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सिविल कानून

शासकीय गुप्त बात अधिनियम के तहत अत्यंत गोपनीयता

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 26-Sep-2024

महानिदेशक, प्रोजेक्ट वर्षा रक्षा मंत्रालय (नौसेना), भारत संघ, नई दिल्ली बनाम मेसर्स नवयुग-वान ओर्ड जेवी

"न्यायालय ने फैसला सुनाया कि शासकीय गुप्त बात अधिनियम के तहत "अत्यंत गोपनीयता" के रूप में वर्गीकृत दस्तावेज़ों को मध्यस्थ अधिकरण द्वारा प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं हो सकती।"

न्यायमूर्ति मनोज जैन

स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

दिल्ली उच्च न्यायालय ने फैसला सुनाया कि शासकीय गुप्त बात अधिनियम, 1923 के तहत "अत्यंत गोपनीयता" और "संरक्षित" के रूप में वर्गीकृत दस्तावेज़ों को मध्यस्थ अधिकरण द्वारा प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है। यह निर्णय प्रोजेक्ट वर्षा के महानिदेशक की याचिका के बाद आया, जिन्होंने राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं का हवाला देते हुए एक निर्माण अनुबंध पर मेसर्स नवयुग-वन ओर्ड जेवी के साथ मध्यस्थता के दौरान संवेदनशील दस्तावेज़ों को प्रस्तुत करने का विरोध किया था।

  • न्यायमूर्ति मनोज जैन ने महानिदेशक, प्रोजेक्ट वर्षा रक्षा मंत्रालय (नौसेना), भारत संघ, नई दिल्ली बनाम मेसर्स नवयुग-वन ओर्ड जेवी के मामले में फैसला सुनाया।

महानिदेशक, प्रोजेक्ट वर्षा रक्षा मंत्रालय (नौसेना), भारत संघ, नई दिल्ली बनाम मेसर्स नवयुग-वान ओर्ड जेवी की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • वर्ष 2017 में प्रोजेक्ट वर्षा (केंद्रीय रक्षा मंत्रालय का भाग) के महानिदेशक ने प्रोजेक्ट वर्षा के लिये बाहरी बंदरगाह के निर्माण के लिये मेसर्स नवयुग-वन ओर्ड जेवी के साथ एक अनुबंध किया।
  • पक्षकारों के बीच विवाद उत्पन्न हुआ, जिसके कारण मेसर्स नवयुग-वन ओर्ड जेवी ने मध्यस्थता कार्यवाही शुरू की।
  • मध्यस्थता के दौरान दावेदार (मेसर्स नवयुग-वन ओर्ड जेवी) ने परियोजना से संबंधित कुछ दस्तावेज़ों के निरीक्षण और प्रस्तुतीकरण की मांग करते हुए एक आवेदन दायर किया।
  • महानिदेशक ने राष्ट्रीय सुरक्षा चिंताओं और शासकीय गुप्त बात अधिनियम, 1923 की प्रयोज्यता का हवाला देते हुए दस्तावेज़ों के प्रस्तुतीकरण का विरोध किया।
  • यह तर्क दिया गया कि प्रोजेक्ट वर्षा को "अत्यंत गोपनीयता" के रूप में वर्गीकृत किया गया था और वांछित दस्तावेज़ शासकीय गुप्त बात अधिनियम के तहत संरक्षित थे।
  • मध्यस्थ अधिकरण ने एक आदेश पारित किया, जिसमें महानिदेशक को विवादित दस्तावेज़ों को सीलबंद लिफाफे में अधिकरण को प्रस्तुत करने का निर्देश दिया गया।
  • महानिदेशक ने संविधान 1950 के अनुच्छेद 227 के तहत मध्यस्थ अधिकरण के इस आदेश को दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष चुनौती दी। उच्च न्यायालय के समक्ष मुख्य मुद्दा यह था कि क्या शासकीय गुप्त बात अधिनियम के तहत "अत्यंत गोपनीयता" के रूप में वर्गीकृत दस्तावेज़ों को मध्यस्थ अधिकरण द्वारा प्रस्तुत करने का निर्देश दिया जा सकता है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने कहा कि दोनों पक्षकारों को मध्यस्थता कार्यवाही में अपना मामला प्रस्तुत करने का उचित अवसर मिलना चाहिये, लेकिन राष्ट्रीय सुरक्षा का पहलू सर्वोपरि है और इससे समझौता नहीं किया जा सकता।
  • न्यायालय ने कहा कि भारत के पूर्वी तट पर स्थित विचाराधीन परियोजना भारत की रक्षा के लिये अत्यधिक संवेदनशील और महत्त्वपूर्ण है, एक ऐसा तथ्य जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
  • न्यायालय ने कहा कि यदि भारत सरकार द्वारा सूचना को "अत्यंत गोपनीयता" के रूप में वर्गीकृत किया गया है और यह सीधे राष्ट्रीय रक्षा से संबंधित है, तो इस महत्त्वपूर्ण तथ्य को उचित महत्त्व दिया जाना आवश्यक है।
  • न्यायालय ने कहा कि मध्यस्थ अधिकरण को वर्गीकृत दस्तावेज़ों को प्रस्तुत करने पर ज़ोर नहीं देना चाहिये था, यहाँ तक ​​कि सीलबंद लिफाफे में भी, क्योंकि यह अधिकरण के अधिकार क्षेत्र से पृथक होगा कि वह यह मूल्यांकन करे कि ऐसे दस्तावेज़ उचित रूप से वर्गीकृत हैं या नहीं।
  • न्यायालय ने निष्कर्ष दिया कि एक बार दस्तावेज़ों को गोपनीय और वर्गीकृत के रूप में लेबल कर दिया जाए, तो मामले का अंत हो जाना चाहिये, क्योंकि ऐसी परिस्थितियों में राष्ट्रीय सुरक्षा संबंधी चिंताएँ संविदात्मक दायित्वों से अधिक महत्त्वपूर्ण होती हैं।
  • न्यायालय ने कहा कि कुछ पहलुओं को भारत संघ के विवेक पर छोड़ देना बेहतर है, तथा न तो मध्यस्थ  अधिकरण और न ही न्यायालय को राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित वर्गीकृत जानकारी की जाँच या मूल्यांकन करने का प्रयास करना चाहिये।

