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नाकाम समाज की पहचान हैं न्यायेतर हत्याएं

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   03-Jun-2024 | वर्षा भम्भाणी मिर्ज़ा



"न्यायेतर हत्याओं का उत्सव नहीं मनाया जाना चाहिए। यह एक नाकाम समाज की पहचान है। आज जो अपराधी है कल को निर्दोष हो सकता है। कानून के हिसाब से सबको सुनवाई का मौका मिलना चाहिए "

हर देश का एक कानून होता है, उसी के तहत व्यवस्था संभाली जाती है और जब इस कानून को ताक पर रख कर किसी की गिरफ्तारी छिपाई जाती है, कोई विधिवत सुनवाई नहीं की जाती , फ़र्ज़ी मुठभेड़ में उसकी हत्या कर दी जाती है तब इसे न्यायेत्तर हत्या कहा जाता है। एक्स्ट्रा जुडिशल किलिंग यानी ऐसी हत्या जो व्यवस्था अपने हिसाब से करती है, अपना दबदबा बनाए रखने के लिए। दुर्भाग्य से ऐसा हमारे देश में भी होता आया है और हो रहा है। किसी भी देश में ऐसी हत्याएं उस देश की कानून और व्यवस्था को संदिग्ध बना देती हैं । ऐसी घटनाओं का बढ़ना इस बात का संकेत है कि देश में न्याय का नहीं, माफ़िया का राज है। हाल ही में उत्तरप्रदेश में बढ़ी ऐसी घटनाओं पर सुप्रीम कोर्ट ने चिंता भी ज़ाहिर की हैऔर स्पष्ट दिशा निर्देश जारी किये हैं। एफआईर हर स्थिति में दर्ज होनी चाहिए ,सभी ख़ुफ़िया सूचनाओं के लिखित दस्तावेज हों ,जांच हमेशा स्वतंत्र एजेंसियों को सौंपी जाए और सूचना राज्य और राष्ट्रीय आयोगों के साथ साझा की जाए। अक्सर पुलिस मुठभेड़ों में और न्यायेतर हत्याओं के मामले बताते हैं कि पुलिस अपनी शक्ति का दुरुपयोग कर रही होती है।

वाहवाही पाने का दबाव

एक्स्ट्रा जुडिशियल किलिंग वह भयावह सच्चाई जिसमें राज्य के एजेंट किसी भी व्यक्ति पर बगैर मुकदमा चलाए रास्ते से हटा देते हैं। ऐसा करने के पीछे तर्क हमेशा सुरक्षा और सुशासन का दिया जाता है। कभी-कभार जनता के दबाव में या मीडिया ट्रायल की वजह से भी ऐसा कर दिया जाता है जो कि व्यवस्था के लिए कतई अच्छे संकेत नहीं होते । यहां जनता को यह समझना होगा कि बिना सुनवाई के कोई निर्दोष भी मारा जा सकता है और कल को वह कोई अपना भी हो सकता है।मीडिया की चीख-पुकार सुनकर आवेश में आना और 'फांसी दो' के नारे लगाना कानून के राज को बड़े नुक्सान पहुंचा सकता है। न्याय देरी से मिल सकता है लेकिन किसी निरपराधी को सज़ा नहीं हो सकती। ऐसा करना अवैध है और मानवाधिकारों और कानून के शासन का उल्लंघन। ऐसी घटनाएं अराजक व्यवस्था की जनक हो सकती हैं। चर्चित इशरत जहां(19 ) मर्डर केस एक्स्ट्रा जुडिशल किलिंग से जुड़ा ऐसा मामला है जिसमें एक युवती को आतंकवादी समझ कर पुलिस ने मार दिया था। विकास दुबे, आनंद पाल को भी पुलिस ने घेर कर मारा था।

अक्सर जिन मामलों में इस अवैध तरीकों का इस्तेमाल किया जाता है उनमें नशीली ड्रग्स, आतंकवाद, अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदी को ठिकाने लगाने के साथ जनजातीय संघर्ष भी प्रमुख हैं। सत्ता अपना दबदबा कायम रखने के लिए भी चर्चित और कथित अपराधियों को रास्ते से हटाती है।

