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भारत में पर्यावरण संरक्षण से संबंधित कानून

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   12-Apr-2024 | शालिनी वाजपेयी



मनुष्य और प्रकृति का एक-दूसरे से गहरा संबंध है। प्रकृति का दोहन हुआ तो मानव का विनाश भी निश्चित है। इसका जीता जागता उदाहरण दक्षिण अफ्रीका की राजधानी केपटाउन है। इसे दुनिया का पहला जल-विहीन शहर घोषित किया गया है। हालात ऐसे हैं कि यहां पर नहाने पर रोक लगा दी गई है। लाखों लोगों के घरों के कनेक्शन काटने की तैयारी चल रही है। जिस तरह भारत में पेट्रोल पंप पर जाकर पेट्रोल खरीदा जाता है उसी तरह वहां जगह-जगह पानी के टैंकर होंगे, उनसे 25 लीटर पानी मिलेगा। ज़्यादा पानी मांगने या लूटने वाले लोगों को नियंत्रित करने के लिये पुलिस व सेना के लोग तैनात किए गए हैं। इसी तरह हमारे देश में भी जैसे-जैसे आसपास के सभी बांधों में पानी का स्तर कम हो रहा है वहीं भूमिगत जलस्तर भी गहरा होता जा रहा है। हाल ही में बेंगलुरु, चेन्नई व हैदराबाद जैसे शहरों में गहराता जलसंकट कुदरत द्वारा दी जा रही चेतावनी है कि अगर अभी भी प्रकृति के साथ खिलवाड़ बंद नहीं किया गया तो वह दिन दूर नहीं जब संपूर्ण मानव जाति एक-एक बूंद पानी, हवा, अनाज सबके लिये तरस जाएगी। लगातार बढ़ रहे शहरीकरण के चलते हमारे पास बड़ी-बड़ी इमारतें, कारखाने, मॉल सहित अन्य सभी भौतिक संसाधन तो होंगे लेकिन सांस लेने के लिये हम ऑक्सीजन के सिलेंडर ढूंढ रहे होंगे। ऐसे हालातों से बचा जा सके और प्रकृति के साथ तालमेल बिठाया जा सके, इसके लिये समय-समय पर सरकारों द्वारा नए-नए नियम व कानून बनाए जाते रहे हैं। हमें इन नियमों व कानूनों के बारे में न सिर्फ जानना चाहिए बल्कि अन्य लोगों को भी ज़ागरूक करना चाहिए। तो चलिये हम जानते हैं भारत में पर्यावरण संरक्षण को लेकर उठाए गए कदमों के बारे में-

वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972: भारत विभिन्न प्रकार की वनस्पतियों और जीवों की प्रजातियों का घर है। विभिन्न मानवीय गतिविधियों जैसे निर्माण कार्य, कृषि बंदोबस्त आदि से उनके आवास लगातार नष्ट होते जा रहे हैं। इसके अलावा, अवैध शिकार के चलते भी इन प्रजातियों पर खतरा मंडरा रहा है। 1972 के इस वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के माध्यम से भारत सरकार ने वन्यजीवों और उनके आवासों को ऐसे सभी खतरों से बचाने का लक्ष्य रखा है। इस अधिनियम को भारत की संसद द्वारा 12 अगस्त 1972 को पारित किया गया था और 9 सितंबर 1972 को अधिनियमित किया गया था। पहले यह अधिनियम जम्मू और कश्मीर राज्य पर लागू नहीं था, लेकिन जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 के लागू होने के बाद अब यह इस राज्य में भी लागू हो गया है। यह अधिनियम उन पौधों और जानवरों की अनुसूचियों को भी सूचीबद्ध करता है जिन्हें सरकार द्वारा अलग-अलग स्तर की सुरक्षा तथा निगरानी प्रदान की जाती है। इस अधिनियम के तहत राष्ट्रीय वन्यजीव बोर्ड (NBWL), राज्य वन्यजीव बोर्ड (SBWL), केंद्रीय चिड़ियाघर प्राधिकरण (CZA), राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA), वन्यजीव अपराध नियंत्रण ब्यूरो (WCCB) जैसे निकायों का गठन किया गया है।

जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) अधिनियम 1974: यह अधिनियम जल प्रदूषण को रोकने और उसे नियंत्रित करने तथा देश में पानी की संपूर्णता को बनाए रखने या बहाल करने के लिये लाया गया था। इस अधिनियम की धारा 3 और 4 के तहत क्रमशः केंद्रीय और राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड का गठन किया गया है। वहीं वर्ष 1988 में इसमें संशोधन किया गया था। इसके अतिरिक्त, हाल ही में संसद के दोनों सदनों द्वारा जल (प्रदूषण निवारण और नियंत्रण) संशोधन विधेयक, 2024 को मंज़ूरी दी गई। प्रस्तुत किये गए इस विधेयक का उद्देश्य उक्त अधिनियम की कुछ कमियों को दूर करना और नियामक ढाँचे को वर्तमान परिस्थितियों की आवश्यकताओं के अनुरूप बनाना है।

वन संरक्षण अधिनियम 1980: इस अधिनियम के तहत यह प्रावधान किया गया कि किसी भी वन भूमि का उपयोग कृषि या निर्माण सहित गैर-वन क्षेत्र के उद्देश्यों के लिये करने से पहले अधिकारियों से अनुमति लेना आवश्यक है। जिससे वनों की रक्षा की जा सके और उन्हें बचाकर, उपहार और भविष्य की पीढ़ियों के लाभ के लिये उनके स्थायी उपयोग को सुनिश्चित किया जा सके। संक्षिप्त में कहें तो यह अधिनियम पुनर्वनीकरण और वनीकरण के महत्व पर जोर देता है। यह नवीनतम झाड़ियों के रोपण और नष्ट हुए वन क्षेत्रों के पुनरुद्धार को प्रोत्साहित करता है। यह जैव विविधता को संरक्षित करने में सक्षम बनाता है;  वनस्पतियों और जीवों के लिये आवास प्रदान करता है। 

वायु (प्रदूषण की रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम, 1981: जून 1972 में स्टॉकहोम में आयोजित मानव पर्यावरण पर संयुक्त राष्ट्र महासभा के दौरान एक प्रस्ताव पारित किया गया जिसमें दुनिया के देशों से हवा जैसे प्राकृतिक संसाधनों को संरक्षित करने का अनुरोध किया गया। ऐसे में भारत में भी पराली जलाने, अनुचित औद्योगिक प्रथाओं, पर्यावरणीय कारकों आदि के कारण वायु प्रदूषण के मुद्दे थे। इन कारकों से निपटने के लिये भारत के संविधान के तहत एक विशेष कानून बनाया गया, जिसे वायु (रोकथाम और नियंत्रण) अधिनियम 1981 का नाम दिया गया। वायु प्रदूषण से ग्लोबल वार्मिंग, धुंध, श्वसन संबंधी समस्याएं, जलवायु में परिवर्तन हो सकता है और समग्र जैव विविधता और पारिस्थितिकी तंत्र प्रभावित होता है। इस अधिनियम में शीर्ष स्तर पर केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की स्थापना और राज्य स्तर पर राज्य प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड को वायु गुणवत्ता में सुधार, नियंत्रण एवं वायु प्रदूषण के उन्मूलन से संबंधित किसी भी मामले पर सरकार को सलाह देने का प्रावधान किया गया है।  

पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986: यह अधिनियम पर्यावरण के संरक्षण और सुधार हेतु बनाए गए सबसे व्यापक कानूनों में से एक है। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य वातावरण में घातक रासायनों की अधिकता को नियंत्रित करना व पारिस्थितिकी तंत्र को प्रदूषण मुक्त रखने का प्रयास करना है। इस अधिनियम की जड़ें जून, 1972 में स्टॉकहोम में मानव पर्यावरण पर आयोजित संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन (स्टॉकहोम सम्मेलन) में निहित हैं, जिसमें भारत ने मानव पर्यावरण के सुधार के लिये उचित कदम उठाने के लिये भाग लिया था। इस अधिनियम के किसी भी प्रावधान का अनुपालन न करना या उल्लंघन करना अपराध माना जाता है। इसके तहत किसी भी अपराध का दंड पाँच साल तक की कैद या एक लाख रुपए तक का जुर्माना या दोनों एक साथ हो सकता है।

