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सांविधानिक विधि
नगर निगम द्वारा अध्यारोपित रॉयल्टी
17-Oct-2024
पटना नगर निगम एवं अन्य बनाम मेसर्स ट्राइब्रो एड ब्यूरो एवं अन्य “न्यायालय ने निर्णय दिया कि नगर निगम द्वारा होर्डिंग्स एवं विज्ञापनों के लिये ली जाने वाली ‘रॉयल्टी’ को ‘कर’ के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता।” जस्टिस विक्रम नाथ एवं अहसानुद्दीन अमानुल्लाह |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि पटना नगर निगम द्वारा विज्ञापन कंपनियों से होर्डिंग्स के लिये ली जाने वाली 'रॉयल्टी' कोई कर नहीं है। इस निर्णय ने पटना उच्च न्यायालय के रॉयल्टी वापस करने के निर्देश को पलट दिया, जिसमें कहा गया था कि ऐसे शुल्क अनिवार्य वसूली नहीं हैं तथा इसलिये वे भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 265 द्वारा परिभाषित कराधान के दायरे से बाहर हैं।
- इस निर्णय में रॉयल्टी एवं कर के बीच अंतर को स्पष्ट करने वाले निर्णय का संदर्भ दिया गया।
पटना नगर निगम एवं अन्य बनाम मेसर्स ट्राइब्रो एड ब्यूरो एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- 29 अगस्त 2005 को पटना नगर निगम ने विज्ञापन एजेंसियों के साथ एक बैठक की जिसमें यह सहमति बनी कि:
- एजेंसियाँ अपने विज्ञापनों का विवरण प्रस्तुत करेंगी, जिसमें स्थान, आकार आदि शामिल होंगे।
- निगम, निगम की भूमि पर होर्डिंग्स के लिये प्रति वर्ष 1 रुपए प्रति वर्ग फुट की दर से रॉयल्टी वसूलेगा।
- 15 जनवरी 2007 को निगम ने रॉयल्टी दरों में संशोधन किया:
- विभिन्न प्रकार के होर्डिंग्स के लिये नई दरें निर्धारित की गईं।
- प्रतिवादी कंपनी के लिये दर बढ़ाकर 10 रुपए प्रति वर्ग फुट प्रति वर्ष कर दी गई।
- यह नई दर 2 नवंबर 2007 से प्रभावी हो गई।
- एक महत्त्वपूर्ण विधायी परिवर्तन तब हुआ जब:
- पटना नगर निगम अधिनियम, 1951 को निरसित कर दिया गया।
- इसे बिहार नगरपालिका अधिनियम, 2007 द्वारा प्रतिस्थापित किया गया।
- नया अधिनियम 5 अप्रैल 2007 से प्रभावी हुआ।
- निगम ने कई प्रशासनिक कार्यवाही की:
- 2 नवंबर 2007 को एक कार्यालय आदेश जारी किया गया, जिसमें विभिन्न रॉयल्टी/अर्थदण्ड की दरें निर्धारित की गईं।
- इन दरों को 24 अगस्त 2007 से पूर्वव्यापी रूप से प्रभावी बनाया गया।
- भुगतान न करने पर दोगुनी दर से अर्थदण्ड लगाया गया।
- अनाधिकृत होर्डिंग्स के लिये पाँच गुना अर्थदण्ड लागू किया गया।
- 15 दिसंबर 2010 को निगम परिषद द्वारा:
- प्रस्ताव संख्या 18 पारित किया गया।
- डिफॉल्टर विज्ञापन एजेंसियों का पंजीकरण रद्द करने का निर्णय लिया गया।
