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सिविल कानून

अनुशासनात्मक कार्यवाही में अनियमितता

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 08-May-2024

मो. असगर अली बनाम गृह सचिव के माध्यम से भारत संघ एवं अन्य

"केवल आशंकित पूर्वाग्रह के आधार पर विभागीय जाँच को रद्द करना स्वीकार्य नहीं होगा।"

न्यायमूर्ति ओम प्रकाश शुक्ला

स्रोत: इलाहबाद उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने माना कि याचिकाकर्त्ता, केवल अनुशासनात्मक कार्यवाही में अनियमितता के आरोप लगाकर और यह दिखाकर कि इससे उसके प्रति पूर्वाग्रह उत्पन्न हुआ है, अपने उत्तरदायित्व से नहीं बच सकता।

मो. असगर अली बनाम गृह सचिव के माध्यम से भारत संघ एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी ?

  • याचिकाकर्त्ता को 12 अप्रैल, 1987 को CISF में कांस्टेबल के पद पर नियुक्त किया गया था।
  • 1996 में वह चुनाव ड्यूटी पर था तथा आरोप था कि याचिकाकर्त्ता को क्वार्टर गार्ड में रात 9 बजे से सुबह 5 बजे तक ड्यूटी पर तैनात किया गया था। हवलदार मेजर ने लगभग 2.00 बजे क्वार्टर गार्ड की जाँच की और याचिकाकर्त्ता वहाँ उपस्थित नहीं था तथा अपने कमरा नंबर 22 में राइफल बगल में रखकर सोता हुआ पाया गया।
  • उसे निलंबित कर दिया गया तथा आरोप-पत्र दे दिया गया।
  • मामले में आई.पी. सिंह, निरीक्षक को जाँच अधिकारी नियुक्त किया गया।
  • हालाँकि याचिकाकर्त्ता ने उच्च प्राधिकारी से जाँच अधिकारी को बदलने का अनुरोध किया। याचिकाकर्त्ता ने जाँच अधिकारी पर पक्षपातपूर्ण व्यवहार करने का आरोप लगाया है।
  • जाँच अधिकारी बदलने का उसका अनुरोध अस्वीकृत कर दिया गया तथा याचिकाकर्त्ता ने जाँच की कार्यवाही में भाग लिया।
  • इसके बाद याचिकाकर्त्ता का बयान दर्ज किया गया और जाँच रिपोर्ट की एक प्रति उसे दी गई तथा अपना पक्ष रखने का मौका दिया जा रहा है।
  • स्पष्टीकरण उसके पक्ष में नहीं रहा तथा उसे 1996 में सेवामुक्त कर दण्डित किया गया।
  • उसने उक्त आदेश के विरुद्ध अपील दायर की, जिसे 1997 में अपीलीय प्राधिकारी ने खारिज कर दिया। उक्त अपीलीय आदेश के विरुद्ध याचिकाकर्त्ता ने एक पुनरीक्षण याचिका को प्राथमिकता दी, जिसे 1998 में भी खारिज कर दिया गया।
  • वर्तमान अपील उच्च न्यायालय के समक्ष दायर की गई थी तथा याचिकाकर्त्ता ने इन तीनों आदेशों को चुनौती दी थी।
  • याचिकाकर्त्ता के दो मुख्य तर्क ये थे कि:
    • याचिकाकर्त्ता ने पक्षपातपूर्ण होने के आधार पर जाँच अधिकारी को बदलने के लिये उच्च अधिकारियों को अभ्यावेदन भेजा था, लेकिन इसकी अनुमति नहीं दी गई।
    • याचिकाकर्त्ता को बचाव का पर्याप्त अवसर प्रदान नहीं किया गया, क्योंकि उसको दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं कराए गए थे।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • उच्च न्यायालय ने माना कि याचिकाकर्त्ता ने कार्यवाही में भाग लिया और साथ ही सात विभागीय साक्षियों से प्रतिपरीक्षा की तथा विभागीय कार्यवाही के दौरान कई दस्तावेज़ों पर विश्वास जताया। उक्त कार्यवाही के दौरान याचिकाकर्त्ता द्वारा पक्षपात की कोई रिपोर्ट नहीं की गई थी।
  • वास्तव में पूर्वाग्रह केवल आशंका या यहाँ तक कि उचित संदेह पर आधारित नहीं होना चाहिये। न्यायालय ने जाँच कार्यवाही में जाँच अधिकारी की नियुक्ति में किसी पूर्वाग्रह या पक्षपात का कोई आधार नहीं पाया।
  • दूसरे तर्क के संबंध में न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्त्ता ने पूछताछ के दौरान स्वीकार किया है कि उसे सभी दस्तावेज़ प्राप्त हुए थे तथा उसे सभी अभिलेखों के निरीक्षण की भी अनुमति दी गई थी।
  • बिना किसी विशिष्ट गणना के दस्तावेज़ों की आपूर्ति न करने से संबंधित याचिकाकर्त्ता का तर्क योग्यता रहित है और इस प्रकार याचिकाकर्त्ता का वर्तमान आधार विफल हो जाता है।
  • इसका कोई आधार नहीं है और न ही इसका ज़रा भी उल्लेख है कि इससे याचिकाकर्त्ता पर कैसे प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है

