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आपराधिक कानून
डॉ. विजयकुमारन सी.पी.वी. बनाम केरल केंद्रीय विश्वविद्यालय और अन्य (2020)
01-Dec-2025
परिचय
इस महत्त्वपूर्ण मामले में, उच्चतम न्यायालय ने इस बात की जांच की कि क्या महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न (POSH) अधिनियम के अधीन आंतरिक परिवाद समिति की जांच के निष्कर्षों के आधार पर किसी परिवीक्षाधीन व्यक्ति की साधारण बर्खास्तगी थी या कलंकपूर्ण बर्खास्तगी।
- निर्णय में स्पष्ट किया गया है कि लैंगिक उत्पीड़न के आरोप गंभीर प्रकृति के हैं तथा आपराधिकता की सीमा तक पहुँचते हैं, अतः इन्हें साधारण सेवा बर्खास्तगी आदेश के माध्यम से निपटाया नहीं जा सकता, अपितु सेवा नियमों के अनुसार नियमित विभागीय जांच की जानी चाहिये।
- न्यायालय ने महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न (POSH) ढाँचे की अखंडता को बरकरार रखते हुए ऐसे गंभीर आरोपों का सामना कर रहे कर्मचारियों के लिये प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों को सुदृढ़ किया।
तथ्य
- अपीलकर्त्ता, डॉ. विजयकुमारन सी.पी.वी. को 12.6.2017 से केरल केंद्रीय विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग में एसोसिएट प्रोफेसर के रूप में नियुक्त किया गया था।
- उनकी नियुक्ति बारह महीने के लिये परिवीक्षा पर थी, जिसे अगले बारह महीनों के लिये बढ़ाया जा सकता था, तथा अनुपयुक्त पाए जाने पर सेवा बर्खास्तगी का प्रावधान भी था।
- कार्यभार ग्रहण करने के कुछ समय बाद ही छात्राओं द्वारा उनके विरुद्ध तीन परिवाद दिनांक 13.7.2017, 14.7.2017, तथा 29.8.2017 को दर्ज कराई गईं।
- विश्वविद्यालय ने इन परिवादों की जांच के लिये UGC विनियम, 2015 के अधीन एक आंतरिक परिवाद समिति (ICC) का गठन किया।
- आंतरिक परिवाद समिति (ICC) ने जांच की और रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें परिवादों को वास्तविक और सुसंगत पाया गया, तथा निष्कर्ष निकाला गया कि अभियुक्तों ने छात्राओं के विरुद्ध लैंगिक अपराध किये थे।
- कार्यकारी परिषद ने 30.11.2017 को अपनी बैठक में आंतरिक परिवाद समिति (ICC) रिपोर्ट पर विचार किया और उनकी सेवाओं को तत्काल बर्खास्त करने का निर्णय लिया, जिसमें यह अभिलिखित किया गया कि उन्होंने विश्वविद्यालय को बदनाम करने वाला गंभीर अवचार किया है।
- बर्खास्तगी आदेश में स्पष्ट रूप से आंतरिक परिवाद समिति रिपोर्ट और कार्य जारी रखने के लिये उनकी अनुपयुक्तता के संबंध में कार्यकारी परिषद के निर्णय का उल्लेख किया गया था।
- अपीलकर्त्ता ने इस बर्खास्तगी को केरल उच्च न्यायालय में चुनौती दी, जिसने बर्खास्तगी को बरकरार रखा।
- व्यथित होकर, अपीलकर्त्ता ने सिविल अपील संख्या 777/2020 में उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया।
सम्मिलित विवाद्यक
- क्या लैंगिक उत्पीड़न के आंतरिक परिवाद समिति (ICC) निष्कर्षों पर आधारित बर्खास्तगी आदेश, साधारण बर्खास्तगी थी या यह प्रथम दृष्टया कलंकपूर्ण था, और क्या परिवीक्षाधीन स्थिति के होते हुए भी इसके लिये नियमित विभागीय जांच की आवश्यकता थी?
न्यायालय की टिप्पणियां
बर्खास्तगी की प्रकृति पर:
- उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि बर्खास्तगी स्पष्ट रूप से कलंकपूर्ण थी, क्योंकि इसमें आंतरिक परिवाद समिति (ICC) की उस रिपोर्ट का स्पष्ट उल्लेख था जिसमें गंभीर अवचार पाया गया था।
- कलंक केवल आदेश से ही नहीं, अपितु बर्खास्तगी आदेश में संदर्भित दस्तावेज़ों से भी उत्पन्न हो सकता है।
दण्डात्मक तत्त्व पर:
- न्यायालय ने दण्डात्मक बर्खास्तगी के लिये सभी तीन तत्त्वों को विद्यमान पाया: सांविधिक विनियमों के अधीन एक औपचारिक आंतरिक परिवाद समिति (ICC) द्वारा जांच, नैतिक अधमता (लैंगिक उत्पीड़न) से जुड़े आरोप, और दोष का पता लगाना।
महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम की आवश्यकताओं पर:
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि लैंगिक उत्पीड़न के आरोप 2013 अधिनियम के अधीन आपराधिकता की सीमा पर हैं और इन्हें केवल बर्खास्तगी के माध्यम से समाप्त नहीं किया जा सकता।
- ऐसी परिवादों को सेवा नियमों के अनुसार नियमित विभागीय जांच के माध्यम से तार्किक निष्कर्ष तक ले जाना चाहिये, जिससे कर्मचारी को अपनी बेगुनाही साबित करने का पूरा अवसर मिल सके।
- कार्यकारी परिषद (EC) ने त्रुटिवश यह मान लिया था कि परिवीक्षाधीन स्थिति में नियमित औपचारिक जांच के बिना बर्खास्तगी की अनुमति होती है।
निर्णयाधार:
- जहाँ कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम के अधीन औपचारिक सांविधिक जांच में किसी परिवीक्षाधीन व्यक्ति को गंभीर अवचार का दोषी पाया जाता है, वहाँ बर्खास्तगी दण्डात्मक होती है और बर्खास्तगी से पहले अनिवार्य नियमित विभागीय जांच आवश्यक हो जाती है।
निष्कर्ष
उच्चतम न्यायालय ने 30.11.2017 के बर्खास्तगी आदेश को अवैध घोषित करते हुए अपास्त कर दिया क्योंकि यह कलंकपूर्ण था और बिना नियमित जांच के जारी किया गया था। न्यायालय ने अपीलकर्त्ता को बहाल करने का निदेश दिया, और बकाया वेतन और विभागीय जांच शुरू करने जैसे परिणामी मामलों पर विश्वविद्यालय प्राधिकारी को निर्णय लेने के लिये छोड़ दिया। यह निर्णय स्थापित करता है कि कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम के गंभीर आरोपों के लिये, चाहे उनकी परिवीक्षाधीन स्थिति कुछ भी हो, नियमित विभागीय जांच के माध्यम से पूर्ण प्रक्रियात्मक सुरक्षा उपायों की आवश्यकता होती है।