नशीली दवाओं के लिए

सरकार इसके ख़िलाफ़ युद्ध का ऐलान करती हुई-सी लगती है और फिर इसकी आड़ में इस काम से जुड़े या नहीं भी जुड़े लोगों को निशाना बनाती है। फिलिपिंस के राष्ट्रपति ने ऐसा ही युद्ध छेड़ा था। ऐसे में अपराधियों की धरपकड़ के लिए कई हथकंडे अपनाए गए जो कानून के दायरे से बाहर थे।

आतंकवाद के ख़िलाफ़ –कुछ सरकारें आतंकवादियों से लड़ने के लिए भी नयायेतर तारीकों का इस्तेमाल करती है। कई बार इन्हें सीधे मौत के घाट उतार दिया जाता है। भारत ने अजमल कसाब को फांसी देने से पहले समुचित कानूनी प्रक्रिया को अपनाया था जबकि इस पाकिस्तानी आतंकवादी को रंगे हाथों मुंबई में गोलियां बरसाते हुए पकड़ा गया था।न्याय प्रक्रिया में वक्त लगने पर कानून में यकीन नहीं रखने वालों ने खासा शोर मचाया था कि जेल में कसाब को रोटी के साथ बोटी खिलाई जा रही है लेकिन कानून की दुनिया में इस ट्रायल की काफी चर्चा और प्रशंसा हुई थी ।

राजनीतिक हत्याएं

तानाशाह सरकारें अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों को निशाना बनाने के लिए भी एक्स्ट्रा जुडीशल किलिंग्स का सहारा लेती हैं । अपने शत्रु को इस तरह हटाने से सत्ता सुख बरसों-बरस बना रह सकता है और कोई कानूनी अड़चन का सामना भी नहीं करना पड़ता। इससे भी ज़्यदा खतरनाक वह षङयन्त्र हो सकता हैं जहाँ सत्ता मिलीभगत का खेल रचती है यानी दिखावे का ट्रायल भी हो और प्रतिद्वंदी रास्ते से भी हट जाए। पाकिस्तान में नेता ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो को ऐसे ही फांसी हुई थी।

जनजातीय संघर्ष –जब सत्ता समाधान का रास्ता नहीं ढूंढ पाती हैं तब इस रास्ते को अपनाती है। कथित शांति बहाली में वह इसे ज़रूरी बताते हुए अवैध तरीकों को अंजाम देती है। मणिपुर के संघर्ष में ऐसी घटनाएं सामने आई हैं जब सरकार ने एक पक्ष का साथ दिया। यह सच है कि प्रक्रिया में भूल की गुंजाइश रहती है। विशेषज्ञों के लिए इस पतली रेखा के अंतर को समझ पाना कोई मुश्किल नहीं है।

लोकप्रियता के लिए

चर्चित अपराधियों को फ़र्ज़ी एनकाउंटर या हिरासत में मारे जाने के कई मामले राज्यों में देखे जाते हैं। राजस्थान में गैंगस्टर आनंद पाल (2017) की मुठभेड़ में मौत और उत्तरप्रदेश में विकास दुबे (2020 ) का मुठभेड़ में मारा जाना भी न्यायेतर मामलों की मिसाल है। वह भी एक गैंगस्टर था जिस पर हत्या के इलज़ाम थे जिसमें कानपुर में आठ पुलिसर्मियों की हत्या का आरोप उस पर था। पुलिस ने फिर उसे उज्जैन से गिरफ़्तार किया और उत्तरप्रदेश लाते हुए रास्ते में ही मार दिया। कहा यही गया कि वह भाग रहा था।ऐसी अधिकांश मुठभेड़ें अपने फ़र्ज़ी होने की ओर ही इशारा करती हैं।

आयोग और न्याय

कोई भी मज़बूत लोकतंत्र मज़बूत कानून व्यवस्था से ही आगे बढ़ता है। स्पष्ट कानून तय करते हैं कि यह काम कानूनी है और यह गैर कानूनी। पुलिस के अपराधी बड़े पैमाने पर सबूतों और गवाहों के आभाव में न्यायालय से छूट जाते हैं। इसी कड़ी में पुलिस के लिए प्रशिक्षण और अनुसन्धान की ज़रूरत है। लचीली और ढीली कानून व्यवस्था नागरिकों के यकीन को डगमगा देती है। न्यायेतर हत्याएं संविधान के अनुच्छेद 21 जो जीने के अधिकार और निजता की गारंटी को सुनिश्चित करता है ,उसका सीधा उल्लंघन है। बेशक सर्वोच्च न्यायालय की गाइडलाइन्स हैं जो फ़र्ज़ी मुठभेड़ों की स्वतंत्र जांच का अधिकार देती है। विशेष मामलों में सीबीआई और एसआईटी को नियुक्त किया भी जाता है साथ ही राज्य और राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग को भी यह हक़ है कि वह न्यायेतर मौतों के लिए संबंधित अधिकारी पर उचित कार्रवाई की अनुशंसा करते हुए पीड़ित को मुआवज़ा दिला सके।

