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सिविल कानून
सिविल प्रक्रिया संहिता में निष्पादन कार्यवाही का समावेश
« »17-Dec-2025
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दानेश सिंह एवं अन्य बनाम हर प्यारी (मृत) उनके विधिक प्रतिनिधि एवं अन्य "पुष्टि की गई नीलामी विक्रय के विरुद्ध पृथक् वाद सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 21 नियम 92(3) के अधीन वर्जित हैं, और पीड़ित पक्षकारों को अधिकारिता की कमी या अकृता के आधार पर सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 47 के अधीन आवेदन दाखिल करने होंगे।" न्यायमूर्ति जे.बी. परदीवाला और आर. महादेवन |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
दानेश सिंह एवं अन्य बनाम हर प्यारी (मृत) उनके विधिक प्रतिनिधि एवं अन्य (2025) के मामले में न्यायमूर्ति जे.बी. परदीवाला और आर. महादेवन की पीठ ने निर्णय दिया कि एक बार नीलामी बिविक्रयक्री की पुष्टि हो जाने और व्यथित पक्षकार द्वारा इसे अपास्त करने की मांग न किये जाने पर, विक्रय की पुष्टि करने वाले आदेश को चुनौती देने वाला एक पृथक् वाद सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC) के आदेश 21 नियम 92(3) के अधीन स्पष्ट रूप से वर्जित है।
दानिश सिंह एवं अन्य बनाम हर प्यारी (मृत) उनके विधिक प्रतिनिधि एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला दुली चंद द्वारा 1970 में ट्रैक्टर ऋण के लिये न्यू बैंक ऑफ इंडिया (प्रत्यर्थी संख्या 6) के पक्ष में किये गए एक बंधक से उत्पन्न हुआ था।
- बंधककर्त्ता द्वारा संदाय में व्यतिक्रम होने पर, बैंक ने 1984 में एकपक्षीय डिक्री प्राप्त की।
- लंबित वाद के दौरान और डिक्री के बाद, दो क्रेताओं (प्रत्यर्थी 1 और 2) ने 1985 में निर्णीतऋणियों में से एक से बंधक रखी गई भूमि के कुछ हिस्से खरीदे।
- निष्पादन कार्यवाही में, 1988 में पूर्ण बंधक रखी गई संपत्ति की नीलामी की गई, जिसमें अपीलकर्त्ताओं (एक निर्णीतऋणी के पुत्रों) को ₹35,000 की उच्चतम बोली लगाने वाला घोषित किया गया।
- नीलामी के विक्रय की पुष्टि अगस्त 1988 में हुई थी, और जून 1989 में अपीलकर्त्ताओं को संपत्ति का कब्जा सौंप दिया गया था।
- तत्पश्चात्, जुलाई 1989 में, प्रत्यर्थियों ने एक पृथक् सिविल वाद दायर किया जिसमें यह घोषणा करने की मांग की गई कि उनके द्वारा क्रय किये गए भाग से संबंधित नीलामी विक्रय शून्य थी, और नीलामी प्रक्रिया में अनियमितताओं और कपट का आरोप लगाया गया।
- विचारण न्यायालय, अपीलीय न्यायालय और पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने प्रत्यर्थियों के पक्ष में निर्णय सुनाते हुए उन्हें स्वामी घोषित किया और संयुक्त कब्जा प्रदान किया।
- प्रतिवादी-अपीलकर्त्ताओं ने इन समवर्ती निर्णयों को चुनौती देते हुए उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की।
न्यायालय की क्या टिप्पणियां थीं?
