचिकाकर्त्ता जेल में होने के कारण निस्संदेह उपरोक्त उपस्थिति की आवश्यकता को पूरा करने में सक्षम नहीं होगा। 
  • इस प्रकार, यह मामला उच्च न्यायालय के समक्ष आया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने पाया कि याचिकाकर्त्ता ने विधि महाविद्यालय में एल.एल.बी. पाठ्यक्रम में प्रवेश लेने के लिये सी.ई.टी. परीक्षा दी थी।
  • न्यायालय ने कहा कि ऐसी स्थिति में निर्धारित प्रक्रिया का पालन करते हुए सीट आवंटित किये जाने के बावजूद महाविद्यालय में प्रवेश लेने के अवसर से वंचित करना याचिकाकर्त्ता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है।
  • इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि याचिकाकर्त्ता को सिद्धार्थ विधि महाविद्यालय में एल.एल.बी. पाठ्यक्रम में प्रवेश लेने की अनुमति दी जानी चाहिये।
  • इसके अलावा न्यायालय ने कहा कि चूँकि महाविद्यालय को दस्तावेज़ों के सत्यापन के लिये अभ्यर्थी की भौतिक उपस्थिति की आवश्यकता होती है, इसलिये न्यायालय ने याचिकाकर्त्ता के अधिकृत प्रतिनिधि/निकटतम रिश्तेदार को महाविद्यालय में भौतिक रूप से उपस्थित होने एवं दस्तावेज़ों को सत्यापित करने या वैकल्पिक रूप से, तलोजा केंद्रीय कारागार से दस्तावेज़ों पर याचिकाकर्त्ता के हस्ताक्षर लेने की अनुमति देने पर विचार करने का निर्णय महाविद्यालय पर छोड़ दिया।
  • हालाँकि, न्यायालय ने स्पष्ट किया कि याचिकाकर्त्ता को विश्वविद्यालय और सिद्धार्थ विधि महाविद्यालय के किसी भी मानदण्ड को पूरा करने से कोई छूट नहीं दी गई है, जो कि अभ्यर्थियों के लिये प्रचलित नियमों एवं विनियमों के अनुसार आवश्यक है।
  • साथ ही, विश्वविद्यालय और महाविद्यालय न्यूनतम उपस्थिति मानदण्ड या किसी अन्य पात्रता मानदण्ड को पूरा करने में विफलता के लिये याचिकाकर्त्ता को परीक्षा में बैठने की अनुमति देने से इनकार करने के लिये स्वतंत्र थे।

शिक्षा का अधिकार क्या है?

  • सर्वोच्च न्यायालय ने उन्नीकृष्णन बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (1993) मामले में माना कि देश के नागरिकों द्वारा शिक्षा प्राप्त करना मौलिक अधिकार है।
  • न्यायालय ने इस मामले में माना कि ऐसा अधिकार भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 21 से प्राप्त होता है।
  • इसके बाद, संविधान (छियासीवाँ संशोधन) अधिनियम, 2002 अधिनियमित किया गया, जिसमें निम्नलिखित संवैधानिक संशोधन प्रस्तुत किये गए: 
  • अनुच्छेद 21 A: 
    • इसे भाग III अर्थात मौलिक अधिकारों में सम्मिलित किया गया।
    • इसके अंतर्गत यह प्रावधान है कि राज्य छह से चौदह वर्ष की आयु के सभी बच्चों को ऐसी रीति से निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराएगा, जैसा राज्य विधि द्वारा निर्धारित करे।
  • अनुच्छेद 45: 
    • इसे भाग IV यानी राज्य की नीति के निदेशक तत्त्वों में शामिल किया गया था। 
    • इस अनुच्छेद में प्रावधान है कि राज्य सभी बच्चों को छह वर्ष की आयु पूरी करने तक प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा प्रदान करने का प्रयास करेगा।
  • अनुच्छेद 51 A: 
    • इसे भाग IV A यानी मौलिक कर्त्तव्यों में शामिल किया गया। 
    • अनुच्छेद 51A में प्रत्येक नागरिक के मौलिक कर्त्तव्यों की सूची दी गई है। 
    • इन कर्त्तव्यों में खंड (k) जोड़ा गया और यह प्रावधान किया गया कि भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कर्त्तव्य होगा यदि वह माता-पिता या संरक्षक है, छह वर्ष से चौदह वर्ष तक की आयु वाले अपने, यथास्थिति, बालक या प्रतिपाल्य के लिये शिक्षा के अवसर प्रदान करे।
    • इसके अलावा, अनुच्छेद 21A को लागू करने के लिये वर्ष 2009 में निशुल्क और अनिवार्य बाल शिक्षा का अधिकार अधिनियम या शिक्षा का अधिकार अधिनियम (RTE Act) लागू किया गया।