इतिहास

वर्तमान भारतीय न्याय व्यवस्था जब तक दोष सिद्ध नहीं होता तब अपराधी नहीं मानती है लेकिन फिर भी इतिहास में कुछ ऐसा है जो प्रताड़ना और अत्याचार को उचित ठहराता है। प्राचीन पुस्तक मनुस्मृति के मुताबिक अगर अपराध को नियंत्रित रखना है तो ताड़ना ज़रूरी है। इसमें वर्णित बुनियादी भारतीय अपराध कानून का अनुसरण राजा -महाराजा भी करते थे। हिरासत में प्रताड़ित कर वे अपराध की गुत्थियां सुलझाते थे। मुग़ल काल में आंख के बदले आंख लेने का चलन था। इसके मूल में भी प्रताड़ना ही रही जबकि महात्मा गांधी कहते थे आंख के बदले आंख का न्याय पूरी दुनिया को अंधा बना देगा। ब्रिटिश काल में अंग्रजों ने भी मानव अधिकारों की समझ के बावजूद प्रताड़ना को मूल आधार बनाया। यहां तो निहत्थों और मासूमों पर ही गोलियां बरसा दी जाती थीं । जलिया वाला बाग़ में जनरल डायर ने सामूहिक नरसंहार किया। शायद इसी का नतीजा भी है कि प्रदर्शन और आंदोलन करते निहत्थों पर कभी कभी हमारी लोकतांत्रिक सरकारें भी तानाशाही का चोला पहन हमला कर देती हैं। यह सच है कि कानूनन भारत में पुलिस को यह अधिकार है कि वह आत्मरक्षा में हमला कर सकती हैं जिसका दुरुपयोग होता है।

आखिर क्यों होते हैं फ़र्ज़ी एनकाउंटर?

राजनीतिक सरंक्षण-कई बार राजनितिक दल अपने राज्य में शांति व्यवस्था को बनाए रखने और जल्दी लोकप्रिय होने के लिए फ़र्ज़ी मुठभेड़ के कॉलम में इस आंकड़े को बढ़ाने में ज़्यादा फ़ख़्र महसूस करते हैं।

जन समर्थन -जनता को लगता है कि न्यायलय से न्याय मिलने में बहुत वक्त लगेगा इसलिए वह भी ऐसी मुठभेड़ों का समर्थन करने लगती है। दिसंबर 2019 में हैदराबाद की एक युवती से सामूहिक बलात्कार के बाद उसके अपराधियों को ट्रायल से पहले ही शूट कर दिया गया। पुलिस ने बचाव में कहा कि वे भाग रहे थे जबकि न्याय कहता है सौ अपराधी छूट जाएं लेकिन एक निरपराधी को सज़ा नहीं होनी चाहिए। हमने देखा है कि निर्भया मामले में पूरी सुनवाई हुई थी और बलात्कारी फांसी के फंदे तक पहुंचे थे।

काम का दबाव- पुलिस काम के दबाव से घिरी होती है या यूं कहें कि अक्सर उनके ज़िम्मे वे काम भी होते हैं जो उनके कर्त्तव्य में नहीं आते। भारत में औसतन प्रति एक लाख नागरिकों पर 150 पुलिसकर्मी हैं। पुलिस के प्रस्तुत गवाह न्यायालय की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। यह भी कुंठा का एक कारण होता है।

