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वाणिज्यिक विधि
मध्यस्थ पंचाट का रद्दीकरण
« »25-Jul-2024
ट्रांस इंजीनियर्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड बनाम ओसुका केमिकल्स (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड "जहाँ मध्यस्थता पंचाट में दिये गए निष्कर्ष किसी साक्ष्य पर आधारित नहीं हैं तथा प्रथम दृष्टि में ही दोषपूर्ण हैं, तो यह पंचाट को चुनौती देने के लिये संवेदनशील बनाता है”। न्यायमूर्ति सचिन दत्ता |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति सचिन दत्ता की पीठ ने कहा कि यदि किसी पंचाट में साक्ष्य या संविदा के शर्तों का मौलिक रूप से दोषपूर्ण निर्वचन किया गया है तो उच्च न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता है।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने ट्रांस इंजीनियर्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम ओसुका केमिकल्स (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड के मामले में यह निर्णय दिया।
ट्रांस इंजीनियर्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम ओसुका केमिकल्स (इंडिया) प्राइवेट लिमिटेड मामले की पृष्ठभूमि क्या है?
- प्रतिवादी (ओसुका केमिकल्स) ने राजस्थान में अपने संयंत्र के विस्तार के लिये याचिकाकर्त्ता (ट्रांस इंजीनियर्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड) को दो क्रय पत्र निर्गत किये।
- एक करार भी किया गया, जिसमें परियोजना के लिये विभिन्न उपकरणों एवं सामग्रियों की आपूर्ति, स्थापना, निर्माण और कमीशनिंग के लिये याचिकाकर्त्ता के उत्तरदायित्व को रेखांकित किया गया।
- प्रतिवादी के अनुरोध पर किये गए अतिरिक्त कार्य के भुगतान के लिये याचिकाकर्त्ता के दावे के संबंध में विवाद सामने आए, जिसके लिये याचिकाकर्त्ता ने 26 प्रोफार्मा चालान निर्गत किये।
- मामला मध्यस्थ के पास गया, जिसने मध्यस्थता पंचाट के माध्यम से याचिकाकर्त्ता के दावों एवं प्रतिवादी के प्रतिदावे को खारिज कर दिया।
- इस मध्यस्थ पंचाट को उच्च न्यायालय में चुनौती दी गई।
न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?
- इस मामले में उच्च न्यायालय ने बैठक के कार्यवृत्त का हवाला दिया जिसमें याचिकाकर्त्ता/दावेदार के लिये कार्य का दायरा निर्धारित किया गया था। इन कार्यवृत्तों में स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट किया गया था कि कार्य 26 जुलाई 2016 तक अंतिम रूप दिये गए P&ID रेखाचित्रों के आधार पर किया जाना चाहिये।
- इसके अतिरिक्त, यह देखा गया कि 20 जनवरी 2017 को निष्पादित करार द्वारा भी इसी व्याख्या का समर्थन किया।
- करार के खंड 12.2 में कहा गया है कि संविदात्मक शर्तों से परे किसी भी परिवर्तन के लिये पारस्परिक रूप से सहमत दरों के आधार पर अतिरिक्त भुगतान करना होगा।
- उच्च न्यायालय ने माना कि मध्यस्थ पंचाट मौलिक संविदात्मक संदर्भ पर विचार करने में विफल रहा तथा करार के आधार को पुनः परिभाषित किया।
- यह माना गया कि यदि कोई निर्णय साक्ष्य या संविदात्मक शर्तों की मौलिक दोषपूर्ण व्याख्या पर आधारित है तो उच्च न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता है।
- इस प्रकार, न्यायालय ने माना कि यह निर्णय माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 (A&C अधिनियम) की धारा 34 (2) (B) (ii) और 34 (2 A) के अंतर्गत रद्द किये जाने योग्य है।
माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 के अंतर्गत मध्यस्थता पंचाट को रद्द करने की क्या प्रक्रिया है?