शिक्षा के अधिकार के संबंध में प्रासंगिक अंतर्राष्ट्रीय विधिक प्रावधान क्या हैं?

  • मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा - अनुच्छेद 26
    • शिक्षा कम-से-कम प्रारंभिक और मौलिक चरणों में निशुल्क होगी। तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा सामान्य रूप से उपलब्ध कराई जाएगी तथा उच्च शिक्षा योग्यता के आधार पर सभी के लिये समान रूप से सुलभ होगी।
    • शिक्षा सभी राष्ट्रों, नस्लीय और धार्मिक समूहों के बीच सहिष्णुता और मित्रता को बढ़ावा देगी।
    • माता-पिता को अपने बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा के प्रकार को चुनने का पूर्व अधिकार है।
  • बाल अधिकारों पर कन्वेंशन - अनुच्छेद 28
    • राज्य पक्ष बच्चे के शिक्षा के अधिकार को मान्यता देते हैं, इस अधिकार को उत्तरोत्तर और समान अवसर के आधार पर प्राप्त करने की दृष्टि से,
    • राज्य पक्ष यह सुनिश्चित करने के लिये सभी उचित उपाय करेंगे कि स्कूल का अनुशासन बच्चे की मानवीय गरिमा के अनुरूप और वर्तमान कन्वेंशन के अनुरूप तरीके से संचालित किया जाए।
    • राज्य पक्ष शिक्षा से संबंधित मामलों में अंतर्राष्ट्रीय सहयोग को बढ़ावा देंगे और प्रोत्साहित करेंगे।
  • आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकारों पर अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा (ICESC) - अनुच्छेद 13
    • वर्तमान प्रसंविदा के राज्य पक्ष सभी के शिक्षा के अधिकार को मान्यता देते हैं।
    • इस अनुच्छेद के किसी भी भाग की व्याख्या इस प्रकार नहीं की जाएगी कि इससे व्यक्तियों और निकायों की शैक्षणिक संस्थाओं की स्थापना और निर्देशन की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप हो।
  • ICESC का अनुच्छेद 14
  • प्रत्येक राज्य पक्ष अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा को निशुल्क प्रदान करेगा और इस संबंध में विस्तृत कार्य योजना तैयार करेगा।

शिक्षा का अधिकार अधिनियम, 2009 क्या है?