- यह अवैध होर्डिंग डिस्प्ले एवं बकाया राशि का भुगतान न करने के कारण किया गया।
- 11 फरवरी 2012 को निगम परिषद द्वारा :
- निगम ने प्रतिवादी संख्या 1 से 64,50,040 रुपए की मांग की।
- यह मांग नए अधिनियम के अंतर्गत विभिन्न प्रस्तावों पर आधारित थी।
- प्रतिवादी कंपनी द्वारा की गई कार्यवाहियाँ:
- डिमांड नोटिस एवं दर संशोधन को उच्च न्यायालय में चुनौती दी।
- प्रारंभिक न्यायालयी आदेशों के बाद, 21,98,000 रुपए की संशोधित मांग प्राप्त हुई।
- जनवरी 2013 में गणना पर विवाद किया।
- स्व-मूल्यांकन के अनुसार 1 रुपए प्रति वर्ग फुट की पुरानी दर से भुगतान जारी रखा।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने मिनरल एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी बनाम स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया मामले में नौ न्यायाधीशों की पीठ के निर्णय पर विश्वास करते हुए कहा कि विज्ञापन होर्डिंग्स के लिये नगर निगम द्वारा अध्यारोपित 'रॉयल्टी' को 'कर' या 'अनिवार्य वसूली' नहीं कहा जा सकता।
- न्यायालय ने निर्धारित किया कि रॉयल्टी एवं कर मूलतः अलग-अलग विधिक अवधारणाएँ हैं, जिनके अलग-अलग अर्थ एवं आशय हैं, तथा इन नामकरणों का विधि में परस्पर विनिमय नहीं किया जा सकता।
- न्यायालय ने अवधारित किया कि एक बार जब पक्षकार रॉयल्टी का भुगतान करने के लिये सहमत हो जाते हैं, तो उन्हें ऐसे निर्णय को चुनौती देने से रोक दिया जाता है, जब तक कि अधिकार क्षेत्र में अंतर्निहित कमी न हो या प्राधिकार का प्रयोग विधि या तथ्य के अनुसार विकृत या दुर्भावनापूर्ण न हो।
- न्यायालय ने पाया कि अधिनियम की धारा 431 के अंतर्गत बढ़ी हुई रॉयल्टी वसूलने का निगम का संकल्प दोषपूर्ण था, लेकिन इससे पक्षकारों के साथ करार/समझ के आधार पर रॉयल्टी वसूलने की उसकी अंतर्निहित शक्ति अमान्य नहीं हो जाती। न्यायालय ने पटना उच्च न्यायालय की खंडपीठ के उस निर्णय को खारिज कर दिया, जिसमें निर्देश दिया गया था
- न्यायालय ने पटना उच्च न्यायालय की खंडपीठ के उस निर्णय को खारिज कर दिया, जिसमें रॉयल्टी वापस करने का निर्देश दिया गया था। न्यायालय ने कहा कि रॉयल्टी वसूलने की निगम की शक्ति संविधान के अनुच्छेद 265 के अंतर्गत विधायी क्षमता से स्वतंत्र है।
- न्यायसंगत आधार पर न्यायालय ने 10 रुपये प्रति वर्ग फुट की बढ़ी हुई दर का आदेश दिया, जो 6% साधारण ब्याज के साथ देय होगी। साथ ही, विलंबित भुगतान पर 10% ब्याज का प्रावधान भी होगा। यह बिहार एवं उड़ीसा लोक मांग वसूली अधिनियम, 1914 के अंतर्गत वसूल किया जाएगा।
भारतीय संविधान का अनुच्छेद 265 क्या है?
