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सांविधानिक विधि

मूल ढाँचा सिद्धांत

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 12-Dec-2023

स्रोत: इंडियन एक्सप्रेस

परिचय:

वर्ष 2023 केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973) मामले में दिये गए ऐतिहासिक निर्णय की 50वीं वर्षगाँठ है। इस मामले ने भारत के संविधान, 1950 के मूल ढाँचा सिद्धांत को मान्यता दी जिसका किसी भी मामले में उल्लंघन नहीं किया जा सकता है। मूल ढाँचा सिद्धांत एक न्यायिक नवाचार है जो संविधान के मूल सिद्धांतों को मनमाने संशोधनों से बचाने के लिये उभरा है। भारतीय न्यायपालिका द्वारा विकसित यह सिद्धांत, कुछ सिद्धांतों को अपरिवर्तनीय के रूप में स्थापित करता है, जो संविधान का आधार बनता है।

बुनियादी ढाँचा सिद्धांत का विकास कैसे हुआ?

  • केशवानंद भारती बनाम केरल राज्य (1973):
    • बुनियादी ढाँचा सिद्धांत की उत्पत्ति का पता वर्ष 1973 में केशवानंद भारती के ऐतिहासिक मामले से लगाया जा सकता है।
    • उच्चतम न्यायालय ने 7:6 के बेहद कम बहुमत में माना कि संसद की संशोधन शक्ति पर अंतर्निहित सीमाएँ हैं।
    • मुख्य न्यायाधीश एस. एम. सीकरी ने निर्णय सुनाते हुए यह विचार प्रतिपादित किया कि यद्यपि संसद के पास संविधान में संशोधन करने का अधिकार है, किंतु वह इसके मूल ढाँचे को नहीं बदल सकती है।
  • अनुवर्ती मामलों में सिद्धांत की पुष्टि:
    • बुनियादी ढाँचा सिद्धांत को बाद के कई मामलों में पुष्टि और स्पष्ट किया गया है, जिससे संविधानिक सिद्धांत के रूप में इसकी स्थिति मज़बूत हुई है।
    • इनमें इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण (1975), मिनर्वा मिल्स बनाम भारत संघ (1980) और वामन राव बनाम भारत संघ (1980) मामले उल्लेखनीय हैं।

बुनियादी ढाँचे के घटक क्या हैं?

मूल ढाँचा सिद्धांत संशोधन की पहुँच से परे, भारतीय संविधान के मूलभूत स्तंभों के रूप में कुछ विशेषताओं की पहचान करता है। ये घटक लोकतंत्र, न्याय और समानता के सार को बनाए रखने के लिये महत्त्वपूर्ण हैं।

  • संविधान की सर्वोच्चता:
    • संविधान की सर्वोच्चता मूल ढाँचा सिद्धांत का एक प्रमुख सिद्धांत है।
    • कोई भी संशोधन जो इस सर्वोच्चता को कम करने या कमज़ोर करने का प्रयास करता है उसे मूल ढाँचे का उल्लंघन माना जाता है।
    • केशवानंद भारती मामले में इस बात पर ज़ोर दिया गया था कि संविधान देश का सर्वोच्च कानून है और कोई भी संशोधन इसकी मूल ढाँचे को नहीं बदल सकता है।
  • सरकार का गणतांत्रिक और लोकतांत्रिक स्वरूप:
    • मूल संरचना में सरकार का गणतांत्रिक और लोकतांत्रिक स्वरूप शामिल है, जो यह सुनिश्चित करता है कि लोगों की इच्छा राज्य के कामकाज में प्रतिबिंबित हो।
    • इस अवधारणा पर इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण (1975) के मामले में चर्चा की गई थी।
  • धर्मनिरपेक्षता:
    • धर्मनिरपेक्षता मूल संरचना का एक अभिन्न अंग है, जो धर्म के मामलों में राज्य की निष्पक्षता सुनिश्चित करता है।
    • न्यायपालिका ने लगातार माना है कि धार्मिक राज्य स्थापित करने या धर्मनिरपेक्ष ढाँचे को नष्ट करने वाला कोई भी संशोधन असंवैधानिक होगा।
    • न्यायालय ने एस. आर. बोम्मई बनाम भारत संघ (1994) के मामले में इस अवधारणा का अवलोकन किया।
  • संघीय ढाँचा:
    • संविधान का संघीय ढाँचा, केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति संतुलन की एक बुनियादी विशेषता माना जाता है।
    • इस संतुलन को भंग करने का कोई भी प्रयास बुनियादी ढाँचे पर हमले के रूप में देखा जाएगा।
  • शक्तियों का पृथक्करण:
    • मूल संरचना में विधायी, कार्यकारी और न्यायिक शाखाओं के बीच शक्तियों का पृथक्करण शामिल है।
    • ऐसे संशोधन जो इस नाज़ुक संतुलन का उल्लंघन करते हैं और शक्ति को एक शाखा में अत्यधिक केंद्रित करते हैं, न्यायिक जाँच के प्रति संवेदनशील होते हैं।
  • न्यायिक समीक्षा:
    • न्यायिक समीक्षा भारतीय संविधान का एक अंतर्निहित हिस्सा है, जो न्यायपालिका को कार्यकारी और विधायी शाखाओं के कार्यों की समीक्षा करने की अनुमति देता है।
  • स्वतंत्र न्यायपालिका:
    • एक स्वतंत्र न्यायपालिका सरकार की कार्यकारी और विधायी शाखाओं की शक्तियों पर जाँच का काम करती है।
    • यह सुनिश्चित करती है कि ये शाखाएँ अपने संविधानिक अधिकार का उल्लंघन न करें और कानून के शासन के अनुसार कार्य करें।
    • न्यायपालिका को अक्सर संविधान के संरक्षक के रूप में देखा जाता है। इसकी भूमिका में संविधान की व्याख्या करना, संविधानिक विवादों को हल करना और यह सुनिश्चित करना शामिल है कि सरकारी कार्य संविधानिक सिद्धांतों का अनुपालन करते हैं।
    • एस. सी. एडवोकेट्स-ऑन-रिकॉर्ड एसोसिएशन बनाम भारत संघ (2015) के मामले में, उच्चतम न्यायालय ने उच्चतम न्यायालय और उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्तियों में न्यायपालिका की स्वतंत्रता को बनाए रखने के लिये राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग अधिनियम, 2014 (NJAC) की संवैधानिकता को रद्द कर दिया।

निष्कर्ष:

मूल ढाँचा सिद्धांत भारतीय संविधान के लचीलेपन और अनुकूलन क्षमता के प्रमाण के रूप में उभरता है। यह उन मूल सिद्धांतों की रक्षा करता है जो राष्ट्र की नींव बनाते हैं। जबकि सिद्धांत को चुनौतियों और आलोचनाओं का सामना करना पड़ा है, लोकतंत्र, न्याय व समानता के आदर्शों को बनाए रखने में इसकी भूमिका के महत्त्व को कम नहीं किया जा सकता है।