  • अनुच्‍छेद 21-क और आरटीई अधिनियम 1 अप्रैल, 2010 को लागू हुआ। 
  • आरटीई अधिनियम के शीर्षक में ''निशुल्‍क और अनिवार्य'' शब्‍द सम्मिलित हैं।
  • 'निशुल्‍क शिक्षा' का तात्‍पर्य यह है कि किसी बच्‍चे जिसको उसके माता-पिता द्वारा स्‍कूल में दाखिल किया गया है, को छोड़कर कोई बच्‍चा, जो उचित सरकार द्वारा समर्थित नहीं है, किसी किस्‍म की फीस या प्रभार या व्‍यय जो प्रारंभिक शिक्षा जारी रखने और पूरा करने से उसको रोके अदा करने के लिये उत्‍तरदायी नहीं होगा।
  • इस अधिनियम के लागू होने के साथ ही भारत अधिकार-आधारित ढाँचे की ओर बढ़ गया, जिसमें संविधान के अनुच्छेद 21क में निहित इस मौलिक बाल अधिकार को लागू करने का कर्त्तव्य केंद्र और राज्य सरकार पर डाला गया है। 
  • RTE अधिनियम निम्नलिखित प्रावधान करता है:
    • किसी पड़ोस के स्‍कूल में प्रारंभिक शिक्षा पूरी करने तक निशुल्‍क और अनिवार्य शिक्षा के लिये बच्‍चों का अधिकार।
    • यह गैर-प्रवेश दिये गए बच्‍चे के लिये उचित आयु कक्षा में प्रवेश किये जाने का प्रावधान करता है।
    • यह निशुल्‍क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने में उचित सकारों, स्‍थानीय प्राधिकारी और अभिभावकों कर्त्तव्‍यों तथा दायित्‍वों एवं केंद्र व राज्‍य सरकारों के बीच वित्तीय और अन्‍य ज़िम्‍मेदारियों को विनिर्दिष्‍ट करता है।
  • यह उपयुक्‍त रूप से प्रशिक्षित अध्‍यापकों की नियुक्ति के लिये प्रावधान करता है अर्थात् अपेक्षित प्रवेश और शैक्षिक योग्‍यताओं के साथ अध्‍यापक।
  • यह निषिद्ध करता है:
    • शारीरिक दण्ड और मानसिक उत्‍पीड़न; 
    • बच्‍चों के प्रवेश के लिये अनुवीक्षण प्रक्रियाएँ; 
    • प्रति व्‍यक्ति शुल्‍क; 
    • अध्‍यापकों द्वारा निजी ट्यूशन और 
  • बिना मान्‍यता के स्‍कूलों को चलाना निषिद्ध करता है।
  • यह, अन्‍यों के साथ-साथ, छात्र-शिक्षक अनुपात (पीटीआर), भवन और अवसंरचना, स्‍कूल के कार्य दिवस, शिक्षक के कार्य के घंटों से संबंधित मानदण्‍डों और मानकों को निर्धारित करता है।

शिक्षा के अधिकार पर ऐतिहासिक मामले कौन-से हैं?

  • उन्नी कृष्णन जेपी और अन्य बनाम आंध्र प्रदेश राज्य और अन्य (1993)
    • उच्चतम न्यायालय ने माना कि शिक्षा का अधिकार सीधे जीवन के अधिकार से निकलता है और शिक्षा का अधिकार संविधान के भाग-III में निहित मौलिक अधिकार के साथ सहवर्ती है।
    • शिक्षा के अधिकार को जीवन के अधिकार में निहित मानने का प्रभाव यह है कि राज्य विधि द्वारा निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार ही नागरिक को शिक्षा के अधिकार से वंचित कर सकता है।
  •  सोसायटी फॉर अनएडेड प्राइवेट स्कूल्स ऑफ राजस्थान बनाम भारत संघ और अन्य  (2012)
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने RTE अधिनियम की धारा 12 की संवैधानिकता को बरकरार रखा, जिसके अनुसार सभी स्कूलों (चाहे वे राज्य द्वारा वित्तपोषित हों या निजी) को वंचित समूहों से 25% प्रवेश स्वीकार करना होगा।
    • इस मामले में न्यायालय ने दोहराया कि सभी बच्चों को, खासकर उन बच्चों को जो प्राथमिक शिक्षा का खर्च नहीं उठा सकते, मुफ्त और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करना राज्य का प्राथमिक दायित्व है।
  • मास्टर जय कुमार अपने पिता मनीष कुमार बनाम आधारशिला विद्या पीठ और अन्य (2024) के माध्यम से:
    • इस मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि गैर-सहायता प्राप्त निजी संस्थान द्वारा शिक्षा प्रदान करना सार्वजनिक कर्त्तव्य की परिभाषा में आता है।
    • इस मामले में न्यायालय ने माना कि सीटों के आवंटन के बाद किसी भी बच्चे को प्रवेश देने से इनकार करना RTE अधिनियम का उल्लंघन है।


सिविल कानून

घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 25

 26-Sep-2024

एस. विजिकुमारी बनाम मोवनेश्वराचारी सी.

