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पारिवारिक कानून

विवाह का अपूरणीय विघटन

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 08-Jul-2024

महेंद्र कुमार सिंह बनाम रानी सिंह

"केवल तभी इस निष्कर्ष पर पहुँचा जा सकता है कि विवाह पूरी तरह से विघटित हो चुका है, जब यह देखा जाए कि पक्षों में से एक ने दूसरे को स्वेच्छा से त्याग दिया है तथा पक्षकार लंबे समय तक उस स्थिति में बने रहे हैं, जिससे न्यायालय को यह संकेत मिलता है कि विवाह में कोई सार नहीं है”।

न्यायमूर्ति सौमित्र दयाल सिंह एवं न्यायमूर्ति दोनादी रमेश

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने महेंद्र कुमार सिंह बनाम रानी सिंह के मामले में यह माना है कि यह अनुमान लगाने के लिये कि क्या इस आधार पर विवाह पूरी तरह से विघटित हो चुका है कि पक्षकार लंबे समय तक एक साथ नहीं रह रहे हैं, केवल मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों पर विचार करके ही लगाया जाना चाहिये।

महेंद्र कुमार सिंह बनाम रानी सिंह मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, दोनों पक्षों ने वर्ष 1999 में विवाह किया तथा उनके दो बच्चे हुए।
  • कुछ वर्षों के बाद अपीलकर्त्ता के पिता की मृत्यु हो गई तथा उसके बाद अपीलकर्त्ता को मिर्ज़ापुर में तैनात कर दिया गया, जबकि उसकी पत्नी एवं बच्चे अपीलकर्त्ता की माँ की मृत्यु तक वाराणसी में उसकी माँ के साथ रहे।
  • अपीलकर्त्ता ने बाद में पारिवारिक न्यायालय में विवाह-विच्छेद के लिये अर्जी दायर की।
  • अपीलकर्त्ता ने कहा कि उसके एवं उसकी पत्नी (प्रतिवादी) के मध्य अच्छे संबंध थे, क्योंकि उसकी पत्नी उसकी माँ की देखभाल करती थी तथा उसकी माँ ने भी प्रतिवादी के पक्ष में वसीयत की थी।
  • अपीलकर्त्ता ने तर्क दिया कि प्रतिवादी उसे उसके माता-पिता से मिलने से रोककर, उसके माता-पिता का अंतिम संस्कार करने से रोककर उसके साथ क्रूरता करता था।
  • अपीलकर्त्ता ने यह भी तर्क दिया कि चूँकि दंपति लंबे समय से अलग-अलग रह रहे थे, इसलिये विवाह में ऐसी दरार आ गई है जिसे सुधारा नहीं जा सकता।
  • पारिवारिक न्यायालय ने विवाह के अपरिवर्तनीय विघटन के आधार पर विवाह-विच्छेद की याचिका को खारिज कर दिया तथा कहा कि अपीलकर्त्ता के विरुद्ध प्रतिवादी द्वारा क्रूरता का कृत्य सिद्ध करने के लिये कोई साक्ष्य नहीं है।
  • इसके बाद अपीलकर्त्ता ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर की।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के अंतर्गत क्रूरता की अवधारणा

  • HMA, 1995 की धारा 13 के अनुसार क्रूरता विवाह-विच्छेद लेने का एक आधार है।
  • क्रूरता शारीरिक एवं मानसिक दोनों हो सकती है।
  • क्रूरता की गंभीरता एवं प्रकृति का निर्धारण न्यायालयों द्वारा निर्णय देने से पहले मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करके किया जाना चाहिये।
  • मानसिक क्रूरता की अवधारणा अभी भी उभर रही है तथा मानसिक क्रूरता पर आधारित निर्णयों के माध्यम से इसकी परिधि व्यापक होती जा रही है।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने पाया कि अधीनस्थ न्यायालय के निष्कर्ष युक्तियुक्त हैं।
  • उच्च न्यायालय ने यह भी पाया कि विवाह-विच्छेद देने से पहले विवाह के अपूरणीय रूप से टूटने के आधारों की सूक्ष्मता से जाँच की जानी चाहिये, क्योंकि इस तरह के पृथक्करण का कारण प्रत्येक मामले के अनुसार भिन्न हो सकता है।
  • उच्च न्यायालय ने कहा कि वर्तमान मामले में अलग रहने का कारण यह था कि पति नौकरी पर चला गया था तथा पत्नी अपनी माँ की देखभाल के लिये उसके साथ रह रही थी, इसे विवाह के अपूरणीय रूप से विघटन का आधार नहीं माना जा सकता।
  • उच्च न्यायालय ने यह भी कहा कि कोई साक्ष्य नहीं है, कोई उचित समय एवं तिथि नहीं है तथा न ही कोई प्रासंगिक साक्ष्य है जो पति के विरुद्ध पत्नी द्वारा क्रूरता को सिद्ध करता हो और उसके पति की माँ के प्रति उसके व्यवहार को सिद्ध करता हो।
  • इसलिये, उच्च न्यायालय ने अपील को खारिज कर दिया।

