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आपराधिक कानून
केवल समानता (Parity) के आधार पर जमानत प्रदान नहीं जा सकती
«02-Dec-2025
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सागर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) "जमानत के लिये आधार के रूप में समानता का उपयोग करते समय, अभियुक्त की भूमिका पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिये और इसका उपयोग केवल इसलिये नहीं किया जा सकता है क्योंकि किसी अन्य अभियुक्त को उसी अपराध के संबंध में जमानत दी गई थी।" न्यायमूर्ति संजय करोल और एन. कोटिस्वर सिंह |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
सागर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) मामले में न्यायमूर्ति संजय करोल और न्यायमूर्ति एन. कोटिश्वर सिंह की पीठ ने समानता के आधार पर जमानत देने के इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश को अपास्त कर दिया और कहा कि उच्च न्यायालय कथित अपराध में अभियुक्त की विशिष्ट भूमिका पर विचार करने में असफल रहा।
सागर बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- अभियोजन पक्ष ने अभिकथित किया कि जब अभियुक्तों के एक समूह ने परिवादकर्त्ता के परिवार का रास्ता रोका तो विवाद घातक हिंसा में बदल गया।
- आमना-सामना के दौरान, प्रत्यर्थी संख्या 2 (राजवीर) ने कथित तौर पर सह-अभियुक्त आदित्य को मृतक को गोली मारने के लिये उकसाया।
- आदित्य की जमानत अर्जी न्यायालय ने खारिज कर दी।
- उच्च न्यायालय ने पहले सुरेश पाल (आदित्य के पिता) को जमानत दे दी थी, किंतु बाद में उच्चतम न्यायालय ने उचित तर्क के अभाव में इस निर्णय को पलट दिया।
- सुरेश पाल को दी गई जमानत पर पूरी तरह से विश्वास करते हुए, उच्च न्यायालय ने बाद में प्रत्यर्थी संख्या 2 (राजवीर, कथित भड़काने वाला) और प्रिंस, एक अन्य सह-अभियुक्त की जमानत बढ़ा दी।
- उच्च न्यायालय ने अपराध में उनकी व्यक्तिगत भूमिका का ठोस विश्लेषण किये बिना ही जमानत दे दी।
- परिवादकर्त्ता ने केवल समानता के आधार पर जमानत दिये जाने के विरुद्ध याचिका दायर की।
न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं?
- न्यायालय ने कहा कि जमानत के आधार के रूप में समानता को अभियुक्त की भूमिका पर केद्रित होना चाहिये तथा इसका उपयोग केवल इसलिये नहीं किया जा सकता कि उसी अपराध के संबंध में किसी अन्य अभियुक्त को जमानत दी गई थी।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि समानता को अधिकार के रूप में दावा नहीं किया जा सकता।
- रमेश भवन राठौड़ बनाम विशनभाई हीराभाई मकवाना (कोली) और अन्य, (2021) पर विश्वास करते हुए न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि समानता के लिये भूमिकाओं और परिस्थितियों में समानता की आवश्यकता होती है, न कि केवल यह कि अभियुक्त व्यक्तियों को समान आरोपों का सामना करना पड़ता है।
- न्यायालय ने कहा कि किसी अपराध में विभिन्न भूमिकाएँ निभाई जा सकती हैं: किसी बड़े समूह का कोई व्यक्ति जो डराने का आशय रखता है, हिंसा भड़काने वाला, कोई व्यक्ति जो शारीरिक रूप से हमला करता है, कोई व्यक्ति जो हथियार चलाता है या घातक हथियार का उपयोग करता है।
- न्यायालय ने कहा कि इन लोगों की समानता उन लोगों के साथ होगी जिन्होंने समान कार्य किये हैं, न कि ऐसे लोगों के साथ जिनकी भूमिका काफी भिन्न थी।
- न्यायालय ने कहा कि उच्च न्यायालय ने समानता के आधार पर गलती से जमानत दे दी, तथा इसे अभियुक्त द्वारा निभाई गई भूमिका पर केंद्रित करने के बजाय प्रत्यक्ष आवेदन के साधन के रूप में गलत समझा।
- न्यायालय ने बृजमणि देवी बनाम पप्पू कुमार एवं अन्य (2022) के सिद्धांतों को लागू किया, जिसमें इस बात पर बल दिया गया था कि जमानत आदेश में विस्तृत तर्क की आवश्यकता नहीं है, किंतु आदेश किसी भी तर्क से रहित नहीं होना चाहिये।
- न्यायालय ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा दिये गए जमानत आदेश को अपास्त कर दिया ।
जमानत देते समय मूल्यांकन किये जाने वाले कारक
बृजमणि देवी बनाम पप्पू कुमार एवं अन्य (2022) के अनुसार, जमानत देते समय निम्नलिखित तथ्यों का स्वतंत्र रूप से मूल्यांकन किया जाना चाहिये:
- अभियुक्त के विरुद्ध लगाए गए अभिकथनों की प्रकृति।
- यदि अभिकथन संदेह से परे साबित हो जाएं और परिणामस्वरूप दोषसिद्धि हो जाए तो दण्ड की कठोरता।
- अभियुक्त द्वारा साक्षियों को प्रभावित किये जाने की युक्तियुक्त आशंका।
- साक्ष्यों से छेड़छाड़।
- अभियोजन पक्ष के मामले में लापरवाही।
- अभियुक्त का आपराधिक इतिहास।
- अभियुक्त के विरुद्ध आरोप के समर्थन में न्यायालय की प्रथम दृष्टया संतुष्टि।
जमानत क्या है?