- संवैधानिक अधिदेश:
- अनुच्छेद 265 यह अवधारित करता है कि विधि के अधिकार के बिना कोई भी कर नहीं लगाया जाएगा या एकत्र नहीं किया जाएगा।
- यह मनमाने कराधान के विरुद्ध एक मौलिक संवैधानिक सुरक्षा है।
- यह प्रावधान भारत में वैध कर संग्रह के लिये आधारशिला के रूप में कार्य करता है।
- विधायी प्राधिकार:
- कर लगाने का समर्थन सक्षम विधायी निकायों द्वारा पारित वैध कानून द्वारा किया जाना चाहिये।
- केवल संसद (केंद्रीय करों के लिये) या राज्य विधानमंडल (राज्य करों के लिये) के पास कर आरोपित करने का अधिकार है।
- विधि में कर की प्रकृति, कर योग्य घटना, दर, देयता एवं संग्रह प्रक्रियाओं को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाना चाहिये।
- संवैधानिक सीमाएँ:
- करों को मनमाने ढंग से या भेदभावपूर्ण तरीके से नहीं लगाया जा सकता है।
- कर विधियों को समानता एवं गैर-भेदभाव के सिद्धांतों का पालन करना चाहिये।
- अनुच्छेद 265 के अंतर्गत पूर्वव्यापी कराधान निषिद्ध है।
- कर का बोझ भुगतान करने की क्षमता के आधार पर समान रूप से वितरित किया जाना चाहिये।
- विधिक निहितार्थ:
- किसी भी कर को आरोपित करने के लिये एक विशिष्ट संविधि को अधिकृत करना चाहिये।
- कर विधान में कराधान के सभी आवश्यक तत्त्वों को स्पष्ट रूप से परिभाषित किया जाना चाहिये।
- संविधि में मूल्यांकन एवं संग्रह के लिये उचित प्रक्रियाएँ निर्धारित की जानी चाहिये।
- कर विधियों को सामाजिक न्याय के सिद्धांतों के अनुरूप होना चाहिये।
- न्यायिक पर्यवेक्षण:
- अनुच्छेद 265 कराधान की न्यायिक समीक्षा के लिये आधार प्रदान करता है।
- न्यायालय के पास कर विधियों की वैधता की जाँच करने का अधिकार है।
- करदाता न्यायिक प्रक्रिया के माध्यम से असंवैधानिक करों को चुनौती दे सकते हैं।
- न्यायालय संवैधानिक प्रावधानों का उल्लंघन करने वाले कर संविधियों को निरसित कर सकते हैं।
- अधिकारों का संरक्षण:
- यह प्रावधान करदाताओं के अधिकारों की सुरक्षा करता है।
- यह कर प्रशासन में पारदर्शिता सुनिश्चित करता है।
- यह सरकार द्वारा कर लगाने की शक्तियों के दुरुपयोग को रोकता है।
- यह अवैध कराधान के विरुद्ध संवैधानिक उपाय प्रदान करता है।
रॉयल्टी एवं कर के बीच अंतर
- रॉयल्टी:
- आधार: पक्षों के बीच करार में निहित
- प्रकृति: दिये गए अधिकारों एवं विशेषाधिकारों के लिये क्षतिपूर्ति
- संबंध: अनुदानकर्त्ता को दिये गए लाभों या विशेषाधिकारों के साथ सीधा संबंध
- शर्तें: अनुदाता एवं अनुदानकर्त्ता के मध्य समझौते द्वारा परिभाषित
- कराधान:
- आधार: सांविधिक शक्ति के अंतर्गत लगाया गया
- प्रकृति: विशिष्ट लाभों के संदर्भ के बिना अनिवार्य वसूली
- संबंध: भुगतानकर्त्ता के लिये विशेष लाभों से कोई सीधा संबंध नहीं
- शर्तें: विधि द्वारा लागू, करार द्वारा नहीं
- रॉयल्टी और कर के बीच अंतर:
- सहमति: रॉयल्टी में आपसी सहमति शामिल होती है; करदाता की सहमति के बिना कर लगाए जाते हैं
- उद्देश्य: रॉयल्टी विशिष्ट विशेषाधिकारों की भरपाई करती है; कर सामान्य सार्वजनिक उद्देश्यों की पूर्ति करते हैं
- लाभ सह-संबंध: रॉयल्टी का प्राप्त लाभों से सीधा संबंध होता है; करों का नहीं
- विधिक ढाँचा: रॉयल्टी संविदात्मक होती है; कर सांविधिक होते हैं
- क्विड प्रो क्वो: रॉयल्टी में मौजूद; करों में नहीं
पारिवारिक कानून
संरक्षकता अधिनियम की धारा 12 में प्रावधानित आदेश
17-Oct-2024
X बनाम Y “संरक्षकता एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 की धारा 12 के अंतर्गत पारित आदेशों पर कुटुंब न्यायालय अधिनियम, 1984 की धारा 19 के अंतर्गत अपील की जा सकेगी।” न्यायमूर्ति रेखा पल्ली, न्यायमूर्ति जसमीत सिंह एवं न्यायमूर्ति अमित बंसल |
स्रोत: दिल्ली उच्च न्यायालय
चर्चा में क्यों?