जैव विविधता अधिनियम, 2002: इस अधिनियम का निर्माण जैव विविधता पर संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन (CBD), 1992 में निहित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये भारत के प्रयास के परिणामस्वरूप हुआ। इसका उद्देश्य जैविक संसाधनों का संरक्षण, इनके धारणीय उपयोग का प्रबंधन और स्थानीय समुदायों के साथ उचित व न्यायसंगत साझाकरण तथा भारत की समृद्ध जैव विविधता को संरक्षित रखना है। इतना ही नहीं, भारत में जैव विविधता अधिनियम (2002) को लागू करने के लिये केंद्र सरकार द्वारा वर्ष 2003 में राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण (NBA) की स्थापना की गई थी। जिसका मुख्यालय चेन्नई, तमिलनाडु में है।

राष्ट्रीय पर्यावरण नीति, 2004: पर्यावरण तथा वन मंत्रालय ने दिसम्बर 2004 को राष्ट्रीय पर्यावरण नीति का ड्राफ्ट जारी किया था। इसकी प्रस्तावना में कहा गया है कि समस्याओं को देखते हुए एक व्यापक पर्यावरण नीति लाने की आवश्यकता है। साथ ही पर्यावरणीय नियमों तथा कानूनों को वतर्मान समस्याओं के संदर्भ में संशोधन करने की आवश्यकता को भी दर्शाया गया है। इस नीति का मुख्य उद्देश्य संकटग्रस्त पर्यावरणीय संसाधनों का संरक्षण करना, पर्यावरणीय संसाधनों पर सभी के, विशेषकर गरीबों के समान अधिकारों को सुनिश्चित करना, संसाधनों का न्यायोचित उपयोग सुनिश्चित करना, आर्थिक तथा सामाजिक नीतियों के निर्माण में पर्यावरणीय संदर्भों को ध्यान में रखना, उत्तरदायित्व तथा भागीदारिता के मूल्यों को शामिल करना है। 

राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम 2010: इस अधिनियम के तहत पर्यावरणीय मुद्दों से संबंधित मामलों के शीघ्र निपटान के लिये एक विशेष न्यायाधिकरण का निर्माण किया गया है, जिसे राष्ट्रीय हरित अधिकरण कहा जाता है। इस निकाय की स्थापना का मुख्य उद्देश्य पर्यावरण संबंधी मुद्दों का तेज़ी से निपटारा करना है, जिससे देश की अदालतों में लगे मुकदमों के बोझ को कुछ कम किया जा सके। इसका मुख्यालय दिल्ली में है, जबकि अन्य चार क्षेत्रीय कार्यालय भोपाल, पुणे, कोलकाता एवं चेन्नई में स्थित हैं। राष्ट्रीय हरित अधिकरण अधिनियम के अनुसार, एनजीटी के लिये यह ज़रूरी है कि उसके पास आने वाले पर्यावरण संबंधी मुद्दों का निपटारा 6 महीनों के भीतर हो जाए।

ध्वनि प्रदूषण नियंत्रण कानून: भारत में ध्वनि प्रदूषण के नियंत्रण  के लिये कोई अलग से अधिनियम नहीं बनाया गया है। भारत में ध्वनि प्रदूषण को वायु प्रदूषण में ही शामिल किया गया है। वायु (प्रदूषण निवारण तथा नियंत्रण ) अधिनियम 1981 में, वर्ष 1987 में संशोधन करते हुए इसमें ‘ध्वनि प्रदूषकों’ को भी ‘वायु प्रदूषकों’ की परिभाषा के अंतर्गत शामिल कर दिया गया। इसके अतिरिक्त पर्यावरण (संरक्षण) अधिनियम, 1986 की धारा 6 के तहत भी ध्वनि प्रदूषकों सहित वायु तथा जल प्रदूषकों की अधिकता को रोकने के लिये कानून बनाने का प्रावधान है। इसका प्रयोग करते हुए ध्वनि प्रदूषण (विनियमन एवं नियंत्रण ) अधिनियम, 2000 पारित किया गया है। जिसके तहत विभिन्न क्षेत्रों के लिये ध्वनि के संबंध में वायु गुणवत्ता मानक निर्धारित किए गए हैं। मौजूदा राष्ट्रीय कानूनों के अंतर्गत भी ध्वनि प्रदूषण को नियंत्रित करने का प्रावधान है। 

