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वाणिज्यिक विधि

विधिविरुद्ध ऋण के लिये चेक अनादरण

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 14-Nov-2025

"जब किसी अवैध संव्यवहार में दोनों पक्षकार समान रूप से दोषी हों, तो वहाँ कोई विधिक रूप से प्रवर्तनीय ऋण नहीं होता, और परिणामस्वरूप परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 लागू नहीं होती।" 

न्यायमूर्ति के. मुरली शंकर 

स्रोत: मद्रास उच्च न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति के. मुरली शंकर की पीठ ने पी. कुलंथायसामी बनाम के. मुरुगन एवं अन्य (2025)के मामले मेंपरक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 की धारा 138 के अधीन अभियुक्तों को दोषमुक्त करने के निर्णय को बरकरार रखा और कहा कि सरकारी नौकरी हासिल करने के लिये प्राप्त धन को चुकाने के लिये जारी किया गया चेक विधिक रूप से प्रवर्तनीय ऋण का निर्वहन नहीं करता है। 

पी. कुलंथैसामी बनाम के. मुरुगन एवं अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • TNSTC डिपो विरुधुनगर में कार्यरत अभियुक्त ने परिवहन निगम श्रमिक संघ में प्रभाव होने का दावा किया और 3 लाख रुपए के बदले में परिवादकर्त्ता के लिये कंडक्टर की नौकरी की व्यवस्था करने का वचन दिया 
  • परिवादकर्त्ता ने साक्षी मदमुथु की उपस्थिति में 10.02.2016 को 3 लाख रुपए का संदाय किया, किंतुअभियुक्त वचन दी गई नौकरी दिलाने में असफल रहा। 
  • जब पैसे वापस मांगे गए तो अभियुक्त ने पहले 31.12.2016 का चेक जारी किया, जिसे बैंक ने पुराना और अवैध घोषित कर दिया। 
  • इसके बाद अभियुक्त ने 28.02.2017 को 3 लाख रुपए का दूसरा चेक जारी किया, जोअपर्याप्त धनराशि के कारण बाउंस हो गया। 
  • अभियुक्त द्वारा दिनांक 14.03.2017 को दिये गए विधिक नोटिस को नजरअंदाज करने के बाद, परिवादकर्त्ता ने परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 के अधीन परिवाद दर्ज कराया 
  • विचारण न्यायालय ने अभियुक्त को यह कहते हुए दोषमुक्त कर दिया कि चेक विधिक रूप से प्रवर्तनीय ऋण के लिये जारी नहीं किया गया था, जिसे परिवादकर्त्ता ने इस अपील के माध्यम से चुनौती दी थी।  

न्यायालय की टिप्पणियां क्या थीं? 

  • न्यायालय ने कहा कि सरकारी नौकरी पाने के लिये संदाय रिश्वतखोरी है और यह लोक नीति के विरुद्ध है, जिससे अंतर्निहित करार शून्य हो जाता है। 
  • न्यायालय ने विधिक सिद्धांत " in pari delicto potior est conditio possidentis" (समान दोष में, स्वामी की स्थिति बेहतर होती है) को लागू किया, जिसमें कहा गया कि जब किसी अनैतिक कार्य में दोनों पक्षकार समान रूप से दोषी हों, तोन्यायालय किसी भी पक्षकार की सहायता नहीं करेगा। 
  • न्यायालय नेभारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (ICA) की धारा 23, विशेष रूप से दृष्टांत (च) पर विश्वास किया, जिसमें कहा गया है: के लिये लोक सेवा में नियोजन अभिप्राप्त करने का वचन देता है और को ’ 1,000 रुपए देने का वचन देता है। करार शून्य है क्योंकि उसके लिये प्रतिफल विधि-विरुद्ध है।" 
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया किभारतीय संविदा अधिनियम, 1872 की धारा 65 (प्रतिस्थापन)केवल तभी लागू होती है जब कोई करार बाद में शून्य पाया जाता है, न कि तब जब वह आरंभ से ही शून्य हो। चूँकि यह करार आरंभ से ही शून्य था, इसलिये कोई प्रतिपूर्ति उपलब्ध नहीं थी। 
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि चूँकि कोई विधिक रूप से प्रवर्तनीय ऋण या दायित्त्व नहीं था, इसलिये परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 लागू नहीं थी, और दोषमुक्त करने के निर्णय को बरकरार रखते हुए अपील को खारिज कर दिया। 

परक्राम्य लिखत अधिनियम की धारा 138 क्या है? 