“अधिनियम की धारा 25(2) के लागू होने के लिये, अधिनियम के तहत आदेश पारित होने के बाद परिस्थितियों में हुए परिवर्तन के आधार पर ही लागू किया जा सकता है।”

न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और एन. कोटिश्वर सिंह

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने एस. विजिकुमारी बनाम मोहनेश्वराचारी सी. के वाद में माना है कि संशोधन/परिवर्तन/या रद्द करने का आदेश केवल तभी पारित किया जा सकता है जब घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005 (DV) की धारा 12 के तहत पारित आदेश के बाद परिस्थितियों में परिवर्तन हो, अन्यथा नहीं।

एस. विजयकुमारी बनाम मोहनेश्वराचारी सी वाद की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस वाद में अपीलकर्त्ता प्रत्यर्थी की पत्नी थी।
  • अपीलकर्त्ता ने कुटुंब न्यायालय में घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 12 के तहत याचिका दायर की।
  • इसे स्वीकार कर लिया गया और भरण-पोषण के लिये 12000/- रुपए तथा मुआवज़े के रूप में 1 लाख रुपए दिये गए।
  • प्रत्यर्थी ने घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 29 के तहत अपीलीय न्यायालय में निर्णय के विरुद्ध अपील की, जिसे अपील दायर करने में देरी के कारण खारिज कर दिया गया।
  • प्रत्यर्थी ने घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 25 के तहत ट्रायल कोर्ट में आवेदन दायर किया, जिसे खारिज कर दिया गया।
  • निर्णय से व्यथित होकर प्रत्यर्थी ने घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 29 के तहत कर्नाटक उच्च न्यायालय में अपील दायर की, जिसे उच्च न्यायालय ने स्वीकार कर लिया और घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 25 के तहत आवेदन पर आगे विचारण हेतु इसे अधीनस्थ न्यायालय को पुनः प्रेषित कर दिया गया।
  • प्रत्यर्थी ने भरण-पोषण के संबंध में कुटुंब न्यायालय के आदेश को रद्द करने की मांग की और भुगतान की गई राशि की वापसी की भी मांग की।
  • प्रत्यर्थी ने तर्क दिया कि पत्नी (अपीलकर्त्ता) प्रत्यर्थी से अधिक आय अर्जित रही थी और इसलिये उसे भरण-पोषण राहत नहीं दी जानी चाहिये। आवेदन की स्वीकृति ने दोनों पक्षों को साक्ष्य प्रस्तुत करने और विधि के अनुसार आवेदन का निपटान करने का अवसर दिया। उच्च न्यायालय के निर्णय से व्यथित होकर अपीलकर्त्ता ने कर्नाटक उच्च न्यायालय के समक्ष आपराधिक पुनरीक्षण याचिका दायर की जिसे खारिज कर दिया गया। इससे व्यथित होकर अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय के समक्ष अपील दायर की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि:
    • डी.वी. अधिनियम की धारा 25 (2) के अनुसार यदि परिस्थिति में कोई परिवर्तन होता है, तो वह ऐसे आदेश में परिवर्तन, संशोधन या निरसन की मांग करने का आधार हो सकता है।
    • डी.वी. अधिनियम की धारा 25 (2) का दायरा अधिनियम के तहत पारित सभी प्रकार के आदेशों से निपटने के लिये पर्याप्त व्यापक है, जिसमें भरण-पोषण, निवास, संरक्षण आदि के आदेश शामिल हो सकते हैं।
    • डी.वी. अधिनियम के तहत पारित आदेश तब तक लागू रहता है जब तक कि उस आदेश को डी.वी. अधिनियम की धारा 29 के तहत अपील में या मजिस्ट्रेट द्वारा डी.वी. अधिनियम की धारा 25 (2) के अनुसार परिवर्तित/संशोधित/निरस्त नहीं कर दिया जाता।
    • डी.वी. अधिनियम की धारा 25 के प्रावधानों के अनुसार प्रत्यर्थी द्वारा किये गए आवेदन से पूर्व पारित किये गए आदेश को निरस्त नहीं किया जा सकता।
    • इसलिये, उच्चतम न्यायालय ने प्रत्यर्थी के आवेदन को खारिज कर दिया और माना कि डी.वी. अधिनियम की धारा 25 के अनुसार आदेश को तभी निरस्त किया जा सकता है जब आदेश पारित होने के बाद परिस्थितियों में परिवर्तन हो।

घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 25 क्या है?