बारे में:
- जमानत, विचारण से पहले अभियुक्त की सशर्त रिहाई है, जो मूलतः निर्दोषता की उपधारणा पर आधारित है। यह एक महत्त्वपूर्ण तंत्र के रूप में कार्य करता है जो यह सुनिश्चित करता है कि न्यायिक कार्यवाही की प्रतीक्षा के दौरान व्यक्तियों को अनुचित रूप निरोध में न रखा जाए। इसका मुख्य उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि अभियुक्त मामले के लंबित रहने के दौरान न्याय से भाग न जाए, साक्ष्यों से छेड़छाड़ न करे, या साक्षियों को प्रभावित न करे।
विधिक प्रावधान:
- भारत में जमानत के लिये विधिक ढाँचा अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 के अध्याय 35 द्वारा शासित है, जिसने पूर्ववर्ती दण्ड प्रक्रिया संहिता (CrPC) 1973 का स्थान लिया है। यह व्यापक विधान जमानत मामलों से संबंधित प्रक्रियात्मक दिशानिर्देश और न्यायिक शक्तियां स्थापित करता है।
- राजस्थान राज्य बनाम बालचंद (1977) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह मूलभूत सिद्धांत स्थापित किया कि "मूल नियम जमानत है, जेल नहीं," और इस बात पर बल दिया कि जमानत एक अधिकार है और कारावास एक अपवाद है। इस ऐतिहासिक निर्णय ने इस सांविधानिक दर्शन को पुष्ट किया कि स्वतंत्रता आदर्श है और निरोध अपवाद है।
प्रकार और शक्तियां:
- जमानत के प्रावधानों को अपराध की प्रकृति के आधार पर वर्गीकृत किया जाता है। जमानतीय अपराधों के लिये पूर्व दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 436 के अधीन जमानत का स्वतः अधिकार सुनिश्चित होता है, जबकि अजमानतीय अपराधों के लिये धारा 437 के अनुसार न्यायालयों और नामित पुलिस अधिकारियों को विवेकाधीन शक्तियां प्राप्त होती हैं।
- उच्च न्यायालयों और सेशन न्यायालयों को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 483 के अधीन जमानत देने, उसमें संशोधन करने या उसे रद्द करने के विशेष अधिकार प्राप्त हैं। वे अभिरक्षा में लिये गए किसी भी अभियुक्त को छोड़ने का निदेश दे सकते हैं, विशिष्ट शर्तें अधिरोपित कर सकते हैं या विद्यमान जमानत शर्तों में संशोधन कर सकते हैं।
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 482 के अंतर्गत अग्रिम जमानत उन व्यक्तियों को अनुमति देती है, जिन्हें अजमानतीय अपराधों के लिये गिरफ्तारी का उचित भय है, वे उच्च न्यायालयों या सेशन न्यायालयों से गिरफ्तारी-पूर्व सुरक्षा प्राप्त कर सकते हैं।
जमानत की शर्तें:
- न्यायालय सामान्यत: जमानत देते समय कई शर्तें अधिरोपित कर सकते हैं। अभियुक्त को विचारण की कार्यवाही के दौरान उपस्थिति सुनिश्चित करने के लिये जमानत के साथ एक निजी बंधपत्र जमा करना होगा। मानक शर्तों में सबूतों से छेड़छाड़, साक्षियों को प्रभावित करने या पीड़ितों से संपर्क करने पर निर्बंधन सम्मिलित हैं। न्यायालय मामले की परिस्थितियों के अनुसार विशिष्ट निर्बंधन भी अधिरोपित कर सकते हैं, जैसे पासपोर्ट जमा करना या पुलिस थानों में समय-समय पर रिपोर्ट करना।
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 187 के अधीन व्यतिक्रम या अनिवार्य जमानत उपबंध यह सुनिश्चित करते हैं कि यदि अन्वेषण विहित समय सीमा से अधिक हो जाता है तो अभियुक्त व्यक्तियों को जमानत दी जाती है, जिससे न्यायिक हस्तक्षेप विवेकाधीन के बजाय स्वचालित हो जाता है।