कमज़ोर संस्थाएं -राज्य और राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग हैं लेकिन वे दंतविहीन ही मालूम होते हैं। अक्सर ये फ़र्ज़ी मुठभेड़ों की आलोचना सख्ती से नहीं करते हैं, नतीजतन सरकारें ऐसा करने से चूकती नहीं हैं। मुठभेड़ को अंजाम देने वालों को इनाम भी दिया जाता है और कभी-कभी तो सम्मान के साथ प्रमोशन भी मिलता है। बॉलीवुड फिल्मों की भी यहां भूमिका है। ऐसी पुलिस को बतौर हीरो पेश किया जाता है।

इशरत जहां केस स्टडी

मुठभेड़ों पर लिखे कई पन्नों पर इस एक मुठभेड़ का पन्ना हमेशा फड़फड़ाता रहेगा ,सवाल पूछता रहेगा। केवल 19 साल की इशरत जहां जो महाराष्ट्र के ठाणे ज़िले में मुंब्रा की रहने वाली थी, उसका गुजरात पुलिस ने एनकाउंटर कर दिया। 15 जून 2004 को वह अहमदाबाद में एक कार में सवार थीं और उनके साथ तीन और व्यक्ति भी थे। चारों को फ़र्ज़ी मुठभेड़ में मार दिया गया। इशरत को आतंकवादी बताया गया। लेखक और सामाजिक कार्यकर्ता हर्ष मंदर ने इशरत के परिवार से विस्तार से बातचीत की थी और पाया कि इशरत कॉलेज की छात्रा थी और एक काम के सिलसिले में जावेद नाम के व्यक्ति से मिली थीं। जावेद इत्र के व्यापार से जुड़ा था। इशरत का बड़ा परिवार था और कमाई के साधन नहीं थे। आमदनी की उम्मीद में वह जावेद से जुड़ गई। व्यापार के सिलसिले में वे शहर से बाहर भी जाते थे। इशरत का परिवार बहुत ही पारम्परिक सोच वाला परिवार था लेकिन शायद बहनों की ज़िम्मेदारी ने उसे समय से पहले ही पैसा कमाने के लिए मजबूर किया। परिवार इस सोच का था कि घर में बच्चों को टीवी देखने की अनुमति भी नहीं थी। उस दिन 11जून 2004 को अपना घर छोड़ने से पहले इशरत का भाई उसे बस स्टॉप तक छोड़ने आया था। इससे पहले वह जावेद के साथ पुणे और लखनऊ जा चुकी थी। जावेद उसे नसिक में मिलने वाला था और उसके बाद वे अलग -अलग शहरों में जाने वाले थे लेकिन अहमदाबाद उसका आखिरी स्टेशन साबित हुआ। पुलिस ने उन्हें घेर कर मार दिया। हर्ष मंदर की रिपोर्ट्स कहती हैं कि इस एनकाउंटर के पीछे कोई ठोस वजह नहीं थी,पुलिसकर्मी प्रमोशन चाहते थें और यह जांबाजी उन्हें इस मकसद के लिए आसान लगी लेकिन एक बेगुनाह युवती मारी जा चुकी थी। उसके आत्मनिर्भर होने के सपनों ने उसे मौत दे दी थी। मुकदमा चला था जिसमें एक, एक कर सभी पुलिसकर्मी और अधिकारी बरी हो गए।

सबसे ज़्यादा फ़र्ज़ी मुठभेड़ वाला राज्य और देश

राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के आंकड़ों के मुताबिक देश में सबसे ज़्यादा कथित फ़र्ज़ी एनकाउंटर वाला राज्य उत्तरप्रदेश है। 2002 से 2008 के बीच कुल 440 ऐसे एनकाउंटर हुए थे जिनमें अकेले उत्तरप्रदेश में 231, राजस्थान में 33, महाराष्ट्र में 31 दिल्ली में 26,आंध्रप्रदेश में 22 और उत्तराखंड में 19 मामले हुए थे। दुनिया में वेनेजुएला ऐसा देश है जहां सबसे ज़्यादा एनकाउंटर किलिंग्स होती हैं। 2016 के बाद से अब तक 18 हज़ार फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में मौतों का रिकॉर्ड इस देश के नाम है। ऐसा करना अंतर्राष्ट्रीय जिनेवा समझौते का भी उल्लंघन है। जिन देशों में मानव अधिकार कानून बेहतर हैं वहां ऐसी घटनाएं कम देखी गईं हैं। स्वीडन,फिनलैंड, नार्वे, कनाडा ऐसे ही बेहतर देश हैं।



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