हाल ही में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने X बनाम Y के मामले में माना है कि संरक्षकता एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 (G & W अधिनियम) की धारा 12 के अंतर्गत पारित आदेश परिवार न्यायालय अधिनियम, 1984 (FC अधिनियम) की धारा 19 के अंतर्गत अपील योग्य होंगे।
X बनाम Y मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- वर्तमान मामले में, पिता (प्रतिवादी) ने कुटुंब न्यायालय में एक आवेदन दायर किया कि अप्राप्तवय बच्चे को उसके घर के पास के तीन स्कूलों में से एक में दाखिला दिलाया जाए, ताकि स्कूल के समय के बाद उसे शिशुगृह में भेजने के बजाय उसे वहाँ भेजा जा सके।
- जब मां कार्यालय में व्यस्त हो, तो बच्चे को प्रतिदिन उसकी अस्थायी संरक्षण में रखा जा सकता है।
- कुटुंब न्यायालय ने पिता के आवेदन को स्वीकार करते हुए आदेश पारित किया।
- आदेश में पिता को प्रतिदिन स्कूल से पहले बच्चे को मां के घर से लेने, स्कूल छोड़ने और वहाँ से वापस लाने तथा शाम 6 बजे तक उसे मां के घर वापस लाने की अनुमति दी गई।
- कुटुंब न्यायालय ने यह भी निर्देश दिया कि पिता बच्चे की शिक्षा का खर्च वहन करेगा, जिसे उसके द्वारा दिये जा रहे भरण-पोषण भत्ते में समायोजित किया जाएगा।
- इस आदेश से व्यथित माँ (अपीलकर्त्ता) ने दिल्ली उच्च न्यायालय में FC की धारा 19(1) के अंतर्गत अपील दायर की।
- अपनी अपील में, माँ ने कुटुंब न्यायालय के निर्देशों को रद्द करने की मांग की, यह तर्क देते हुए कि बच्चा पहले से ही एक प्रतिष्ठित नर्सरी स्कूल (स्कॉटिश स्कूल) में पढ़ रहा था।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने अपील में एक नोटिस जारी किया तथा विवादित आदेश के संचालन पर रोक लगा दी।
- बाद में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने निर्देश दिया कि बच्चा वर्तमान शैक्षणिक सत्र के लिये स्कॉटिश स्कूल में पढ़ता रहेगा, लेकिन पिता को शनिवार को दोपहर 2 बजे से शाम 6 बजे तक बच्चे की देखभाल करने की अनुमति दी।
- इसके बाद, पिता ने अपील को खारिज करने की मांग करते हुए आवेदन दायर किया, जिसमें तर्क दिया गया कि यह FC अधिनियम की धारा 19 के अंतर्गत बनाए रखने योग्य नहीं है।
- पिता ने तर्क दिया कि आरोपित आदेश संरक्षक एवं प्रतिपाल्य अधिनियम, 1890 (G&W अधिनियम) की धारा 12 के अंतर्गत पारित एक अंतरिम आदेश था तथा इसलिये FC अधिनियम की धारा 19 के अंतर्गत अपील योग्य नहीं है।
- खंडपीठ ने विभिन्न निर्णयों का उदाहरण दिया तथा कहा कि G&W अधिनियम की धारा 12 के अंतर्गत पारित आदेश अप्राप्तवय बच्चे के अधिकारों एवं कल्याण का अतिक्रमण करता है, यह मानना दोषपूर्ण होगा कि ऐसा आदेश FC अधिनियम की धारा 19 के अंतर्गत अपील योग्य नहीं है तथा एक संदर्भ आदेश पारित किया।