- न्यायालय ने निचले न्यायालयों के समवर्ती निर्णयों को अपास्त कर दिया और यह माना कि प्रत्यर्थी 1 और 2 द्वारा दायर पृथक् वाद पोषणीय नहीं था।
- न्यायालय ने देखा कि चूँकि प्रत्यर्थियों ने नीलामी विक्रय से व्यथित होने का दावा किया है, इसलिये आदेश 21 नियम 92(3) सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन स्पष्ट वर्जन के अनुसार पृथक् वाद पोषणीय नहीं होगा, क्योंकि नीलामी विक्रय नियम 92(1) के अधीन पुष्टि की गई थी और नियम 89 या 90 के अधीन कोई आवेदन नहीं किया गया था।
- सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 47 के अधीन पृथक् वाद दायर करना भी वर्जित था, जिसमें यह अनिवार्य है कि निष्पादन से संबंधित सभी प्रश्नों का अवधारण केवल निष्पादन न्यायालय द्वारा ही किया जाए, न कि किसी पृथक् वाद के माध्यम से।
- न्यायालय ने निर्णय दिया कि प्रत्यर्थियों को पृथक् वाद दायर करने के बजाय धारा 47 सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन आवेदन दायर करना चाहिये था।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि यद्यपि नियम 92(3) पृथक् वादों पर रोक लगाता है, पक्षकार अभी भी धारा 47 सिविल प्रक्रिया संहिता के अधीन सीमित आधारों पर आवेदन दाखिल कर सकते हैं जैसे कि अधिकारिता की कमी या विक्रय की अकृतता।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि धारा 47 का उपयोग नियम 89, 90 या 91 के अंतर्गत परिसीमा काल को दरकिनार करने के लिये नहीं किया जा सकता है। यदि धारा 47 के अंतर्गत कोई आवेदन वास्तव में इन नियमों के अंतर्गत आने वाले आधारों पर आधारित है, तो निष्पादन न्यायालय को इसे तदनुसार मानना होगा, और यदि परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 127 के अंतर्गत परिसीमा अवधि समाप्त हो गई है तो यह आवेदन अस्वीकार कर दिया जाएगा।
- केवल तभी जब कोई पक्षकार नीलामी विक्रय को इस आधार पर चुनौती देता है कि पूरी कार्यवाही अधिकारिता से बाहर और अकृत थी, विक्रय की पुष्टि के बाद धारा 47 के अधीन आवेदन दायर किया जा सकता है।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि पृथक् वाद दायर करने के लिये, नियम 92(3) के अधीन रोक को पार करना होगा और यह साबित करना होगा कि धारा 47 की रोक लागू नहीं होती है। मूल डिक्री के पक्षकारों या उनके प्रतिनिधियों को धारा 47 के अधीन आवेदन करना होगा, न कि पृथक् वाद दायर करने होंगे।
संदर्भित विधिक प्रावधान क्या हैं?
सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 21 के बारे में:
बारे में:
- सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 का आदेश 21 डिक्री और आदेशों के निष्पादन से संबंधित है।
- इसमें निष्पादन कार्यवाही में संपत्ति की नीलामी विक्रय से संबंधित विस्तृत प्रावधान सम्मिलित हैं।
- यह आदेश नीलामी विक्रय आयोजित करने, ऐसी विक्रय की पुष्टि करने या अपास्त करने और इसमें सम्मिलित विभिन्न पक्षकारों के अधिकारों के लिये एक व्यापक ढाँचा प्रदान करता है।
नियम 92 – विक्रय की पुष्टि:
- नियम 92(1) में उपबंध है कि न्यायालय उचित उद्घोषणा और प्रक्रिया के बारे में स्वयं संतुष्ट होने के बाद विक्रय को पुष्ट करेगा।
- नियम 92(2) न्यायालय को विशिष्ट आधारों पर विक्रय अपास्त करने की अनुमति देता है जैसे कि विक्रय के प्रकाशन या संचालन में भौतिक अनियमितता या कपट, या यदि संपत्ति बाजार मूल्य से काफी कम राशि में बेची गई थी।
- नियम 92(3) किसी भी व्यक्ति को, जिसके विरुद्ध नियम 92 के अंतर्गत कोई आदेश दिया गया है, उस आदेश के संबंध में पृथक् वाद दायर करने से रोकता है।
- यह उपबंध पुष्ट नीलामी विक्रय को चुनौती देने वाले पृथक् वाद दायर करने के विरुद्ध एक सांविधिक रोक लगाता है।
सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा 47:
- डिक्री को लागू करने वाले न्यायालय के पास वाद के पक्षकारों के बीच डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि से संबंधित सभी प्रश्नों का अवधारण करने की अनन्य अधिकारिता होती है।
- ऐसे प्रश्नों का निर्णय निष्पादन न्यायालय द्वारा ही किया जाना चाहिये और ये किसी पृथक् वाद का विषय नहीं हो सकते।
- इस धारा के प्रयोजनों के लिये, निष्पादन न्यायालय को यह अवधारित करने का अधिकार है कि कोई व्यक्ति किसी पक्षकार का प्रतिनिधि है या नहीं।
- इस धारा के अंतर्गत, जिस वादी का वाद खारिज कर दिया गया है और जिस प्रतिवादी के विरुद्ध वाद खारिज कर दिया गया है, दोनों को वाद का पक्षकार माना जाता है।
- किसी डिक्री के निष्पादन में हुई नीलामी में संपत्ति क्रय करने वाला व्यक्ति उस वाद का पक्षकार माना जाता है जिसमें डिक्री पारित की गई थी।
- ऐसी संपत्ति का कब्ज़ा क्रेता या उसके प्रतिनिधि को सौंपने से संबंधित सभी प्रश्न, डिक्री के निष्पादन, उन्मोचन या तुष्टि से संबंधित प्रश्न माने जाते हैं।