  • घरेलू हिंसा अधिनियम की धारा 25: आदेशों की अवधि और उनमें परिवर्तन-
  • (1) धारा 18 के अधीन किया गया संरक्षण आदेश व्यथित व्यक्ति द्वारा निर्मोचन के लिये आवेदन किये जाने तक प्रवृत्त रहेगा।
  • (2) यदि मजिस्ट्रेट का, व्यथित व्यक्ति या प्रत्यर्थी से किसी आवेदन की प्राप्ति पर यह समाधान हो जाता है कि इस अधिनियम के अधीन किये गए किसी आदेश में परिस्थितियों में परिवर्तन के कारण परिवर्तन, उपांतरण या प्रतिसंहरण अपेक्षित है तो वह लेखबद्ध किये जाने वाले कारणों से ऐसा आदेश, जो वह समुचित समझे, पारित कर सकेगा।

महत्त्वपूर्ण निर्णय:

  • अलेक्जेंडर संबाथ अबनेर बनाम मिरॉन लेडे (2009):
    • इस मामले में यह माना गया कि परिवर्तन, संशोधन या निरसन का आदेश भविष्यलक्ष्यी होता है, न कि भूतलक्ष्यी।
  • कुनापारेड्डी उर्फ ​​नुकला शंका बालाजी बनाम कुनापारेड्डी स्वर्ण कुमारी और अन्य (2016)
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने डी.वी. अधिनियम के तहत दायर आवेदनों में संशोधन की अनुमति देने की शक्ति को माना, बशर्ते कि दूसरे पक्ष को कोई पूर्वाग्रह न हो। यह माना गया कि संशोधन के लिये उन परिस्थितियों में अनुमति दी जा सकती है जहाँ बाद की मुकदमेबाज़ी की बहुलता से बचने के लिये ऐसा संशोधन आवश्यक हो।

सिविल कानून

शासकीय गुप्त बात अधिनियम के तहत अत्यंत गोपनीयता

 26-Sep-2024

महानिदेशक, प्रोजेक्ट वर्षा रक्षा मंत्रालय (नौसेना), भारत संघ, नई दिल्ली बनाम मेसर्स नवयुग-वान ओर्ड जेवी

"न्यायालय ने फैसला सुनाया कि शासकीय गुप्त बात अधिनियम के तहत "अत्यंत गोपनीयता" के रूप में वर्गीकृत दस्तावेज़ों को मध्यस्थ अधिकरण द्वारा प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं हो सकती।"

न्यायमूर्ति मनोज जैन

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

दिल्ली उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि शासकीय गुप्त बात अधिनियम, 1923 के तहत "अत्यंत गोपनीयता" और "संरक्षित" के रूप में वर्गीकृत दस्तावेज़ों को मध्यस्थ अधिकरण द्वारा प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है। यह निर्णय प्रोजेक्ट वर्षा के महानिदेशक की याचिका के बाद आया, जिन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं का हवाला देते हुए एक निर्माण अनुबंध पर मेसर्स नवयुग-वन ओर्ड जेवी के साथ मध्यस्थता के दौरान संवेदनशील दस्तावेज़ों को प्रस्तुत करने का विरोध किया था।

  • न्यायमूर्ति मनोज जैन ने महानिदेशक, प्रोजेक्ट वर्षा रक्षा मंत्रालय (नौसेना), भारत संघ, नई दिल्ली बनाम मेसर्स नवयुग-वन ओर्ड जेवी के मामले में फैसला सुनाया।

