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सांविधानिक विधि
भारत के संविधान की प्रस्तावना
« »11-Oct-2023
परिचय
- यह भारत के संविधान (Constitution of India- COI) की प्रस्तावना है।
- यह भारत के संविधान को नियंत्रित करने वाले सिद्धांतों को चिह्नित करने वाला एक परिचयात्मक वक्तव्य है।
- यह संविधान का मसौदा तैयार करने के पीछे संविधान सभा की प्रकृति और उद्देश्य की प्रस्तावना करता है।
- इसमें उस स्रोत का उल्लेख है जहाँ से संविधान को शक्ति मिलती है, यानी भारत के लोग।
पृष्ठभूमि
- संविधान सभा ने इसे 26 नवंबर, 1949 को अपनाया।
- जबलपुर के ब्योहर राममनोहर सिन्हा ने भारत के संविधान के अन्य पृष्ठों के साथ-साथ प्रस्तावना के पृष्ठ को भी डिज़ाइन किया।
- इसे पहली और अंतिम बार 42वें संशोधन अधिनियम 1976 के तहत संशोधित किया गया था।
प्रस्तावना के तत्त्व
- संविधान का स्रोत: भारत के लोगों में निहित है।
- संविधान की प्रकृति: संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और गणतांत्रिक।
- संविधान के उद्देश्य: न्याय, स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व के साथ-साथ राष्ट्र की एकता और अखंडता।
- संविधान लागू होने की तिथि: 26 नवंबर, 1949।
प्रस्तावना की मौलिक विशेषताएँ
- संप्रभुता: कोई भी बाहरी सत्ता प्रभुत्व के निर्णय में हस्तक्षेप नहीं कर सकती। विदेशी नियंत्रण के विरुद्ध राष्ट्र स्वतंत्र है।
- समाजवादी: राष्ट्र का लक्ष्य सामाजिक कल्याण है। समाजवादी प्रकृति का घटक मिश्रित अर्थव्यवस्था है।
- धर्मनिरपेक्ष: राज्य का कोई राष्ट्रीय धर्म नहीं है। राज्य की नजर में सभी धर्म समान हैं।
- लोकतांत्रिक: सरकार संविधान के अनुसार मतदान करने वाले लोगों की इच्छा से चुनी जाती है।
- गणतंत्र: राज्य का मुखिया जनता द्वारा चुना जाता है।
प्रस्तावना के उद्देश्य
- न्याय: समाज में व्यवस्था बनाए रखने के लिये सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की स्थापना महत्त्वपूर्ण है।
- स्वतंत्रता: विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, विश्वास और उपासना की स्वतंत्रता, एक व्यक्ति की स्वतंत्रता दूसरे व्यक्ति की स्वतंत्रता का अतिक्रमण नहीं करनी चाहिये।
- समानता: कानून के समक्ष सभी को समान रखने के लिये स्थिति और अवसर की समानता स्थापित करना महत्त्वपूर्ण है।
- बंधुत्त्व: व्यक्तियों की गरिमा और राष्ट्र की एकता तथा अखंडता सुनिश्चित करने के लिये लोगों के बीच बंधुत्त्व।
केस लॉ
- बेरुबारी केस (1960) में:
- आठ न्यायधीशों की पीठ ने भारत-पाक समझौते पर मामले पर विचार किया। पीठ ने कहा कि प्रस्तावना संविधान का हिस्सा नहीं है और इसलिये इसे कानून द्वारा लागू नहीं किया जा सकता है। इसके अलावा यह निर्माताओं के दिमाग की कुंजी है।
- केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973):
- 13 न्यायाधीशों की पीठ ने प्रस्तावना को संविधान का हिस्सा बताया। इसके पास कोई सर्वोच्च प्राधिकार नहीं है लेकिन यह संविधान के कानूनों और प्रावधानों की व्याख्या करने के लिये एक मार्गदर्शक के रूप में कार्य करता है।
- संघ सरकार बनाम एलआईसी ऑफ इंडिया (1975):
- सर्वोच्च न्यायालय ने दोहराया कि प्रस्तावना संविधान का अभिन्न अंग है। लेकिन यह न्यायालय के समक्ष कानूनी रूप से लागू करने योग्य नहीं है।
- एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ और अन्य (1994):
- सर्वोच्च न्यायालय ने धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा पर जोर देते हुए कहा कि राज्य का कोई धर्म नहीं होता है और किसी भी धर्म से संबंधित लोगों को अंतरात्मा की समान स्वतंत्रता तथा किसी भी धर्म का पालन करने, मानने या प्रचार करने का अधिकार है।
42वाँ संशोधन अधिनियम, 1976
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निष्कर्ष
संविधान की प्रस्तावना एक परिचयात्मक दस्तावेज़ है जिसमें उद्देश्यों का सारांश दिया गया है और उन सिद्धांतों को बताया गया है जिन पर विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका आधारित हैं। विभिन्न निर्णयों में प्रस्तावना की स्थिति पर विचार किया गया लेकिन अंततः केशवानंद भारती मामले में इसमें संशोधन किया गया जिसने इसे संविधान का हिस्सा घोषित कर दिया।