न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने अवधारित किया कि:
- FC अधिनियम विवाह एवं कुटुंब मामलों से संबंधित विभिन्न अधिनियमों के अंतर्गत पारित आदेशों के संबंध में अपील दायर करने के लिये एक पूर्ण प्रक्रियात्मक संहिता निर्धारित करके एक व्यापक अधिकार क्षेत्र प्रदान करता है।
- FC अधिनियम के अपीलीय प्रावधानों का उद्देश्य G&W अधिनियम जैसे अन्य संविधियों के अंतर्गत अपीलीय प्रावधानों से स्वतंत्र होना है।
- FC अधिनियम, एक बाद का अधिनियम है जिसका प्रभाव सर्वोपरि है, इसे पुराने संविधियों के अंतर्गत उपलब्ध तंत्रों द्वारा नियंत्रित या सीमित नहीं किया जा सकता है।
- केवल किसी आदेश का नामकरण ही उसकी प्रकृति निर्धारित नहीं कर सकता। किसी विधि के अंतर्गत "अंतरिम" के रूप में लेबल किये गए आदेश को FC अधिनियम के अंतर्गत अनिवार्य रूप से अंतरिम नहीं माना जा सकता है।
- ऐसे आदेश जो पक्षकारों के महत्त्वपूर्ण अधिकारों को प्रभावित करते हैं या अप्राप्तवय बच्चे पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव डालते हैं, भले ही वे अंतरिम प्रकृति के हों, उन्हें केवल अंतरिम आदेश नहीं माना जा सकता, जिसके विरुद्ध कोई अपील नहीं की जा सकती।
- महत्त्वपूर्ण मामलों से संबंधित आदेशों को अपीलीय प्रावधान से बाहर रखना FC अधिनियम के उद्देश्य एवं भावना के विरुद्ध होगा।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि G&W अधिनियम की धारा 12 के अंतर्गत आदेशों का अक्सर पक्षों के अधिकारों एवं बच्चे के कल्याण पर दूरगामी प्रभाव पड़ता है तथा वे प्रकृति में न्यायिक होते हैं।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने कहा कि FC अधिनियम "अंतरिम आदेश" को परिभाषित नहीं करता है, तथा इसलिये, इस शब्द का निर्वचन उद्देश्यपूर्ण तरीके से की जानी चाहिये ताकि इसमें ऐसे आदेश शामिल हों जो क्षणिक मामलों को छूते हैं तथा अंतिमता के संकेत देते हैं।
- दिल्ली उच्च न्यायालय ने कर्नल रमेश पाल सिंह मामले से असहमति जताई और कहा कि:
- प्रत्येक मामले में, आरोपित आदेश की प्रकृति की समग्रता में जाँच की जानी चाहिये ताकि यह निर्धारित किया जा सके कि क्या यह न्यायिक है और पक्षों के मूल्यवान अधिकारों का निर्णय करता है।
- अपीलों को उन आदेशों के विरुद्ध स्वीकार किया जाना चाहिये जो पक्षों के महत्त्वपूर्ण अधिकारों को प्रभावित करते हैं, न कि केवल प्रक्रियात्मक आदेशों के विरुद्ध, भले ही वे लंबित कार्यवाही के दौरान पारित किये गए हों।
- G & W अधिनियम की धारा 12 के अंतर्गत पारित आदेशों के विरुद्ध FC अधिनियम की धारा 19 के अंतर्गत अपील की जा सकेगी।
X बनाम Y मामले में किन मामलों का उल्लेख किया गया है?