हिंदू विवाह अधिनियम, 1955 के अंतर्गत विवाह-विच्छेद की अवधारणा क्या है?

विवाह विच्छेद:

  • शाब्दिक अर्थ में, "विवाह-विच्छेद " का तात्पर्य दो व्यक्तियों के मध्य विवाह के विधिक विघटन से है।
  • महत्त्वपूर्ण रूप से, हिंदू धर्म शास्त्र में, विवाह को एक पवित्र एवं अविभाज्य बंधन के रूप में देखा जाता था, जिसमें वर्ष 1955 में हिंदू विवाह अधिनियम (HMA) के अधिनियमन तक विवाह-विच्छेद का कोई प्रावधान नहीं था।
  • इस अधिनियम में धारा 13 के अधिनियम में विवाह-विच्छेद के लिये आधार प्रस्तुत किये गए हैं, जो पक्षों को विवाह-विच्छेद के आदेश के लिये सक्षम न्यायालय में याचिका दायर करने की अनुमति देता है।
  • विवाह-विच्छेद के लिये पति या पत्नी में से किसी एक को ऐसे व्यवहार का दोषी पाया जाना आवश्यक है जो मूल रूप से विवाह को कमज़ोर करता हो।

विवाह-विच्छेद के प्रकार:

  • विवाह-विच्छेद के निम्न प्रकार हैं:
    • विवादित विवाह-विच्छेद:
      • जब कोई भी पक्ष विवाह-विच्छेद प्राप्त कर सकता है।
      • जब पत्नी अकेले विवाह-विच्छेद प्राप्त कर सकती है।
      • विवाह का अपूरणीय विघटन
      • आपसी सहमति से विवाह-विच्छेद
      • रूढ़ियों के माध्यम से विवाह-विच्छेद

विवाह-विच्छेद  का आधार:

  • HMA की धारा 13 विवाह-विच्छेद के आधारों से संबंधित है—
    • इस अधिनियम के लागू होने से पहले या बाद में संपन्न कोई भी विवाह, पति या पत्नी में से किसी एक द्वारा प्रस्तुत याचिका पर, विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा इस आधार पर विघटित किया जा सकेगा कि दूसरा पक्ष-
      • विवाह संपन्न होने के बाद, अपने पति या पत्नी के अतिरिक्त किसी अन्य व्यक्ति के साथ स्वैच्छिक यौन संबंध बनाए हैं; या
      • विवाह संपन्न होने के बाद, याचिकाकर्त्ता के साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया है; या
      • याचिका प्रस्तुत करने से ठीक पहले कम-से-कम दो वर्ष की निरंतर अवधि के लिये याचिकाकर्त्ता को छोड़ दिया हो; या
      • किसी अन्य धर्म में धर्मांतरण करके हिंदू नहीं रहा हो; या
      • असाध्य रूप से अस्वस्थ मानसिक स्थिति में हो या लगातार या रुक-रुक कर इस तरह के मानसिक विकार से पीड़ित रहा हो तथा इस सीमा तक कि याचिकाकर्त्ता से उचित रूप से प्रतिवादी के साथ रहने की उम्मीद नहीं की जा सकती हो।

व्याख्या— इस खंड में-

"मानसिक विकार" का अर्थ है मानसिक रोग, मस्तिष्क का रुका हुआ या अधूरा विकास, मनोरोगी विकार या दिमाग का कोई अन्य विकार या विकलांगता एवं इसमें सिज़ोफ्रेनिया भी शामिल है;