- मध्यस्थता पंचाट को रद्द करने के लिये A&C अधिनियम की धारा 34 के अंतर्गत आवेदन किया जा सकता है।
- धारा 34 (1) में प्रावधान है कि मध्यस्थता निर्णय के विरुद्ध न्यायालय का सहारा केवल उप-धारा (2) एवं उप-धारा (3) के अनुसार ऐसे निर्णय को रद्द करने के लिये आवेदन करके ही लिया जा सकता है।
- धारा 34 (2) में प्रावधान है कि मध्यस्थता पंचाट को केवल तभी रद्द किया जा सकता है जब:
- आवेदन करने वाला पक्ष मध्यस्थ अधिकरण के अभिलेख के आधार पर यह स्थापित करता है कि-
- कोई पक्ष किसी अक्षमता के अधीन था, या
- मध्यस्थता करार उस विधि के अंतर्गत वैध नहीं है जिसके अधीन पक्षकार हैं या, उस पर कोई संकेत न होने पर, उस समय लागू विधि के अंतर्गत या
- आवेदन करने वाले पक्ष को मध्यस्थ की नियुक्ति या मध्यस्थता कार्यवाही की उचित सूचना नहीं दी गई थी या वह अन्यथा अपना मामला प्रस्तुत करने में असमर्थ था; या
- मध्यस्थता निर्णय किसी ऐसे विवाद से संबंधित है जो मध्यस्थता के लिये प्रस्तुत किये जाने की शर्तों के अंतर्गत नहीं आता है या उसके अंतर्गत नहीं आता है, या इसमें मध्यस्थता के लिये प्रस्तुत किये जाने की परिधि से बाहर के मामलों पर निर्णय शामिल हैं:
- बशर्ते कि, यदि मध्यस्थता के लिये प्रस्तुत मामलों पर निर्णयों को उन मामलों से अलग किया जा सकता है जो इस प्रकार प्रस्तुत नहीं किये गए हैं, तो मध्यस्थता पंचाट का केवल वह भाग रद्द किया जा सकेगा जिसमें मध्यस्थता के लिये प्रस्तुत नहीं किये गए मामलों पर निर्णय अंतर्विष्ट हैं।
- मध्यस्थ अधिकरण की संरचना या मध्यस्थ प्रक्रिया, पक्षकारों की सहमति के अनुसार नहीं थी, जब तक कि ऐसा करार इस भाग के किसी ऐसे प्रावधान के विरोध में न हो, जिससे पक्षकार अलग नहीं हो सकते, या ऐसा करार न होने पर, इस भाग के अनुसार नहीं था, या
- न्यायालय का मानना है कि-
- विवाद की विषय-वस्तु वर्तमान में लागू विधि के अंतर्गत मध्यस्थता द्वारा निपटारे योग्य नहीं है, या
- मध्यस्थता पंचाट भारत की लोक नीति के विपरीत है।
- स्पष्टीकरण 1 में यह प्रावधान है कि किसी भी संदेह से बचने के लिये यह स्पष्ट किया जाता है कि कोई पंचाट भारत की लोक नीति के विरोध में तभी है, जब—
- पंचाट का निर्माण धोखाधड़ी या भ्रष्टाचार से प्रेरित या प्रभावित था या
- धारा 75 या धारा 81 का उल्लंघन था; या
- यह भारतीय विधि की मौलिक नीति का उल्लंघन है; या
- यह नैतिकता या न्याय की मौलिक धारणाओं के साथ संघर्ष में है।
- स्पष्टीकरण 2 में यह प्रावधान है कि संदेह से बचने के लिये, यह परीक्षण कि क्या भारतीय विधि की मूल नीति का उल्लंघन हुआ है, विवाद के गुण-दोष पर समीक्षा की आवश्यकता नहीं होगी।
- आवेदन करने वाला पक्ष मध्यस्थ अधिकरण के अभिलेख के आधार पर यह स्थापित करता है कि-
- धारा 34 (2A) अंतरराष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थता यानी घरेलू मध्यस्थता के अतिरिक्त अन्य मध्यस्थता पंचाट को रद्द करने का प्रावधान करती है।
- यह धारा यह प्रावधान करती है कि अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्यिक मध्यस्थताओं के अतिरिक्त अन्य मध्यस्थताओं से उत्पन्न होने वाले मध्यस्थता पंचाट को भी न्यायालय द्वारा रद्द किया जा सकता है, यदि न्यायालय पाता है कि पंचाट स्पष्ट रूप से अवैध होने के कारण वह पंचाट दोषपूर्ण है।