- शाह बाबूलाल खिमजी बनाम जयाबेन डी. कानिया (1981):
- इस मामले में इस बात पर विचार किया गया कि उच्च न्यायालयों के लेटर्स पेटेंट (वादकालीन) मामले के अंतर्गत अपील के उद्देश्य से "निर्णय" क्या होता है।
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि किसी आदेश की प्रकृति, न कि उसका लेबल, यह निर्धारित करता है कि वह अपील योग्य है या नहीं।
- इसने तीन प्रकार के निर्णयों को परिभाषित किया: अंतिम, प्रारंभिक एवं मध्यवर्ती।
- न्यायालय ने माना कि कुछ मध्यवर्ती आदेशों पर भी अपील की जा सकती है यदि उनमें अंतिमता की विशेषताएँ हों तथा वे सीधे किसी पक्ष के अधिकारों को प्रभावित करते हों।
- अमर नाथ एवं अन्य बनाम हरियाणा राज्य (1977):
- इस मामले में दण्ड प्रक्रिया के संदर्भ में "अंतरिम आदेश" शब्द का निर्वचन किया गया।
- उच्चतम न्यायालय ने माना कि "अंतरिम आदेश" का निर्वचन संकीर्ण रूप से किया जाना चाहिये। इसने कहा कि जो आदेश अभियुक्त के अधिकारों को बहुत सीमा तक प्रभावित करते हैं या पक्षों के महत्त्वपूर्ण अधिकारों का निर्णय करते हैं, वे केवल अंतरिम आदेश नहीं हैं तथा उन्हें संशोधित किया जा सकता है।
- मनीष अग्रवाल बनाम सीमा अग्रवाल (2012):
- दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा तय किया गया यह मामला पारिवारिक न्यायालय अधिनियम के अंतर्गत अपील के दायरे से संबंधित था। इसने माना कि कुछ अंतरिम आदेश (जैसे हिंदू विवाह अधिनियम, 1956 की धारा 24 के अंतर्गत) कुटुंब न्यायालय अधिनियम के अंतर्गत अपील योग्य थे।
- कर्नल रमेश पाल सिंह बनाम सुगंधी अग्रवाल (2019):
- इस मामले में, दिल्ली उच्च न्यायालय ने माना कि G&W अधिनियम की धारा 12 के अंतर्गत दिये गए आदेश FC अधिनियम के अंतर्गत अपील योग्य नहीं थे। इस मामले में इस निर्णय की सत्यता ही मुख्य मुद्दा था जिस पर पुनर्विचार किया जा रहा था।
G&W अधिनियम की धारा 12 क्या है?
- इसमें अप्राप्तवय को प्रस्तुत करने के लिये अंतरिम आदेश देने की शक्ति एवं व्यक्ति और संपत्ति की अंतरिम सुरक्षा के प्रावधान किये गए हैं।
- उपधारा (1) में यह प्रावधानित किया गया है कि न्यायालय निर्देश दे सकता है कि यदि कोई व्यक्ति, अप्राप्तवय की अभिरक्षा में है, तो उसे ऐसे स्थान एवं समय पर तथा ऐसे व्यक्ति के समक्ष प्रस्तुत करेगा या प्रस्तुत कराएगा जिसे वह नियुक्त करे, तथा अप्राप्तवय के शरीर या संपत्ति की अस्थायी अभिरक्षा एवं संरक्षण के लिये ऐसा आदेश दे सकता है जैसा वह उचित समझे।
- उपधारा (2) में कहा गया है कि यदि अवयस्क महिला है, जिसे सार्वजनिक रूप से उपस्थित होने के लिये बाध्य नहीं किया जाना चाहिये, तो उपधारा (1) के अंतर्गत उसे प्रस्तुत करने के निर्देश में उसे देश की प्रथाओं और रीति-रिवाजों के अनुसार प्रस्तुत करने की अपेक्षा की जाएगी।
- उपधारा (3) में यह प्रावधानित किया गया है कि इस धारा में कुछ भी अधिकृत नहीं करेगा:
- खंड (क) में कहा गया है कि न्यायालय किसी अप्राप्तवय महिला को उसके पति होने के आधार पर उसके संरक्षक होने का दावा करने वाले व्यक्ति की अस्थायी संरक्षण में दे सकता है, जब तक कि वह अपने माता-पिता, यदि कोई हो, की सहमति से पहले से ही उसकी संरक्षण में न हो, या
- खंड (ख) में कहा गया है कि कोई भी व्यक्ति जिसे अप्राप्तवय की संपत्ति की अस्थायी संरक्षण तथा संरक्षण सौंपा गया है, वह विधि के उचित तरीके के अतिरिक्त किसी अन्य तरीके से किसी भी संपत्ति पर कब्जा करने वाले किसी भी व्यक्ति को बेदखल कर सकता है।
FC अधिनियम की धारा 19 क्या है?
