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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

अभियुक्त के अपराध की उपधारणा

 21-Mar-2024

सुरेश प्रसाद बनाम झारखंड राज्य

एक बार जब भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304B का मूल संघटक अभियोजन पक्ष द्वारा सिद्ध कर दिया जाता है तो न्यायालय अभियुक्त के अपराध की उपधारणा करेगा।

न्यायमूर्ति रत्नाकर भेंगरा और अंबुज नाथ

स्रोत: झारखंड उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, झारखंड उच्च न्यायालय ने सुरेश प्रसाद बनाम झारखंड राज्य के मामले में कहा है कि एक बार जब भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 304B का मूल संघटक अभियोजन पक्ष द्वारा सिद्ध कर दिया जाता है तो न्यायालय अभियुक्त के अपराध की उपधारणा करेगा।

सुरेश प्रसाद बनाम झारखंड राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अभियोजन का मामला सूचक गुप्तचर द्वारिका महतो की लिखित रिपोर्ट के आधार पर शुरू किया गया था, जिसमें आरोप लगाया गया था कि उसकी बेटी लखिया देवी का विवाह एक वर्ष पहले अपीलकर्त्ता से हिंदू संस्कार और रीति-रिवाज़ के अनुसार हुआ था।
  • विवाह की तारीख से पाँच महीने बाद, अपीलकर्त्ता ने अपने परिवार के सदस्यों के साथ मिलकर रंगीन टेलीविज़न और मोटरसाइकिल की मांग को पूरा करने के लिये उसे प्रताड़ित करना शुरू कर दिया और 24 मार्च, 2011 को, वह अपने वैवाहिक घर में मृत पाई गई।
  • जाँच के बाद, पुलिस ने घटना को सत्य पाया और अपीलकर्त्ता के विरुद्ध IPC की धारा 304B के तहत आरोप पत्र प्रस्तुत किया।
  • ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्त्ता को IPC की धारा 304B के तहत अपराध का दोषी ठहराया और इस प्रकार, उसे 10,000 रुपए के ज़ुर्माने के साथ आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई तथा ज़ुर्माना अदा न करने पर उसे दी गई सज़ा के अतिरिक्त आगे एक वर्ष के कठोर कारावास भुगतने का निर्देश दिया गया।
  • इस निर्णय के विरुद्ध अपीलकर्त्ता ने झारखंड उच्च न्यायालय के समक्ष अपील दायर की।
  • तद्नुसार, सज़ा में संशोधन के साथ यह अपील को आंशिक रूप से स्वीकार किया गया।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायमूर्ति रत्नाकर भेंगरा और न्यायमूर्ति अंबुज नाथ की पीठ ने कहा कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 113B का प्रावधान विधायिका के न्यायालय की ओर से अनिवार्य आवेदन करने के आशय को प्रकट करता है, ताकि यह माना जा सके कि मृत्यु उस व्यक्ति द्वारा की गई है जिसने महिला को दहेज की मांग के लिये क्रूरता दिखाई और उसका उत्पीड़न किया था।
  • आगे यह माना गया कि एक बार IPC की धारा 304B का मूल संघटक अभियोजन पक्ष द्वारा सिद्ध कर दिया जाता है तो न्यायालय अभियुक्त के अपराध की उपधारणा करेगा। इस स्तर पर, अपराध की इस उपधारणा का खंडन करने और अपनी बेगुनाही साबित करने का भार अभियुक्त पर आ जाता है।

इसमें कौन-से प्रासंगिक विधिक प्रावधान शामिल हैं?

IPC की धारा 304B:

  • यह धारा दहेज हत्या से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि -
    (1) जहाँ किसी स्त्री की मृत्यु किसी दाह या शारीरिक क्षति द्वारा कारित की जाती है या उसके विवाह के सात वर्ष के भीतर सामान्य परिस्थितियों से अन्यथा हो जाती है और यह दर्शित किया जाता है कि उसकी मृत्यु के कुछ पूर्व उसके पति ने या उसके पति के किसी नातेदार ने, दहेज की किसी मांग के लिये, या उसके संबंध में, उसके साथ क्रूरता की थी या उसे तंग किया था वहाँ ऐसी मृत्यु को “दहेज मृत्यु” कहा जाएगा और ऐसा पति या नातेदार उसकी मृत्यु कारित करने वाला समझा जाएगा।
    स्पष्टीकरण– इस उपधारा के प्रयोजनों के लिये "दहेज" का वही अर्थ है जो दहेज प्रतिषेध अधिनियम, 1961  की धारा 2 में है।
    (2) जो कोई दहेज मृत्यु कारित करेगा वह कारावास से, जिसकी अवधि सात वर्ष से कम की नहीं होगी किंतु जो आजीवन कारावास की हो सकेगी, दण्डित किया जाएगा।
  • बंसीलाल बनाम हरियाणा राज्य (2011) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने माना कि, IPC की धारा 304B के प्रावधान को आकर्षित करने के लिये, अपराध के मुख्य तत्वों में से एक जिसे स्थापित करना आवश्यक है, वह यह है कि उसकी मृत्यु के ठीक पहले दहेज की मांग को लेकर उसके साथ क्रूरता और उत्पीड़न किया गया।

IEA की धारा 113B:

  • IEA की धारा 113B दहेज हत्या की उपधारणा से संबंधित है।
  • दहेज हत्या के मामले में त्वरित न्याय प्रदान करने के लिये इस धारा को दहेज प्रतिषेध (संशोधन) अधिनियम, 1986 द्वारा जोड़ा गया था।
  • जब प्रश्न यह है कि किसी व्यक्ति ने किसी स्त्री की दहेज हत्या की है और यह दर्शित किया जाता है कि मृत्यु के कुछ पूर्व ऐसे व्यक्ति ने दहेज की किसी मांग के लिये, या उसके संबंध में उस स्त्री के साथ क्रूरता की थी या उसको तंग किया था तो न्यायालय यह उपधारणा करेगा कि ऐसे व्यक्ति ने दहेज मृत्यु कारित की थी। इस धारा के प्रयोजनों के लिये "दहेज मृत्यु" का वही अर्थ है जो भारतीय दण्ड संहिता की धारा 304B में है।
  • ऐसे मामलों में, अभियोजन पक्ष को यह सिद्ध करना होता है कि दहेज हत्या हुई है, और फिर अपनी बेगुनाही सिद्ध करने की ज़िम्मेदारी अभियुक्त पर आ जाती है।

आपराधिक कानून

हत्या के मामलों में परिहार

 21-Mar-2024

नवास @ मुलानावास बनाम केरल राज्य

न्यायालय ने उन कारकों को संक्षेप में प्रस्तुत किया, जिन पर न्यायालय ने सज़ा में परिहार मांगने से पहले दोषी की सज़ा की अवधि तय करते समय विचार किया था।

न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, के.वी. विश्वनाथन और संदीप मेहता

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, उच्चतम न्यायालय ने नवास @ मुलानावास बनाम केरल राज्य के मामले में कुछ कारकों को संक्षेप में प्रस्तुत किया, जिन पर न्यायालय ने सज़ा में परिहार मांगने से पहले दोषी की सज़ा की अवधि तय करते समय विचार किया था।

नवास @ मुलानावास बनाम केरल राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, ट्रायल कोर्ट ने अपीलकर्त्ता (एकमात्र अभियुक्त) को भारतीय दण्ड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 302 के तहत दण्डनीय अपराधों के लिये दोषी पाया।
  • उपरोक्त कृत्य कारित करने के बाद अभियुक्त ने आत्महत्या करने का प्रयत्न किया।
  • ट्रायल कोर्ट ने IPC की धारा 302 के तहत दण्डनीय अपराध के लिये अभियुक्त को मृत्युदण्ड की सज़ा सुनाई।
  • जब मामला केरल उच्च न्यायालय के समक्ष पुष्टि के लिये गया, तो उच्च न्यायालय ने दोषसिद्धि की पुष्टि करते हुए सज़ा में संशोधन किया।
  • मृत्युदण्ड को संशोधित किया गया और इसे बदलकर आजीवन कारावास में बदल दिया गया, साथ ही निर्देश दिया गया कि अभियुक्त को जीवनकालीन कारावास में नहीं भेजा जाएगा, बल्कि पूर्व से हो चुकी सज़ा के साथ मिलाकर कुल 30 वर्ष की सज़ा निर्धारित की जाएगी।
  • इससे व्यथित होकर अपीलकर्त्ता ने उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की।
  • अपील को आंशिक रूप से स्वीकार करते हुए उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालय के निर्णय को बरकरार रखा।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