  • "मनोरोगी विकार" का अर्थ मन का निरंतर विकार या विकलांगता है (चाहे इसमें बुद्धि की अवसामान्यता निहित हो या न हो) जिसके परिणामस्वरूप दूसरे पक्ष की ओर से असामान्य रूप से आक्रामक या गंभीर रूप से गैर-ज़िम्मेदाराना आचरण होता है और चाहे उसे चिकित्सा उपचार की आवश्यकता हो या न हो, या संचारी रूप में यौन रोग से पीड़ित होना, या
    • किसी धार्मिक उद्देश्य की पूर्ति के लिये सांसारिक जीवन का त्याग कर दिया हो, या
    • सात वर्ष या उससे अधिक समय से उसके जीवित होने के विषय में उन व्यक्तियों द्वारा नहीं सुना गया हो, जो स्वाभाविक रूप से इसके विषय में सुनते, यदि वह पक्ष जीवित होता,

स्पष्टीकरण– इस उपधारा में, "अभित्याग" पद का अर्थ विवाह के दूसरे पक्षकार द्वारा बिना उचित कारण के और ऐसे पक्षकार की सहमति के बिना या उसकी इच्छा के विरुद्ध याचिकाकर्त्ता का अभित्याग है तथा इसके अंतर्गत विवाह के दूसरे पक्षकार द्वारा याचिकाकर्त्ता की जानबूझकर की गई उपेक्षा भी है और इसके व्याकरणिक रूपांतर तथा दण्ड तीय पदों का तद्नुसार अर्थ लगाया जाएगा।

  • किसी विवाह का कोई भी पक्षकार, चाहे वह इस अधिनियम के प्रारंभ से पहले या बाद में अनुष्ठापित हुआ हो, इस आधार पर विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा विवाह के विघटन के लिये याचिका प्रस्तुत कर सकता है-
    • कि विवाह के पक्षकारों के मध्य किसी कार्यवाही में, जिसमें वे पक्षकार थे, न्यायिक पृथक्करण के लिये डिक्री पारित होने के पश्चात् एक वर्ष या उससे अधिक की अवधि तक वैवाहिक संबंध की पुनर्स्थापना न हुई हो, या
    • कि विवाह के पक्षकारों के मध्य किसी कार्यवाही में, जिसमें वे पक्षकार थे, वैवाहिक अधिकारों के प्रत्यास्थापन के लिये डिक्री पारित होने के पश्चात् एक वर्ष या उससे अधिक की अवधि तक वैवाहिक अधिकारों की कोई पुनर्स्थापना नहीं हुई है।
  • पत्नी विवाह-विच्छेद की डिक्री द्वारा अपने विवाह के विघटन के लिये इस आधार पर याचिका भी प्रस्तुत कर सकती है–
    • इस अधिनियम के प्रारंभ से पूर्व संपन्न किसी विवाह के मामले में, पति ने ऐसे प्रारंभ से पूर्व पुनः विवाह कर लिया था या पति की कोई अन्य पत्नी, जिसने ऐसे प्रारंभ से पूर्व विवाह किया था, याचिकाकर्त्ता के विवाह के अनुष्ठान के समय जीवित थी।
    • बशर्ते कि दोनों ही मामलों में याचिका प्रस्तुत करने के समय दूसरी पत्नी जीवित हो, या
    • पति विवाह के बाद से बलात्संग, गुदामैथुन या पशुगमन का दोषी रहा है, या
    • हिंदू दत्तक ग्रहण एवं भरण-पोषण अधिनियम, 1956 की धारा 18 के अंतर्गत किसी वाद में या दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 के अंतर्गत किसी कार्यवाही में, पति के विरुद्ध, जैसा भी मामला हो, पत्नी को भरण-पोषण देने के लिये डिक्री या आदेश पारित किया गया है, भले ही वह अलग रह रही हो तथा ऐसी डिक्री या आदेश पारित होने के बाद से, पक्षों के मध्य एक वर्ष या उससे अधिक समय तक शारीरिक संबंध पुनः स्थापित न हुआ हो।
    • यह कि उसका विवाह (चाहे वह संपन्न हुआ हो या नहीं) उसकी पंद्रह वर्ष की आयु प्राप्त करने से पूर्व संपन्न हुआ था तथा उसने उस आयु के पश्चात् किंतु अठारह वर्ष की आयु प्राप्त करने से पूर्व विवाह का परित्याग कर दिया है।
    • स्पष्टीकरण– यह खण्ड लागू होता है, चाहे विवाह विवाह विधि (संशोधन) अधिनियम, 1976 के प्रारंभ से पूर्व संपन्न हुआ हो या उसके पश्चात्।