- इसमें अपील के प्रावधान इस प्रकार बताए गए हैं:
- उपधारा (1) में यह प्रावधानित किया गया है कि उपधारा (2) में दिये गए प्रावधान के सिवाय तथा सिविल प्रक्रिया संहिता, 1908 (CPC), 1973 या किसी अन्य संविधि में प्रावधानित किसी तथ्य के होते हुए भी, कुटुंब न्यायालय के प्रत्येक निर्णय या आदेश से, जो कि अंतरिम आदेश नहीं है, तथ्यों एवं विधि दोनों के आधार पर उच्च न्यायालय में अपील की जा सकेगी।
- उपधारा (2) में यह प्रावधानित किया गया है कि कुटुंब न्यायालय द्वारा पक्षकारों की सहमति से पारित डिक्री या आदेश अथवा CrPC के अध्याय IX के अंतर्गत पारित आदेश के विरुद्ध कोई अपील नहीं की जाएगी।
- हालाँकि इस उपधारा में प्रावधानित कोई भी तथ्य उच्च न्यायालय में लंबित किसी अपील अथवा FC अधिनियम के प्रारंभ होने से पहले CrPC के अध्याय IX के अंतर्गत पारित किसी आदेश पर लागू नहीं होगी।
- उपधारा (3) में यह प्रावधानित किया गया है कि इस धारा के अंतर्गत प्रत्येक अपील कुटुंब न्यायालय के निर्णय या आदेश की तिथि से तीस दिनों की अवधि के अंदर की जाएगी।
- उपधारा (4) में यह प्रावधानित किया गया है कि उच्च न्यायालय स्वप्रेरणा से या अन्यथा, किसी भी कार्यवाही के रिकॉर्ड को मंगा सकता है तथा उसकी जाँच कर सकता है जिसमें कुटुंब न्यायालय अपने अधिकार क्षेत्र में CrPC के अध्याय IX के अंतर्गत एक आदेश पारित करता है, ताकि वह आदेश की शुद्धता, वैधता या औचित्य के विषय में स्वयं को संतुष्ट कर सके, क्योंकि यह एक अंतरिम आदेश नहीं है, तथा ऐसी कार्यवाही की नियमितता के विषय में भी।
- उपधारा (5) में प्रावधानित किया गया है कि पूर्वोक्त के अतिरिक्त, किसी कुटुंब न्यायालय के किसी निर्णय, आदेश या डिक्री के विरुद्ध किसी भी न्यायालय में कोई अपील या पुनरीक्षण नहीं किया जा सकेगा।
- उपधारा (6) में यह प्रावधानित किया गया है कि उपधारा (1) के अंतर्गत की गई अपील की सुनवाई दो या अधिक न्यायाधीशों वाली पीठ द्वारा की जाएगी।