न्यायमूर्ति बी.आर. गवई, के.वी. विश्वनाथन और संदीप मेहता की पीठ ने कहा कि उदाहरण के तौर पर मामले के लिये सबसे उपयुक्त वर्षों की संख्या तक पहुँचने की प्रक्रिया में, दोषी को सज़ा से गुज़रना होगा, जिसके पहले परिहार की शक्तियों का उपयोग किया जा सकता है, कुछ प्रासंगिक कारक जिन्हें न्यायालय ध्यान में रखते हैं, वे हैं: -

(a) उस अपराध के पीड़ित मृतकों की संख्या और उनकी आयु व लिंग।

(b) लैंगिक उत्पीड़न सहित क्षति की प्रकृति, यदि कोई हो।

(c) जिस उद्देश्य से अपराध किया गया था।

(d) क्या अपराध तब किया गया था जब दोषी किसी अन्य मामले में ज़मानत पर था।

(e) अपराध की पूर्वचिंतित प्रकृति।

(f) अपराधी और पीड़ित के बीच संबंध।

(g) विश्वास का दुरुपयोग, यदि कोई हो।

(h) आपराधिक इतिहास और क्या दोषी को रिहा किया गया तो वह समाज के लिये खतरा होगा।

न्यायालय ने अभियुक्त की आयु, सुधार की संभावना और पश्चातापपूर्ण आचरण जैसे सकारात्मक कारकों को भी सूचीबद्ध किया। कुछ सकारात्मक कारक हैं:

दोषी की आयु।

दोषियों के सुधार की संभावना।

दोषी कोई पेशेवर हत्यारा नहीं है।

अभियुक्त की सामाजिक-आर्थिक स्थिति।

अभियुक्त के परिवार की संरचना।

पश्चाताप व्यक्त करने वाला आचरण।

न्यायालय ने आगे कहा कि सज़ा की अवधि तय करने के लिये कोई स्ट्रेटजैकेट फॉर्मूला (एक गणितीय सूत्र) नहीं है। हालाँकि, न्यायालय ने यह भी कहा कि इस विवेकाधिकार का प्रयोग उचित आधार पर किया जाना चाहिये।

परिहार क्या है?

परिचय:

  • परिहार सामान्यतः उस सज़ा का निलंबन करने या परिहार करने को संदर्भित करती है, जो किसी अपराध के लिये दोषी ठहराए गए व्यक्ति को दी गई है, तथा दूसरे शब्दों में कई कारकों और विचारों में, सज़ा की प्रकृति को प्रभावित किये बिना यह केवल सज़ा की अवधि में कमी को प्रदर्शित करती है।

सांविधिक प्रावधान:

  • दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 432 सज़ा को निलंबन करने या परिहार करने की शक्ति से संबंधित है। इसमें कहा गया है कि -
    (1) जब किसी व्यक्ति को किसी अपराध के लिये दण्डादेश दिया जाता है, तब समुचित सरकार किसी समय, शर्तों के बिना या ऐसी शर्तों पर जिन्हें दण्डादिष्ट व्यक्ति स्वीकार करे, उसके दण्डादेश के निष्पादन का निलंबन या जो दण्डादेश उसे दिया गया है उसके संपूर्ण या किसी भाग का परिहार कर सकती है।
    (2) जब कभी समुचित सरकार से दण्डादेश के निलंबन या परिहार के लिये आवेदन किया जाता है, तब समुचित सरकार उस न्यायालय के पीठासीन न्यायाधीश से, जिसके समक्ष दोषसिद्धि हुई थी या जिसके द्वारा उसकी पुष्टि की गई थी, अपेक्षा कर सकेगी कि वह इस बारे में कि आवेदन मंज़ूर किया जाए या नामंज़ूर किया जाए, अपनी राय ऐसी राय के लिये अपने कारणों सहित कथित करे और अपनी राय के कथन के साथ विचारण के अभिलेख की, या उसके ऐसे अभिलेख की, जैसा विद्यमान हो, प्रमाणित प्रतिलिपि भी भेजे।
    (3) यदि कोई शर्त, जिस पर दण्डादेश का निलंबन या परिहार किया गया है, समुचित सरकार की राय में पूरी नहीं हुई है तो समुचित सरकार निलंबन या परिहार को रद्द कर सकती है और तब, यदि वह व्यक्ति, जिसके पक्ष में दण्डादेश का निलंबन या परिहार किया गया था मुक्त है, तो वह किसी पुलिस अधिकारी द्वारा वारंट के बिना गिरफ्तार किया जा सकता है और दण्डादेश के अनवसित भाग को भोगने के लिये प्रतिप्रेषित किया जा सकता है।
    (4) वह शर्त, जिस पर दण्डादेश का निलंबन या परिहार इस धारा के अधीन किया जाए, ऐसी हो सकती है जो उस व्यक्ति द्वारा, जिसके पक्ष में दण्डादेश का निलंबन या परिहार किया जाए, पूरी की जाने वाली हो या ऐसी हो सकती है जो उसकी इच्छा पर आश्रित न हो।
    (5) समुचित सरकार दण्डादेशों के निलंबन के बारे में, तथा उन शर्तों के बारे में जिन पर अर्ज़ियाँ उपस्थित की और निपटाई जानी चाहियें, साधारण नियमों या विशेष आदेशों द्वारा निदेश दे सकती है।
    परंतु अठारह वर्ष से अधिक की आयु के किसी पुरुष के विरुद्ध किसी दण्डादेश की दशा में (जो ज़ुर्माने के दण्डादेश से भिन्न है) दण्डादिष्ट व्यक्ति द्वारा या उसकी ओर से किसी अन्य व्यक्ति द्वारा दी गई कोई ऐसी अर्ज़ी तब तक ग्रहण नहीं की जाएगी, जब तक दण्डादिष्ट व्यक्ति जेल में न हो।
    (a) जहाँ ऐसी याचिका सज़ा पाए व्यक्ति द्वारा की जाती है, इसे जेल के भारसाधक अधिकारी के माध्यम से प्रस्तुत किया जाता है; या
    (b) जहाँ ऐसी याचिका किसी अन्य व्यक्ति द्वारा की जाती है, इसमें एक घोषणा होती है कि सज़ा पाने वाला व्यक्ति कारावास में है।
    (6) ऊपर की उपधाराओं के उपबंध दण्ड न्यायालय द्वारा इस संहिता की या किसी अन्य विधि की किसी धारा के अधीन पारित ऐसे आदेश पर भी लागू होंगे जो किसी व्यक्ति की स्वतंत्रता को निर्बंधित करता है या उस पर या उसकी संपत्ति पर कोई दायित्व अधिरोपित करता है।
    (7) समुचित सरकार पद से अर्थ है, -
    (a) उन दशाओं में जिनमें दण्डादेश ऐसे विषय से संबद्ध किसी विधि के विरुद्ध अपराध के लिये हैं, या उपधारा (6) में निर्दिष्ट आदेश ऐसे विषय से संबद्ध किसी विधि के अधीन पारित किया गया है, जिस विषय पर संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार है, केंद्रीय सरकार, अभिप्रेत है।
    (b) अन्य दशाओं में, उस राज्य की सरकार अभिप्रेत है जिसमें अपराधी दण्डादिष्ट किया गया है या उक्त आदेश पारित किया गया है।
  • CrPC की धारा 433A कुछ मामलों में परिहार या लघुकरण की शक्तियों पर प्रतिबंध से संबंधित है।
    • इसमें कहा गया है कि धारा 432 में किसी बात के होते हुए भी, जहाँ किसी व्यक्ति को ऐसे अपराध के लिये, जिसके लिये मृत्युदण्ड विधि द्वारा उपबंधित दण्डों में से एक है, आजीवन कारावास का दण्डादेश दिया गया है, या धारा 433 के अधीन किसी व्यक्ति को दिये गए मृत्यु दण्डादेश का आजीवन कारावास के रूप में लघुकरण किया गया है, वहाँ ऐसा व्यक्ति कारावास से तब तक रिहा नहीं किया जाएगा, जब तक कि उसने चौदह वर्ष का कारावास पूरा न कर लिया हो।

संवैधानिक प्रावधान:

  • भारत के संविधान, 1950 (COI) द्वारा राष्ट्रपति और राज्यपाल दोनों को क्षमादान की संप्रभु शक्ति प्रदान की गई है।
  • COI के अनुच्छेद 72 के तहत, राष्ट्रपति के पास मंत्रिपरिषद के परामर्श से किसी भी अपराध के लिये दोषी ठहराए गए, किसी भी व्यक्ति की सज़ा को क्षमा करने, प्रविलंबन करने, विराम देने या परिहार करने या निलंबित करने, कम करने की शक्ति है।
  • इसी प्रकार, COI के अनुच्छेद 161 के तहत, ये शक्तियाँ राज्यों के राज्यपालों को प्रदान की जाती हैं।

निर्णयज विधि:

  • हरियाणा राज्य बनाम महेंद्र सिंह (2007) मामले में, उच्चतम न्यायालय ने कहा कि भले ही किसी भी दोषी के पास सज़ा के परिहार का मौलिक अधिकार नहीं होता है, फिर भी राज्य को सज़ा के परिहार की अपनी कार्यकारी शक्ति का प्रयोग करते हुए प्रत्येक मामले प्रासंगिक कारक को ध्यान में रखते हुए विचार करना चाहिये। इसके अलावा, न्यायालय का यह भी विचार था कि परिहार के लिये विचार किये जाने के अधिकार को कानूनी माना जाना चाहिये।

सिविल कानून

मुख्य समझौते में माध्यस्थम् खंड

 21-Mar-2024

NBCC (इंडिया) लिमिटेड बनाम ज़िलियन इंफ्रा प्रोजेक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड

“विवाद को माध्यस्थम् हेतु संदर्भित करने के लिये मुख्य संविदा में माध्यस्थम् खंड का उल्लेख किया जाना चाहिये।”

न्यायमूर्ति बी. आर. गवई और न्यायमूर्ति संदीप मेहता

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में, न्यायमूर्ति बी. आर. गवई और न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने कहा कि विवाद को माध्यस्थम् हेतु संदर्भित करने के लिये मुख्य संविदा में माध्यस्थम् खंड का उल्लेख किया जाना चाहिये।

  • उच्चतम न्यायालय ने NBCC (इंडिया) लिमिटेड बनाम ज़िलियन इंफ्रा प्रोजेक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड के मामले में यह व्यवस्था दी।

NBCC (इंडिया) लिमिटेड बनाम ज़िलियन इंफ्रा प्रोजेक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड मामला की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • NBCC (इंडिया) लिमिटेड, जिसे पहले नेशनल बिल्डिंग्स कंस्ट्रक्शन कॉर्पोरेशन लिमिटेड के नाम से जाना जाता था, एक सार्वजनिक लिमिटेड कंपनी और भारत सरकार का उपक्रम है जो निर्माण परियोजनाओं से संबंधित है।
  • ज़िलियन इंफ्रा प्रोजेक्ट्स प्रा. लिमिटेड, जिसे पहले दुरा कंस्ट्रक्शन प्राइवेट लिमिटेड के नाम से जाना जाता था, एक प्राइवेट लिमिटेड कंपनी है जो निर्माण और बुनियादी ढाँचे के क्षेत्र से संबंधित है।
  • NBCC ने DVC, CTPS, चंद्रपुरा, ज़िला-बोकारो, झारखंड- पैकेज "A" में दामोदर नदी पर एक बाँध के निर्माण के लिये निविदा हेतु निमंत्रण जारी किया।
  • ज़िलियन इंफ्रा प्रोजेक्ट्स प्रा. लिमिटेड ने अपनी बोली प्रस्तुत की और NBCC द्वारा उसे बाँध के निर्माण का ठेका दिया गया।
  • इससे NBCC और ज़िलियन इंफ्रा प्रोजेक्ट्स प्राइवेट लिमिटेड के बीच विवाद उत्पन्न हुआ, जिसके कारण ज़िलियन ने माध्यस्थम् का आह्वान किया।
  • NBCC ने माध्यस्थम् का आह्वान करने वाले ज़िलियन के नोटिस का जवाब नहीं दिया, जिससे ज़िलियन ने उच्च न्यायालय में माध्यस्थम् अधिनियम की धारा 11(6) के तहत एक आवेदन दायर किया।
  • उच्च न्यायालय ने इसको स्वीकार करते हुए इसमें उच्च न्यायालय के एक पूर्व न्यायाधीश को एकमात्र मध्यस्थ के रूप में नियुक्त किया।
  • NBCC ने अंतरिम और अंतिम दोनों आदेशों को चुनौती देते हुए उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध अपील की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने A&C अधिनियम की धारा 7(5) के आलोक में माध्यस्थम् धाराओं को शामिल करने के संबंध में एम.आर. इंजीनियर्स मामले में स्थापित सिद्धांतों को दोहराया।
  • इसमें कहा गया कि L.O.I. के खंड 7.0 में विशेष रूप से कहा गया है कि विवादों को दिल्ली में सिविल न्यायालयों के माध्यम से हल किया जाना चाहिये।
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि वर्तमान मामला एक संदर्भ मामला था, निगमन मामला नहीं, और NBCC के तर्क को बरकरार रखा।
  • इसमें उच्च न्यायालय के आदेशों को रद्द कर दिया गया और अपीलों को बिना किसी अनुतोष के प्रावधान के स्वीकार किया गया।