- बशर्ते कि किसी पंचाट को केवल विधि के दोषपूर्ण अनुप्रयोग या साक्ष्य के पुनर्मूल्यांकन के आधार पर रद्द नहीं किया जाएगा।
- धारा 34 (3) में यह प्रावधान है कि रद्द करने के लिये आवेदन उस तिथि से तीन महीने बीत जाने के बाद नहीं किया जा सकता है, जिस दिन आवेदन करने वाले पक्ष को मध्यस्थता पंचाट प्राप्त हुआ था या, यदि धारा 33 के अंतर्गत निवेदन किया गया था, तो उस तिथि से, जिस दिन मध्यस्थ अधिकरण द्वारा उस निवेदन का निपटान किया गया था:
- परंतु यदि न्यायालय को यह समाधान मिल जाता है कि आवेदक को पर्याप्त कारण से तीन मास की उक्त अवधि के अंदर आवेदन करने से रोका गया था तो वह तीस दिन की अतिरिक्त अवधि के अंदर आवेदन पर विचार कर सकता है, किंतु उसके पश्चात् नहीं।
- धारा 34(4) में यह प्रावधान है कि उपधारा (1) के अंतर्गत आवेदन प्राप्त होने पर न्यायालय, जहाँ यह उचित हो तथा पक्षकार द्वारा ऐसा अनुरोध किया गया हो, मध्यस्थ अधिकरण को मध्यस्थ कार्यवाही पुनः आरंभ करने का अवसर देने के लिये या ऐसी अन्य कार्यवाही करने के लिये, जो मध्यस्थ अधिकरण की राय में मध्यस्थ पंचाट को रद्द करने के आधार को समाप्त कर देगी, अपने द्वारा निर्धारित समयावधि के लिये कार्यवाही स्थगित कर सकता है।
- धारा 34 (5) में यह प्रावधान है कि इस धारा के अंतर्गत आवेदन किसी पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष को पूर्व सूचना जारी करने के बाद ही दायर किया जाएगा तथा ऐसे आवेदन के साथ आवेदक द्वारा उक्त आवश्यकता के अनुपालन का शपथ-पत्र संलग्न करना होगा।
- धारा 34 (6) में यह प्रावधान है कि इस धारा के अंतर्गत आवेदन का निपटारा शीघ्रता से किया जाएगा तथा किसी भी स्थिति में, उस तिथि से एक वर्ष की अवधि के अंदर, जिस दिन उप-धारा (5) में निर्दिष्ट नोटिस दूसरे पक्ष को दिया गया है।
माध्यस्थम एवं सुलह अधिनियम, 1996 की धारा 34 के अंतर्गत पेटेंट की अवैधता क्या है?
- स्पष्ट रूप से अवैधता से तात्पर्य है विधि की त्रुटि जो मामले की जड़ तक जाती है।
- ध्यान देने वाली बात यह है कि अधिनियम में वर्ष 2015 के संशोधन के बाद धारा 34 (2A) जोड़ी गई थी, जिसमें कहा गया था कि यदि प्रथम दृष्टया ऐसा प्रतीत होता है कि पेटेंट अवैधता के कारण पंचाट दोषपूर्ण है, तो देशीय पंचाट को रद्द किया जा सकता है।
- इससे तात्पर्य यह है कि आधार केवल घरेलू पंचाट को ही रद्द करने तक सीमित है।
इस आधार को घरेलू मध्यस्थता तक सीमित रखने का कारण यह है कि भारत अंतर्राष्ट्रीय मध्यस्थता के लिये एक सशक्त केंद्र बनना चाहता है। इसलिये यह विभिन्न क्षेत्रों में व्यापार को बढ़ावा देने तथा विदेशी संस्थाओं को निवेश के लिये आमंत्रित करने के उद्देश्य से किया गया था।
- इससे तात्पर्य यह है कि आधार केवल घरेलू पंचाट को ही रद्द करने तक सीमित है।
- "स्पष्ट रूप से अवैध" शब्द को पहली बार ONGC बनाम सॉ पाइप्स लिमिटेड (2003) के मामले में परिभाषित किया गया था।
- दिल्ली एयरपोर्ट मेट्रो एक्सप्रेस प्राइवेट लिमिटेड बनाम दिल्ली मेट्रो रेल कॉर्पोरेशन लिमिटेड (2021)
- न्यायालय ने माना कि पेटेंट की अवैधता मामले की जड़ से ही निकलनी चाहिये।
- मध्यस्थ अधिकरण द्वारा की गई प्रत्येक दोषपूर्ण पेटेंट की अवैधता की परिधि में नहीं आएगी।
