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आपराधिक कानून
चश्मदीद गवाह का साक्ष्य उत्कृष्ट गुणवत्ता का होना ज़रूरी
17-Oct-2023
नरेश @ नेहरू बनाम हरियाणा राज्य चश्मदीद गवाह की गवाही में असाधारण रूप से उच्च स्तर की विश्वसनीयता होनी चाहिये। उच्चतम न्यायालय |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
नरेश @ नेहरू बनाम हरियाणा राज्य के मामले में उच्चतम न्यायालय (SC) के हालिया फैसले ने उच्च स्तर की विश्वसनीयता और साख के लिये चश्मदीद गवाह की गवाही की आवश्यकता पर ज़ोर दिया।
नरेश@नेहरू बनाम हरियाणा राज्य मामले की पृष्ठभूमि
- मामले के तथ्य इस बात से संबंधित हैं कि कुछ व्यक्तियों ने एक लड़के पर गोली चलाई थी। घटना स्थल पर पहुँचकर मोहित काला नाम के व्यक्ति का बयान दर्ज किया गया।
- उसने कहा कि:
- उसने अजय और सूरज को धर्मेंद्र के घर की ओर भागते देखा क्योंकि बुलेट मोटरसाइकिल पर तीन युवक उनका पीछा कर रहे थे।
- रवि द्वारा चलायी जा रही बुलेट मोटरसाइकिल के पीछे दो और मोटरसाइकिलें चल रही थीं, जिनमें दो-दो सवार थे और उनके हाथों में डंडे थे।
- इसके बाद, बुलेट मोटरसाइकिल पर बैठा व्यक्ति नीचे उतरा और देसी रिवॉल्वर से अजय पर गोली चला दी, जो उसके सिर में लगी और अजय गिर गया।
- शोर मचाने पर हमलावर अपनी मोटरसाइकिलों पर सवार होकर भाग गए।
- रवि अजय के स्कूल में पढ़ता था और उसका जूनियर था। वह सभी को धमकाता और डराता था।
- अजय का रवि और सूरज से झगड़ा हुआ था और उसने उसे जान से मारने की धमकी दी थी।
- घटना होने पर आईपीसी की धारा 148, 149, 307 और आयुध अधिनियम, 1959 की धारा 25 के तहत प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई थी।
- इसके बाद, अजय की मृत्यु होने पर आईपीसी की धारा 307 के तहत आरोप को उसी अधिनियम की धारा 302 में बदल दिया गया।
- सत्र न्यायालय ने आरोपी व्यक्तियों को दोषी ठहराया, जिसे उच्च न्यायालय ने बरकरार रखा।
- इसलिये, वर्तमान अपील उच्चतम न्यायालय में की गई थी। न्यायालय ने साक्ष्यों की जाँच की तो यह पता चला कि:
- सभी अभियुक्तों की सजा मुख्य रूप से मोहित की गवाही और मोटरसाइकिलों की बरामदगी पर आधारित थी।
- अभियोजन पक्ष की दलील में कई अनियमितताएँ और कमियाँ थीं।
- मोहित ने प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) में अपीलकर्त्ताओं का नाम नहीं लिया था और स्प्लेंडर मोटरसाइकिल के चालक के रूप में नरेश उर्फ नेहरू की पहचान करने में विफल रहा था।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- न्यायाधीश एस. रवींद्र भट और न्यायाधीश अरविंद कुमार ने इस बात पर प्रकाश डाला कि चश्मदीद गवाह की गवाही की उत्कृष्टता को विभिन्न पुष्टि करने वाले कारकों से निकटता से जोड़ा जाना चाहिये, जिसमें बरामदगी, शस्त्रों का उपयोग, आपराधिक विधि, वैज्ञानिक साक्ष्य और विशेषज्ञों की राय शामिल हैं।
- अनिवार्य रूप से, एक चश्मदीद गवाह की उत्कृष्ट गवाही को मामले में अन्य सभी साक्ष्यों के साथ मेल खाना चाहिये, इसलिये न्यायालय ने आरोपी को बरी कर दिया।
चश्मदीद की गवाही
- चश्मदीद गवाह की गवाही से तात्पर्य किसी घटना के उस विवरण से है जो उस व्यक्ति द्वारा प्रदान किया गया हो जिसने इसे प्रत्यक्ष रूप से देखा हो।
चश्मदीद गवाह के साक्ष्य की स्वीकार्यता
- साक्ष्य की स्वीकार्यता का अर्थ है साक्ष्य के मूल्य और विश्वसनीयता का विश्लेषण करना।
- सुदीप कुमार सेन उर्फ बिट्टू बनाम पश्चिम बंगाल राज्य (2016) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि दोषसिद्धि एकमात्र चश्मदीद की असंपुष्ट गवाही पर आधारित हो सकती है यदि यह उत्कृष्ट पाई गई हो।
उत्कृष्ट गवाही