महानिदेशक, प्रोजेक्ट वर्षा रक्षा मंत्रालय (नौसेना), भारत संघ, नई दिल्ली बनाम मेसर्स नवयुग-वान ओर्ड जेवी की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्ष 2017 में प्रोजेक्ट वर्षा (केंद्रीय रक्षा मंत्रालय का भाग) के महानिदेशक ने प्रोजेक्ट वर्षा के लिये बाहरी बंदरगाह के निर्माण के लिये मेसर्स नवयुग-वन ओर्ड जेवी के साथ एक अनुबंध किया।
  • पक्षकारों के बीच विवाद उत्पन्न हुआ, जिसके कारण मेसर्स नवयुग-वन ओर्ड जेवी ने मध्यस्थता कार्यवाही शुरू की।
  • मध्यस्थता के दौरान दावेदार (मेसर्स नवयुग-वन ओर्ड जेवी) ने परियोजना से संबंधित कुछ दस्तावेज़ों के निरीक्षण और प्रस्तुतीकरण की मांग करते हुए एक आवेदन दायर किया।
  • महानिदेशक ने राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं और शासकीय गुप्त बात अधिनियम, 1923 की प्रयोज्यता का हवाला देते हुए दस्तावेज़ों के प्रस्तुतीकरण का विरोध किया।
  • यह तर्क दिया गया कि प्रोजेक्ट वर्षा को "अत्यंत गोपनीयता" के रूप में वर्गीकृत किया गया था और वांछित दस्तावेज़ शासकीय गुप्त बात अधिनियम के तहत संरक्षित थे।
  • मध्यस्थ अधिकरण ने एक आदेश पारित किया, जिसमें महानिदेशक को विवादित दस्तावेज़ों को सीलबंद लिफाफे में अधिकरण को प्रस्तुत करने का निर्देश दिया गया।
  • महानिदेशक ने संविधान 1950 के अनुच्छेद 227 के तहत मध्यस्थ अधिकरण के इस आदेश को दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी। उच्च न्यायालय के समक्ष मुख्य मुद्दा यह था कि क्या शासकीय गुप्त बात अधिनियम के तहत "अत्यंत गोपनीयता" के रूप में वर्गीकृत दस्तावेज़ों को मध्यस्थ अधिकरण द्वारा प्रस्तुत करने का निर्देश दिया जा सकता है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि दोनों पक्षकारों को मध्यस्थता कार्यवाही में अपना मामला प्रस्तुत करने का उचित अवसर मिलना चाहिये, लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा का पहलू सर्वोपरि है और इससे समझौता नहीं किया जा सकता।
  • न्यायालय ने कहा कि भारत के पूर्वी तट पर स्थित विचाराधीन परियोजना भारत की रक्षा के लिये अत्यधिक संवेदनशील और महत्त्वपूर्ण है, एक ऐसा तथ्य जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
  • न्यायालय ने कहा कि यदि भारत सरकार द्वारा सूचना को "अत्यंत गोपनीयता" के रूप में वर्गीकृत किया गया है और यह सीधे राष्ट्रीय रक्षा से संबंधित है, तो इस महत्त्वपूर्ण तथ्य को उचित महत्त्व दिया जाना आवश्यक है।
  • न्यायालय ने कहा कि मध्यस्थ अधिकरण को वर्गीकृत दस्तावेज़ों को प्रस्तुत करने पर ज़ोर नहीं देना चाहिये था, यहाँ तक ​​कि सीलबंद लिफाफे में भी, क्योंकि यह अधिकरण के अधिकार क्षेत्र से पृथक होगा कि वह यह मूल्यांकन करे कि ऐसे दस्तावेज़ उचित रूप से वर्गीकृत हैं या नहीं।
  • न्यायालय ने निष्कर्ष दिया कि एक बार दस्तावेज़ों को गोपनीय और वर्गीकृत के रूप में लेबल कर दिया जाए, तो मामले का अंत हो जाना चाहिये, क्योंकि ऐसी परिस्थितियों में राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी चिंताएँ संविदात्मक दायित्वों से अधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं।
  • न्यायालय ने कहा कि कुछ पहलुओं को भारत संघ के विवेक पर छोड़ देना बेहतर है, तथा न तो मध्यस्थ  अधिकरण और न ही न्यायालय को राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित वर्गीकृत जानकारी की जाँच या मूल्यांकन करने का प्रयास करना चाहिये।

शासकीय गुप्त बात अधिनियम, 1923 (OSA):