इस मामले में उद्धृत महत्त्वपूर्ण निर्णय क्या हैं?

  • बी.सी. चतुवेर्दी बनाम भारत संघ एवं अन्य (1995):
    • जब किसी लोक सेवक द्वारा कदाचार के आरोप की जाँच की जाती है, तो न्यायालय/न्यायाधिकरण, यह निर्धारित करने के लिये चिंतित होता है कि क्या जाँच एक सक्षम अधिकारी द्वारा की गई थी या क्या प्राकृतिक न्याय के नियमों का पालन किया गया है।
    • न्यायालय/न्यायाधिकरण वहाँ हस्तक्षेप कर सकता है, जहाँ प्राधिकारी ने माना है कि अपराधी अधिकारी के विरुद्ध कार्यवाही, प्राकृतिक न्याय के नियमों के साथ असंगत है या जाँच के तरीके को निर्धारित करने वाले सांविधिक नियमों का उल्लंघन है या जहाँ निष्कर्ष या जहाँ अनुशासनात्मक प्राधिकारी बिना किसी साक्ष्य के निष्कर्ष पर पहुँचा है।
  • प्रबंध निदेशक, ECIL, हैदराबाद बनाम बी. करुणाकर (1993):
    • उचित अवसर का सिद्धांत और प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत विधि के शासन को बनाए रखने तथा व्यक्ति को उसके उचित अधिकारों की पुष्टि करने में सहायता करने के लिये विकसित हुए हैं।
    • वे न तो आह्वान करने के लिये मंत्र हैं और न ही सभी विविध अवसरों पर किये जाने वाले अनुष्ठान हैं।

इस मामले में क्या विधिक प्रावधान निहित हैं?

केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा नियम, 1969 का नियम 7-A:

यह धारा डिप्टी कमांडेंट के कर्त्तव्यों से संबंधित है। यह प्रकट करता है कि-

(1)  डिप्टी कमांडेंट, कमांडेंट को उसके कर्त्तव्यों के निर्वहन में सहायता करेगा और जहाँ उसे यूनिट के प्रमुख के रूप में रखा गया है, वह एक कमांडेंट के सभी कर्त्तव्यों का निर्वहन करेगा तथा केवल उन वित्तीय शक्तियों का प्रयोग करेगा, जो प्रासंगिक नियमों के अधीन उसे सौंपी गई हैं।

(2) डिप्टी कमांडेंट अपने अधीनस्थ कर्मियों की दक्षता, अनुशासन और मनोबल के लिये उत्तरदायी होगा तथा उसे सौंपे गए उपक्रम या उसके हिस्से की सुरक्षा के लिये भी उत्तरदायी होगा।

केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल अधिनियम, 1968 की धारा 9(3):

  • यह धारा अपील एवं पुनरीक्षण से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि केंद्र सरकार इस धारा की धारा 8, उपधारा 8 (2), उपधारा (2A) या उपधारा (2B) के अधीन किसी भी कार्यवाही के रिकॉर्ड की मांग कर सकती है तथा उसकी जाँच कर सकती है, जाँच करेगी या ऐसी जाँच कराएगी और इस अधिनियम के प्रावधानों के अधीन रहते हुए ऐसा आदेश पारित कर सकती है, जैसा वह उचित समझे।
  • बशर्ते कि उप-धारा (2) या उप-धारा (3) के अधीन बढ़ा हुआ ज़ुर्माना लगाने का कोई आदेश तब तक नहीं दिया जाएगा जब तक कि ऐसे आदेश से प्रभावित व्यक्ति को सुनवाई का उचित अवसर नहीं दिया गया हो।