- कुरिया बनाम राजस्थान राज्य (2013) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि आपराधिक न्यायशास्त्र में स्टर्लिंग वर्थ का तात्पर्य उत्कृष्टता के मूल्य और सत्यता से है।
- संदीप उर्फ दीपू बनाम दिल्ली एनसीटी राज्य (2012) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि दोषी को केवल तभी दंडित किया जा सकता है, जब गवाही किसी उत्कृष्ट गवाह द्वारा प्रदान की जाती है, जिसकी गवाही पर बिना पुष्टि के भरोसा किया जा सकता है।
सिविल कानून
उच्चतम न्यायालय ने 26 सप्ताह के गर्भ के समापन की याचिका खारिज कर दी
17-Oct-2023
एक्स बनाम भारत संघ और अन्य उच्चतम न्यायालय ने एक विवाहित महिला की 26 सप्ताह की गर्भावस्था को चिकित्सकीय रूप से समाप्त करने की याचिका को खारिज़ कर दिया क्योंकि यह MTP अधिनियम, 1971 की धारा 3 और 5 का उल्लंघन है। सीजेआई डी. वाई. चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने एक विवाहित महिला की 26 सप्ताह की गर्भावस्था को चिकित्सकीय रूप से समाप्त करने की याचिका को खारिज कर दिया।
- यह आदेश सीजेआई डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जेबी पारदीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की न्यायपीठ ने एक्स बनाम भारत संघ और अन्य के मामले में पारित किया था।
एक्स बनाम भारत संघ और अन्य मामले की पृष्ठभूमि
- याचिकाकर्त्ता सत्ताईस वर्ष की एक विवाहित महिला है, जो 26 सप्ताह की गर्भवती है।
- इन दोनों पति- पत्नी के दो बच्चे हैं।
- याचिकाकर्त्ता का कहना है, कि गर्भावस्था समाप्त होने के बीस सप्ताह बाद तक उसे पता नहीं चला कि वह गर्भवती थी क्योंकि उसे लैक्टेशनल एमेनोरिया नामक बीमारी थी।
- याचिकाकर्त्ता का कहना है कि उसने और उसके पति ने विभिन्न अस्पतालों में गर्भावस्था को चिकित्सकीय रूप से समाप्त करने का प्रयास किया, लेकिन गर्भ का चिकित्सीय समापन अधिनियम, 1971 (MTP Act) के साथ पठित गर्भावस्था का चिकित्सीय समापन नियमावली 2003 (2021 में यथा संशोधित) के कारण वे ऐसा करने में असमर्थ थे।
- याचिकाकर्त्ता ने निम्नलिखित आधार पर अपनी गर्भावस्था की चिकित्सीय समाप्ति के लिये भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 32 के तहत रिट क्षेत्राधिकार का उपयोग करके उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया -
- वह प्रसवोत्तर अवसाद (post-partum depression) से पीड़ित है और उसकी मानसिक स्थिति उसे दूसरे बच्चे को पालने की अनुमति नहीं देती है।
- उनके पति अपने परिवार के एकमात्र कमाने वाले सदस्य हैं और उनकी देखभाल के लिये पहले से ही दो बच्चे हैं।
- 5 अक्टूबर, 2023 को, न्यायाधीश हिमा कोहली और न्यायाधीश बी. वी. नागरत्ना की दो-न्यायाधीशों वाली पीठ ने याचिकाकर्त्ता को अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), नई दिल्ली द्वारा गठित एक मेडिकल बोर्ड के समक्ष पेश होने का निदेश दिया।
- 9 अक्तूबर, 2023 के अपने आदेश द्वारा, उच्चतम न्यायालय ने गर्भावस्था के चिकित्सीय समापन की अनुमति दी।
- इसके बाद, भारत संघ ने 9 अक्तूबर, 2023 के आदेश को वापस लेने के लिये एक आवेदन दायर किया था, जिसमें कहा गया था, कि मेडिकल बोर्ड ने कहा था कि भ्रूण के जन्म लेने की व्यवहार्य संभावना है।
- न्यायाधीश हिमा कोहली ने कहा कि उनकी न्यायिक अंतरात्मा उन्हें भ्रूण के जीवित रहने की संभावना के बारे में नवीनतम चिकित्सा रिपोर्ट के आलोक में गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति नहीं देती है, जबकि न्यायाधीश बी. वी. नागरत्ना ने कहा कि उन्हें इसमें हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं मिला। न्यायालय द्वारा उचित आदेश पारित किया गया।