  • शासकीय गुप्त बात अधिनियम, 1923 भारत में एक विधि है जो राज्य की आधिकारिक सूचनाओं को सुरक्षा प्रदान करता है, विशेष रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा और रक्षा के संबंध में।
  • "अत्यंत गोपनीयता" के रूप में वर्गीकृत दस्तावेज़ अधिनियम के तहत वर्गीकरण के उच्चतम स्तर का प्रतिनिधित्व करते हैं, यह दर्शाता है कि अनधिकृत प्रकटीकरण राष्ट्रीय सुरक्षा को असाधारण रूप से गंभीर नुकसान पहुँचाएगा।
  • "संरक्षित" दस्तावेज़ शासकीय गुप्त बात अधिनियम के तहत सुरक्षित हैं, उनका प्रकटीकरण केवल अधिकृत कर्मियों तक ही सीमित है।
  • अधिनियम किसी भी अनधिकृत व्यक्ति को किसी भी गुप्त आधिकारिक कोड, पासवर्ड, स्केच, योजना, मॉडल, लेख, नोट, दस्तावेज़ या जानकारी का खुलासा करना, प्राप्त करना, एकत्र करना, रिकॉर्ड करना, प्रकाशित करना या संचार करना अपराध बनाता है जो किसी दुश्मन के लिये उपयोगी हो सकता है या राज्य के हितों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर सकता है।
  • दस्तावेज़ों का "अत्यंत गोपनीयता" और "संरक्षित" के रूप में वर्गीकरण आमतौर पर नामित सरकारी अधिकारियों द्वारा उनमें निहित जानकारी की संवेदनशीलता तथा संभावित प्रभाव के आधार पर किया जाता है।
  • न्यायालयों ने आमतौर पर शासकीय गुप्त बात अधिनियम के तहत दस्तावेज़ों के सरकारी वर्गीकरण के प्रति सम्मान दिखाया है, विशेष रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित मामलों में, साथ ही पारदर्शिता और न्याय के सिद्धांतों के साथ संतुलन बनाए रखते हुए।

शासकीय गुप्त बात अधिनियम (OSA), 1923 की धारा 5 क्या है?

  • गुप्त आधिकारिक जानकारी के प्रकटीकरण से संबंधित है।
  • इसमें शामिल हैं:
    • कोई भी व्यक्ति जो गुप्त आधिकारिक जानकारी रखता/नियंत्रित करता है
    • कोई भी व्यक्ति जो अधिनियम का उल्लंघन करके जानकारी प्राप्त करता है
    • जिन्हें गोपनीय रूप से आधिकारिक जानकारी सौंपी गई है
    • जिनके पास वर्तमान/पिछले सरकारी पदों के कारण पहुँच है
  • सूचना देने वाला और सूचना प्राप्त करने वाला दोनों ही व्यक्ति दोषी हैं।
  • यह किसी भी "गुप्त" सूचना पर लागू होता है, हालाँकि अधिनियम में "गोपनीयता" को परिभाषित नहीं किया गया है।
  • सज़ा: 3 वर्ष तक का कारावास, ज़ुर्माना या दोनों।

न्यायिक समीक्षा, शासकीय गुप्त बात अधिनियम और सूचना का अधिकार अधिनियम के साथ किस प्रकार परस्पर क्रिया करती है?

  • न्यायिक समीक्षा और OSA:
    • न्यायालय यह तय कर सकते हैं कि किसी व्यक्ति ने अधिनियम के तहत कोई अपराध किया है या नहीं।
    • न्यायालय यह निर्धारित कर सकते हैं कि सूचना "गोपनीय" है या नहीं (न्यायालय का मुद्दा)।
    • यह स्पष्ट नहीं है कि न्यायालय "लोकहित" प्रकटीकरण पर निर्णय दे सकते हैं या नहीं।
    • नंद लाल मोरे बनाम राज्य (वर्ष 1965) में न्यायालय ने बज़ट प्रस्तावों को गोपनीय माना था।
    • एस.पी. गुप्ता बनाम भारत के राष्ट्रपति मामले में प्रकटीकरण पर अधिक उदार रुख अपनाया गया।
  • RTI  अधिनियम और OSA:
    • RTI अधिनियम (2005) OSA की गोपनीयता की संस्कृति के विपरीत है। 
    • RTI अधिनियम ने OSA को पूर्ण रूप से प्रतिस्थापित नहीं किया है। 
    • RTI अधिनियम की धारा 8(2): प्रकटीकरण में सार्वजनिक हित OSA को ओवरराइड कर सकता है। 
    • RTI अधिनियम की धारा 22: इसके प्रावधान OSA के साथ असंगतताओं के बावजूद लागू होते हैं।