संविदा में माध्यस्थम् खंड के संदर्भ में ऐतिहासिक निर्णय क्या हैं?

  • एम.आर. इंजीनियर्स एंड कॉन्ट्रैक्टर्स प्राइवेट लिमिटेड बनाम सोम दत्त बिल्डर्स लिमिटेड (2009):
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना कि एक दस्तावेज़ के माध्यस्थम् खंड के संदर्भ को दूसरे संविदा में शामिल करने के क्रम में, विशिष्ट शर्तों को पूरा किया जाना चाहिये।
    • इसमें स्पष्ट किया गया कि किसी अन्य संविदा के सामान्य संदर्भ में स्वयं से माध्यस्थम् खंड शामिल नहीं होगा, जब तक कि कोई विशिष्ट उल्लेख न हो।
    • न्यायालय ने इसको शामिल करने के लिये मानदण्ड निर्धारित किये और पक्षकारों के बीच स्पष्ट आशय के महत्त्व पर बल दिया।
  • ड्यूरो फेलगुएरा, एस.ए. बनाम गंगावरम पोर्ट लिमिटेड (2017):
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने माध्यस्थम् धाराओं को शामिल करने के संबंध में एम.आर. इंजीनियर्स मामले में स्थापित सिद्धांतों को दोहराया।
    • इसमें संदर्भ सहित माध्यस्थम् खंडों के विशिष्ट संदर्भ को संविदा में शामिल करने की आवश्यकता पर बल दिया।
  • एलीट इंजीनियरिंग एंड कंस्ट्रक्शन (हैदराबाद) प्राइवेट लिमिटेड बनाम टेकट्रांस कंस्ट्रक्शन इंडिया प्राइवेट लिमिटेड (2018):
    • एम.आर. इंजीनियर्स मामले में स्थापित उदाहरण के बाद, उच्चतम न्यायालय ने इस सिद्धांत को बरकरार रखा कि माध्यस्थम् खंड को शामिल करने के लिये किसी अन्य संविदा का सामान्य संदर्भ पर्याप्त नहीं होगा।
    • इसमें दोहराया गया कि माध्यस्थम् खंड को संविदा में शामिल करने के लिये इसका विशिष्ट उल्लेख या संदर्भ होना चाहिये।
  • आईनॉक्स विंड लिमिटेड बनाम थर्मोकेबल्स लिमिटेड (2018):
    • इस मामले में उच्चतम न्यायालय ने एम.आर. इंजीनियर्स मामले में निर्धारित सिद्धांतों से अलग रुख अपनाया।
    • इसमें यह माना गया कि व्यापार संघों एवं पेशेवर निकायों के साथ-साथ संविदा के मानक रूप का एक सामान्य संदर्भ, माध्यस्थम् खंड को शामिल करने हेतु पर्याप्त होगा।
    • हालाँकि न्यायालय ने माध्यस्थम् खंड की प्रयोज्यता निर्धारित करने के लिये प्रत्येक मामले की विनिर्दिष्ट परिस्थितियों की जाँच करने के महत्त्व पर बल दिया।