- असहमति को देखते हुए मामले को विचार के लिये भारत के मुख्य न्यायाधीश डी. वाई. चंद्रचूड़, न्यायाधीश जे. बी. पारदीवाला और न्यायाधीश मनोज मिश्रा की बड़ी बेंच के पास भेज दिया गया है।
- तीन न्यायाधीशों वाली न्यायपीठ ने भारत के संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग करते हुए कहा कि गर्भावस्था के चिकित्सीय समापन की अनुमति नहीं दी जा सकती।
न्यायालय की टिप्पणियाँ
- न्यायालय ने कहा कि चूँकि गर्भावस्था की अवधि चौबीस सप्ताह से अधिक हो गई है और अब छब्बीस सप्ताह और पाँच दिन व्यतीत हो चुके हैं, इसलिये याचिकाकर्त्ता को गर्भ को समाप्त करने की अनुमति देना MTP अधिनियम, 1971 की धारा 3 और 5 का उल्लंघन होगा।
- न्यायालय ने कहा कि माँ को तात्कालिक रूप से कोई खतरा नहीं है और इस मामले में मेडिकल बोर्ड द्वारा भ्रूण में कोई बड़ी असामान्यता का निदान नहीं किया गया है।
- न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि इस मामले में सभी चिकित्सा प्रक्रियाओं की लागत राज्य द्वारा वहन की जाएगी और याचिकाकर्त्ता का अंतिम अधिकार होगा कि वह बच्चे के जन्म पर उसे रखना चाहती है या उसे गोद लेने के लिये छोड़ देना चाहती है।
शामिल कानूनी प्रावधान
MTP अधिनियम, 1971
- परिचय:
- गर्भावस्था की समाप्ति MTP अधिनियम और इसके तहत बनाए गए नियमों द्वारा नियंत्रित होती है।
- MTP अधिनियम एक प्रगतिशील कानून है जिसमें 8 धाराएँ हैं, जो गर्भ को समाप्त करने के तरीके को नियंत्रित करती हैं।
- MTP अधिनियम और इसके 2003 के नियम उन अविवाहित महिलाओं पर रोक लगाते हैं, जो 20 सप्ताह से 24 सप्ताह के बीच गर्भवती हुई हैं, वे पंजीकृत चिकित्सा पेशेवरों की मदद से गर्भपात करा सकती हैं।
MTP अधिनियम, 1971 की धारा 3
- इस अधिनियम की धारा 3 उस स्थिति से संबंधित है जिसमें पंजीकृत चिकित्सा पेशेवरों द्वारा गर्भावस्था को समाप्त किया जा सकता है। यह कहती है कि –
- गर्भ रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा-व्यवसायियों द्वारा कब समाप्त किया जा सकता है-
(1) भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) में किसी बात के होते हुए भी, यदि कोई गर्भ किसी रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा-व्यवसायी द्वारा इस अधिनियम के उपबंधों के अनुसार समाप्त किया जाए तो वह चिकित्सा-व्यवसायी उस संहिता के अधीन या किसी अन्य तत्समय प्रवृत्त विधि के अधीन किसी अपराध का दोषी नहीं होगा।
(2) उपधारा (4) के उपबंधों के अधीन रहते हुए यह है कि-
जहाँ गर्भ 12 सप्ताह से अधिक का न हो, वहाँ यदि ऐसे चिकित्सा-व्यवसायी ने, अथवा
जहाँ गर्भ बारह सप्ताह से अधिक का हो किंतु बीस सप्ताह से अधिक का न हो, वहाँ यदि दो से अन्यून रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा-व्यवसायियों ने सद्भावपूर्वक यह राय कायम की हो कि-
(i) गर्भ के बने रहने से गर्भवती स्त्री का जीवन जोखिम में पड़ेगा अथवा उसके शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर क्षति की जोखिम होगी; अथवा
(ii) इस बात का पर्याप्त जोखिम है कि यदि बच्चा पैदा हुआ तो वह ऐसी शारीरिक या मानसिक अप्रसामान्यताओं से पीड़ित होगा कि वह गंभीर रूप से विकलांग हो,
- तो वह गर्भ रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा-व्यवसायी द्वारा समाप्त किया जा सकेगा।
- स्पष्टीकरण 1- जहाँ किसी गर्भ के बारे में गर्भवती स्त्री द्वारा यह अभिकथन किया जाए कि वह बलात्संग द्वारा हुआ तो ऐसे गर्भ के कारण होने वाले मनस्ताप के बारे में यह उपधारणा की जाएगी कि वह गर्भवती स्त्री के मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर क्षति है।