- अधिकरण द्वारा पारित मध्यस्थ पंचाट में हस्तक्षेप करते समय न्यायालय की अपनी सीमाएँ होती हैं।
- जब मध्यस्थ संविदा का दोषपूर्ण निर्वचन करता है या असंगत दृष्टिकोण अपनाता है, तो न्यायालय हस्तक्षेप कर सकता है।
- यदि मध्यस्थ बिना किसी साक्ष्य के आधार पर निष्कर्ष निकालता है या महत्त्वपूर्ण साक्ष्य को अनदेखा करता है, तो इस सिद्धांत को पंचाट को रद्द करने के लिये लागू किया जा सकता है।
- इंडियन ऑयल कॉर्पोरेशन लिमिटेड बनाम श्री गणेश पेट्रोलियम (2022)
- किसी पंचाट को स्पष्ट रूप से अवैध कहा जा सकता है, जहाँ मध्यस्थ अधिकरण संविदा के अनुसार कार्य करने में विफल रहा हो या संविदा की विशिष्ट शर्तों को अनदेखा किया हो।
- न्यायालय ने माना कि संविदा के अनुसार कार्य करने में विफलता एवं संविदा की शर्तों का दोषपूर्ण निर्वचन के मध्य अंतर है। यह पहला मामला है जिसमें पंचाट को रद्द किया जा सकता है।
- न्यायालय ने यह भी कहा कि वह अधिकरण द्वारा दिये गए निर्णय के विरुद्ध अपील में उपस्थित रहेगा तथा वह मध्यस्थ अधिकरण द्वारा संविदात्मक प्रावधान की व्याख्या में तब तक हस्तक्षेप नहीं करेगा, जब तक कि ऐसी व्याख्या स्पष्ट रूप से अनुचित या विकृत न हो।
धारा 34 के अंतर्गत सार्वजनिक नीति क्या है?
- रेणुसागर पावर कंपनी लिमिटेड बनाम जनरल इलेक्ट्रिक कंपनी (1994)
- इस ऐतिहासिक मामले में ‘लोक नीति’ शब्द पर चर्चा की गई।
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि मध्यस्थ द्वारा पारित पंचाट लोक नीति के विरुद्ध होगा यदि वह “भारतीय विधि की मौलिक नीति, भारत के हित और न्याय एवं नैतिकता” के उल्लंघन करता हो।
- ONGC लिमिटेड बनाम सॉ पाइप्स लिमिटेड (2003)
- इस मामले में लोक नीति शब्द को पुनः व्यापक बनाया गया तथा न्यायालय ने रेणुसागर मामले में उल्लिखित आधारों के अतिरिक्त “पेटेंट की अवैधता” के लिये एक नया आधार जोड़ा।
- न्यायालय ने कहा कि “लोक नीति की अवधारणा में कुछ ऐसे मामले शामिल हैं जो लोक हित से संबंधित हैं जो समय-समय पर भिन्न होते हैं”।
- इससे मुकदमेबाज़ी के द्वार खुल गए।
- एसोसिएट बिल्डर्स बनाम दिल्ली विकास प्राधिकरण (2015)
- इस मामले में न्यायालय ने “न्याय एवं नैतिकता के सबसे मौलिक मानदंडों” की परिधि को स्पष्ट किया तथा कहा कि यदि निर्णय ऐसी प्रकृति का है कि वह न्यायालय की अंतरात्मा को हताहत करता है तो न्याय एवं नैतिकता के आधार पर पंचाट को रद्द किया जा सकता है।
- 2015 संशोधन:
- वर्ष 2015 में विधि आयोग ने उपरोक्त पर प्रतिक्रिया व्यक्त की तथा कुछ संशोधन प्रस्तुत किये गए।
- आयोग ने सॉ पाइप्स, एसोसिएट बिल्डर्स के निर्णयों की आलोचना की।
- विधि आयोग ने धारा 34 में संशोधन किया तथा सार्वजनिक नीति के अंतर्गत उल्लिखित आधारों के लिये एक स्पष्टीकरण जोड़ा, अर्थात् "संदेह से बचने के लिये यह परीक्षण कि क्या भारतीय विधि की मौलिक नीति का उल्लंघन हुआ है, विवाद के गुण-दोष पर समीक्षा की आवश्यकता नहीं होगी।"
- इससे तात्पर्य यह है कि यदि अधिकरण ने कोई विधिक चूक की है या न्यायालय साक्ष्य के संबंध में कोई अन्य दृष्टिकोण अपनाता है तो पंचाट को रद्द नहीं किया जाएगा।
- इस प्रकार, लोक नीति के आधार तत्त्व में भारी परिवर्तन आया है। वर्तमान व्यवस्था को मध्यस्थता के अनुकूल बनाने के लिये संशोधन प्रस्तुत किये गए थे।