विवाह-विच्छेद  एवं न्यायिक पृथक्करण के मध्य अंतर:

विवाह-विच्छेद

न्यायिक पृथक्करण

इसे विवाह के एक वर्ष बाद ही दाखिल किया जा सकता है।

इसे विवाह के बाद किसी भी समय दायर किया जा सकता है।

विवाह-विच्छेद का आदेश पारित होने के बाद कोई भी व्यक्ति पुनर्विवाह कर सकता है।

एक बार न्यायिक पृथक्करण आदेश के बाद पुनर्विवाह नहीं किया जा सकता।

यह विवाह का स्थायी समापन है।

यह विवाह का निलंबन है।

यह दो चरणों वाली प्रक्रिया है: सुलह एवं पुनः विवाह-विच्छेद ।

यह बिना किसी समझौते के प्रदान किया जाता है।

 विवाह के अपूरणीय विघटन की अवधारणा क्या है?

उत्पत्ति:

  • यह अवधारणा वर्ष 1921 में न्यूज़ीलैंड में लोडर बनाम लोडे के महत्त्वपूर्ण निर्णय के माध्यम से उत्पन्न हुई थी।

अर्थ:

  • विवाह का अपूरणीय विघटन एक ऐसी स्थिति है जिसमें पति एवं पत्नी बहुत समय से अलग-अलग रह रहे हैं तथा उनके पुनः साथ रहने की कोई संभावना नहीं है।
  • इससे तात्पर्य है कि विवाह में सामंजस्य स्थापित करने की कोई संभावना नहीं है तथा अगर सामंजस्य स्थापित हो जाता है और विवाह-विच्छेद नहीं दिया जाता है तो यह क्रूरता होगी।

वैधानिकता:

  • इस सिद्धांत ने अनौपचारिक वैधता प्राप्त कर ली है क्योंकि इसे विवाह-विच्छेद देने वाले कई न्यायिक निर्णयों में उद्धृत किया गया है।
  • भारत में, HMA में विवाह-विच्छेद के लिये इस तरह के आधार को शामिल करना अभी तक नहीं किया गया है, लेकिन विभिन्न विधि आयोग की रिपोर्टों में इसका दृढ़ता से सुझाव दिया गया है तथा इस संबंध में संसद में विवाह विधि (संशोधन) विधेयक, 2010 नामक एक विधेयक प्रस्तुत किया गया था।

भारतीय संविधान, 1950 का अनुच्छेद 142:

  • यह अवधारणा भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत भी शामिल है, जहाँ उच्चतम न्यायालय को पृथक्करण के कारण, पृथक्करण के समय एवं अन्य कारकों पर विचार करने के बाद विवाह के अपरिवर्तनीय विघटन के आधार पर विवाह-विच्छेद देने की विवेकाधीन शक्ति प्राप्त है।

निर्णयज विधियाँ:

  • नवीन कोहली बनाम नीलू कोहली (2006), इस मामले में यह माना गया कि जब विवाह में कोई सार नहीं रह जाता है तो इसे पूरी तरह से टूटा हुआ कहा जाता है।
  • कंचन देवी बनाम प्रमोद कुमार मित्तल (2010), दिल्ली उच्च न्यायालय ने इस सिद्धांत को दोहराया कि यदि विवाह पूरी तरह से विघटित हो चुका है तथा पति-पत्नी के एक साथ आने की कोई संभावना नहीं है, तो यह विवाह-विच्छेद के लिये एक वैध आधार है।
  • शिल्पा शैलेश बनाम वरुण श्रीनिवासन (2023) मामले में उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया है कि विवाह विच्छेद होने पर विवाह संहिता का अनुच्छेद 142 पक्षकारों को विवाह-विच्छेद का अधिकार नहीं देता है, बल्कि यह विवेक का मामला है जिसका प्रयोग केवल उच्चतम न्यायालय ही विभिन्न कारकों का विश्लेषण करके कर सकता है। इन कारकों में पृथक्करण की अवधि, पक्षों द्वारा लगाए गए आरोपों की प्रकृति, कितनी बार न्यायालयों ने हस्तक्षेप किया है, आदि शामिल हो सकते हैं।