शासकीय गुप्त बात अधिनियम, 1923 (OSA):

  • शासकीय गुप्त बात अधिनियम, 1923 भारत में एक विधि है जो राज्य की आधिकारिक सूचनाओं को सुरक्षा प्रदान करता है, विशेष रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा और रक्षा के संबंध में।
  • "अत्यंत गोपनीयता" के रूप में वर्गीकृत दस्तावेज़ अधिनियम के तहत वर्गीकरण के उच्चतम स्तर का प्रतिनिधित्व करते हैं, यह दर्शाता है कि अनधिकृत प्रकटीकरण राष्ट्रीय सुरक्षा को असाधारण रूप से गंभीर नुकसान पहुँचाएगा।
  • "संरक्षित" दस्तावेज़ शासकीय गुप्त बात अधिनियम के तहत सुरक्षित हैं, उनका प्रकटीकरण केवल अधिकृत कर्मियों तक ही सीमित है।
  • अधिनियम किसी भी अनधिकृत व्यक्ति को किसी भी गुप्त आधिकारिक कोड, पासवर्ड, स्केच, योजना, मॉडल, लेख, नोट, दस्तावेज़ या जानकारी का खुलासा करना, प्राप्त करना, एकत्र करना, रिकॉर्ड करना, प्रकाशित करना या संचार करना अपराध बनाता है जो किसी दुश्मन के लिये उपयोगी हो सकता है या राज्य के हितों को प्रतिकूल रूप से प्रभावित कर सकता है।
  • दस्तावेज़ों का "अत्यंत गोपनीयता" और "संरक्षित" के रूप में वर्गीकरण आमतौर पर नामित सरकारी अधिकारियों द्वारा उनमें निहित जानकारी की संवेदनशीलता तथा संभावित प्रभाव के आधार पर किया जाता है।
  • न्यायालयों ने आमतौर पर शासकीय गुप्त बात अधिनियम के तहत दस्तावेज़ों के सरकारी वर्गीकरण के प्रति सम्मान दिखाया है, विशेष रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित मामलों में, साथ ही पारदर्शिता और न्याय के सिद्धांतों के साथ संतुलन बनाए रखते हुए।

शासकीय गुप्त बात अधिनियम (OSA), 1923 की धारा 5 क्या है?

  • गुप्त आधिकारिक जानकारी के प्रकटीकरण से संबंधित है।
  • इसमें शामिल हैं:
    • कोई भी व्यक्ति जो गुप्त आधिकारिक जानकारी रखता/नियंत्रित करता है
    • कोई भी व्यक्ति जो अधिनियम का उल्लंघन करके जानकारी प्राप्त करता है
    • जिन्हें गोपनीय रूप से आधिकारिक जानकारी सौंपी गई है
    • जिनके पास वर्तमान/पिछले सरकारी पदों के कारण पहुँच है
  • सूचना देने वाला और सूचना प्राप्त करने वाला दोनों ही व्यक्ति दोषी हैं।
  • यह किसी भी "गुप्त" सूचना पर लागू होता है, हालाँकि अधिनियम में "गोपनीयता" को परिभाषित नहीं किया गया है।
  • सज़ा: 3 वर्ष तक का कारावास, ज़ुर्माना या दोनों।

न्यायिक समीक्षा, शासकीय गुप्त बात अधिनियम और सूचना का अधिकार अधिनियम के साथ किस प्रकार परस्पर क्रिया करती है?

  • न्यायिक समीक्षा और OSA:
    • न्यायालय यह तय कर सकते हैं कि किसी व्यक्ति ने अधिनियम के तहत कोई अपराध किया है या नहीं।
    • न्यायालय यह निर्धारित कर सकते हैं कि सूचना "गोपनीय" है या नहीं (न्यायालय का मुद्दा)।
    • यह स्पष्ट नहीं है कि न्यायालय "लोकहित" प्रकटीकरण पर निर्णय दे सकते हैं या नहीं।
    • नंद लाल मोरे बनाम राज्य (वर्ष 1965) में न्यायालय ने बज़ट प्रस्तावों को गोपनीय माना था।
    • एस.पी. गुप्ता बनाम भारत के राष्ट्रपति मामले में प्रकटीकरण पर अधिक उदार रुख अपनाया गया।
  • RTI  अधिनियम और OSA:
    • RTI अधिनियम (2005) OSA की गोपनीयता की संस्कृति के विपरीत है। 
    • RTI अधिनियम ने OSA को पूर्ण रूप से प्रतिस्थापित नहीं किया है। 
    • RTI अधिनियम की धारा 8(2): प्रकटीकरण में सार्वजनिक हित OSA को ओवरराइड कर सकता है। 
    • RTI अधिनियम की धारा 22: इसके प्रावधान OSA के साथ असंगतताओं के बावजूद लागू होते हैं।