- स्पष्टीकरण 2- जहाँ किसी विवाहिता स्त्री या उसके पति द्वारा बच्चों की संख्या सीमित रखने के प्रयोजन से उपयोग में लाई गई किसी प्रयुक्ति या व्यवस्था की असफलता के फलस्वरूप कोई गर्भ हो जाए, वहाँ ऐसे अवांछित गर्भ के कारण होने वाले मनस्ताप के बारे में यह उपधारणा की जा सकेगी कि वह गर्भवती स्त्री के मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर क्षति है ।
(3) इस बात का अवधारण करने में कि गर्भ के बने रहने से उपधारा (2) में यथावर्णित स्वास्थ्य नुकसान का जोखिम होगा या नहीं, गर्भवती स्त्री की वास्तविक या पूर्वानुमेय परिस्थितियों का विचार किया जा सकेगा।
(4) (क) किसी ऐसी स्त्री का गर्भ, जिसने अठारह वर्ष की आयु प्राप्त न की हो, अथवा जिसने अठारह वर्ष की आयु प्राप्त कर ली हो किंतु जो मानसिक रूप से बीमार हो, उसके संरक्षण हेतु लिखित सम्मति से ही समाप्त किया जायेगा, अन्यथा नहीं ।
(ख) खण्ड (क) में अन्यथा उपबंधित के सिवाय, कोई गर्भ गर्भवती स्त्री की सम्मति से ही समाप्त किया जायेगा, अन्यथा नहीं ।
धारा 5, MTP अधिनियम, 1971
- इस अधिनियम की धारा 5 धारा 3 और 4 के लागू होने से संबंधित है। इसमें कहा गया है –
धारा 3 और 4 कब लागू नहीं होगी-
(1) धारा 4 के उपबंध और धारा 3 की उपधारा (2) के उपबंधों का उतना भाग जितना गर्भ की अवधि और दो से अन्यून रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा-व्यवसायियों की राय के बारे में है, रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा-व्यवसायी द्वारा गर्भ की उस दशा में समापन को लागू नहीं होगा जब उसने सद्भावपूर्वक यह राय कायम की हो, कि उस गर्भ का समापन गर्भवती स्त्री के जीवन को बचाने के लिये तुरंत आवश्यक है ।
(2) भारतीय दंड संहिता (1860 का 45) में किसी बात के होते हुए भी, किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा गर्भ का समापन, जो रजिस्ट्रीकृत चिकित्सा व्यवसायी नहीं है, उस संहिता के अधीन ऐसा अपराध होगा, जो कठोर कारावास से, जिसकी अवधि दो वर्ष से कम नहीं होगी, किंतु जो सात वर्ष तक बढाया जा सकेगा, दंडनीय अपराध होगा और वह संहिता इस सीमा तक उपांतरित हो जाएगी ।
MTP अधिनियम के अधीन ऐतिहासिक मामले
- सुचिता श्रीवास्तव बनाम चंडीगढ़ प्रशासन (2009) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि एक महिला की प्रजनन स्वायत्तता का अधिकार भारत के संविधान के अनुच्छेद 21 का एक आयाम है।
- एक्स बनाम प्रधान सचिव, स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग, जीएनसीटीडी (2022) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि इस अधिनियम का लाभ एकल और विवाहित दोनों महिलाओं को समान रूप से मिलता है।
भारत के संविधान का अनुच्छेद 32
- अनुच्छेद 32 एक मौलिक अधिकार है जो भारत के संविधान के भाग III द्वारा प्रदत्त अधिकारों को लागू करने के उपायों से संबंधित है। यह कहता है कि –
(1) भाग III द्वारा प्रदत्त अधिकारों के प्रवर्तन के लिये उचित कार्यवाही द्वारा उच्चतम न्यायालय में जाने के अधिकारों को सुनिश्चित करता है,
(2) उच्चतम न्यायालय के पास प्रदत्त अधिकारों में से किसी के प्रवर्तन के लिये निदेश या आदेश या रिट जारी करने की शक्ति होगी, जिसमें बंदी प्रत्यक्षीकरण, परमादेश, निषेध, अधिकार-पृच्छा और उत्प्रेषण लेख की प्रकृति की रिट, जो भी उचित हो, शामिल हैं।
(3) खंड (1) और (2) द्वारा उच्चतम न्यायालय को प्रदत्त शक्तियों पर प्रतिकूल प्रभाव डाले बिना, संसद कानून द्वारा किसी अन्य न्यायालय को अपने अधिकार क्षेत्र की स्थानीय सीमाओं के भीतर खंड (2) के तहत उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रयोग की जाने वाली सभी या किसी भी शक्ति का प्रयोग करने का अधिकार दे सकती है।
(4) इस अनुच्छेद द्वारा सुनिश्चित अधिकार को इस संविधान द्वारा अन्यथा प्रदान किये जाने के अतिरिक्त निलंबित नहीं किया जायेगा।