बारे में: 

  • धारा 138 अपर्याप्त धनराशि या निर्धारित राशि से अधिक होने के कारण चेक के अनादरण को सांविधिक अपराध बनाती है। 
  • इस धारा के अंतर्गत अपराध गठित करने के लिये आवश्यक तत्त्व निम्नलिखित हैं: 
  • प्राथमिक आवश्यकता: किसी व्यक्ति द्वारा किसी अन्य व्यक्ति को धन के संदाय के लिये बैंक में अपने खाते पर आहरित चेक को अपर्याप्त धनराशि या निर्धारित ओवरड्राफ्ट सीमा से अधिक धनराशि होने के कारण बैंक द्वारा बिना संदाय के वापस कर दिया जाना चाहिये 

परंतुक के अंतर्गत तीन अनिवार्य शर्तें: 

  • चेक जारी होने की तिथि से छह मास के भीतरया इसकी वैधता अवधि के भीतर, जो भी पहले हो, बैंक को प्रस्तुत किया जाना चाहिये 
  • पाने वाला या धारक कोबैंक से चेक के अवैतनिक वापस आने की सूचना प्राप्त होने केतीस दिनों के भीतर लेखिवाल को लिखित मांग नोटिस जारी करना होगा। 
  • मांग नोटिस प्राप्त होने केपंद्रह दिनोंके भीतर चेक लेखिवाल को चेक राशि का संदाय करने में असफल होना होगा । 
  • शास्ति का उपबंध : इन शर्तों की पूर्ति होने पर, चेक लेखिवाल द्वारा अपराध किया जाता है जिसके लियेदो वर्ष तक का कारावासयाचेक राशि के दोगुने तक का जुर्माना या दोनों हो सकते हैं।  
  • विस्तार की परिसीमा : ऋण या दायित्त्व विधिक रूप से प्रवर्तनीय होना चाहिये जैसा कि धारा के स्पष्टीकरण में स्पष्ट किया गया है। 

भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 23 क्या है? 

  • भारतीय संविदा अधिनियम, 1872 (ICA) कीधारा 23 के अनुसार, किसीसंविदा केवैधहोने के लिये, उद्देश्य और प्रतिफल की वैधताआवश्यक है ।उद्देश्य वह प्रयोजन है जिसके लिये पक्षकार संविदा करते हैं। उद्देश्य की पूर्ति से एक पक्षकार से दूसरे पक्षकार को सहमत प्रतिफल का अंतरण होता है। 
  • अपना गृह 10,000 रुपए में को बेचने का करार करता है। यहाँ 10,000 रुपए देने का का वचन गृह बेचने के के वचन के लिये प्रतिफल है, और गृह बेचने का का वचन 10,000 रुपए देने के के वचन के लिये प्रतिफल है। ये विधिपूर्ण प्रतिफल हैं। 

भारतीय संविदा अधिनियम की धारा 65 क्या है? 

धारा 65 - उस व्यक्ति की बाध्यता, जिसने शून्य करार या संविदा के अधीन जो शून्य हो गई हो, फायदा प्राप्त किया हो 

  • यह धारा उन स्थितियों से संबंधित है जहाँ किसी करार को शून्य पाया जाता है या वह शून्य हो जाता है। 
  • ऐसे मामलों में, जिस व्यक्ति ने करार के अधीन कोई लाभ प्राप्त किया है, वहउसे वापस करने या उस व्यक्ति को प्रतिकर देने के लिये आबद्धहै, जिससे उसने उसे प्राप्त किया था।