भारत में पर्यावरण की रक्षा के लिये शुरू की गईं अन्य पहलें-  

  • राष्ट्रीय नदी संरक्षण कार्यक्रम
  • हरित भारत मिशन
  • राष्ट्रीय वनरोपण कार्यक्रम
  • राष्ट्रीय तटीय प्रबंधन कार्यक्रम

अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन जिसका भारत एक हस्ताक्षरकर्ता है:  

  • ओजोन परत को नुकसान पहुंचाने वाले पदार्थों पर वियना कन्वेंशन के लिये मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल, 1987
  • खतरनाक अपशिष्टों के सीमापार संचलन पर बेसल कन्वेंशन, 1989
  • रॉटरडैम कन्वेंशन, 1998
  • सतत कार्बनिक प्रदूषकों (पीओपी) पर स्टॉकहोम सम्मेलन
  • जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन (यूएनएफसीसीसी), 1992
  • जैविक विविधता पर कन्वेंशन, 1992
  • मरुस्थलीकरण से निपटने के लिये संयुक्त राष्ट्र कन्वेंशन, 1994

तो ये थे पर्यावरण संरक्षण को लेकर भारत द्वारा बनाए गए कुछ महत्वपूर्ण नियम व कानून। लेकिन चिंता का विषय यह है कि पर्यावरण संबंधी इतने सारे कानून होने के बावजूद भारत में पर्यावरण क्षरण की समस्या काफी गंभीर बनी हुई है। नाले, नदियां तथा झीलें औद्योगिक कचरे से भरे हुए हैं। दिल्ली में यमुना नदी एक नाला बनकर रह गई है। वनों का कटाव लगातार बढता जा रहा है जिसके परिणामस्वरूप कहीं बाढ़ व कहीं सूखे जैसी विभिन्न प्राकृतिक आपदाएं कहर बरपा रही हैं। यहां जिस प्रकार से पर्यावरण कानूनों को लागू किया जा रहा है उसे देखते हुए लगता है कि इन कानूनों के महत्त्व को अभी तक ठीक तरह से समझा ही नहीं गया है। भौतिक विकास के पीछे दौड़ रही दुनिया को आज भी यह एहसास नहीं है कि चमक-धमक के फेर में क्या कीमत चुकाई जा रही है। जबकि प्रकृति संरक्षण का कोई संस्कार अखंड भारतभूमि को छोड़कर अन्यत्र देखने को नहीं मिलता है। सनातन परंपराओं में प्रकृति संरक्षण के सूत्र मौजूद हैं। हमारे महर्षियों ने तो पेड़ों को मनुष्य के समतुल्य माना है। हिंदू दर्शन में कहा भी गया है कि-

दशकूप समावापी:, दशवापी समोहृदः। 

दशहृद समः पुत्रो, दशपुत्रो समोद्रुम:।।

अर्थात  दस कुओं के बराबर एक बावड़ी होती है, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब होता है। दस तालाबों के बराबर एक पुत्र होता है, और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है।

हमें समय रहते इनके महत्व को समझना होगा, और साथ ही इस पर गौर करना होगा कि पर्यावरण को बचाने की जिम्मेदारी किसी व्यक्ति विशेष की नहीं है। अगर इस पृथ्वी पर रहने वाला प्रत्येक व्यक्ति अपने स्तर पर जागरूक नहीं होगा तो सरकारों द्वारा बनाए गए नियम व कानून धरे के धरे रह जाएंगे। इसलिए आम जनता की भागीदारी को सुनिश्चित करते हुए हमें इन कानूनों का क्रियान्वयन को सफल बनाना होगा और अपनी प्रकृति को बचाकर अपने भविष्य को संवारना होगा। 

  शालिनी बाजपेयी  

शालिनी बाजपेयी यूपी के रायबरेली जिले से हैं। इन्होंने IIMC, नई दिल्ली से हिंदी पत्रकारिता में पीजी डिप्लोमा करने के बाद जनसंचार एवं पत्रकारिता में एम.ए. किया। वर्तमान में ये हिंदी साहित्य की पढ़ाई के साथ साथ लेखन का कार्य कर रही हैं।



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