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आपराधिक कानून
आंतरिक परिवाद समिति की अधिकारिता को सम्मिलित करना
11-Dec-2025
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डॉ. सोहेल मलिक बनाम भारत संघ और अन्य "एक पीड़ित महिला अधिकारिता संबंधी प्रावधानों के संकीर्ण निर्वचन को खारिज करते हुए, किसी अन्य कार्यस्थल के कर्मचारी द्वारा किये गए उत्पीड़न के विरुद्ध अपने ही विभाग की आंतरिक परिवाद समिति से संपर्क कर सकती है।" न्यायमूर्ति जे.के. माहेश्वरी और विजय बिश्नोई |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
डॉ. सोहेल मलिक बनाम यूनियन ऑफ इंडिया और अन्य (2025) के मामले में न्यायमूर्ति जे.के. माहेश्वरी और विजय बिश्नोई की पीठ ने निर्णय दिया कि जब किसी महिला को कार्यस्थल पर किसी ऐसे व्यक्ति द्वारा लैंगिक उत्पीड़न का शिकार बनाया जाता है जो उसके अपने संगठन का भाग नहीं है, तो उसे अपने कार्यस्थल की आंतरिक परिवाद समिति के समक्ष अपना परिवाद दर्ज कराने का अधिकार है।
डॉ. सोहेल मलिक बनाम भारत संघ और अन्य (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- यह मामला 15 मई, 2023 की एक घटना से जुड़ा है, जिसमें एक IAS अधिकारी ने अभिकथित किया था कि अपीलकर्त्ता, जो एक IRS अधिकारी है, ने नई दिल्ली के कृषि भवन स्थित उसके कार्यस्थल पर उसका लैंगिक उत्पीड़न किया था।
- घटना के बाद प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई।
- व्यथित महिला ने खाद्य एवं सार्वजनिक वितरण विभाग में आंतरिक परिवाद समिति (ICC) के समक्ष महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न (POSH) अधिनियम के अधीन परिवाद भी दर्ज कराया।
- अपीलकर्त्ता ने केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण के समक्ष आंतरिक परिवाद समिति की अधिकारिता को चुनौती दी, यह तर्क देते हुए कि राजस्व विभाग के अधीन केंद्रीय प्रत्यक्ष कर बोर्ड के कर्मचारी के रूप में, केवल उसके कार्यस्थल पर गठित आंतरिक परिवाद समिति (ICC) ही परिवाद की जांच कर सकती है।
- केंद्रीय प्रशासनिक अधिकरण ने आंतरिक परिवाद समिति (ICC) की अधिकारिता को चुनौती देने वाली उनकी याचिका को खारिज कर दिया।
- इसके बाद अपीलकर्त्ता ने दिल्ली उच्च न्यायालय का रुख किया, जिसने उसकी चुनौती को भी खारिज कर दिया।
- इसी के चलते उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की गई।
न्यायालय की क्या टिप्पणियां थीं?
- न्यायालय ने 'कार्यस्थल' शब्द के संकीर्ण निर्वचन को खारिज कर दिया, यह मानते हुए कि ऐसा निर्वचन व्यथित महिला के लिये महत्त्वपूर्ण व्यावहारिक बाधाएँ उत्पन्न करके महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम के उपचारात्मक सामाजिक कल्याण के आशय को कमजोर कर देगा।
- पीठ ने टिप्पणी की कि यदि व्यथित महिला को प्रत्येक पर-पक्षकार की घटना के लिये प्रत्यर्थी के कार्यस्थल पर गठित आंतरिक परिवाद समिति से संपर्क करना पड़े, तो यह अधिनियम के सुरक्षात्मक उद्देश्यों को पूरा करने में असफल रहेगा।
- न्यायालय ने कहा कि अधिनियम में यह प्रावधान नहीं है कि प्रत्यर्थी का उसी कार्यस्थल का कर्मचारी होना अनिवार्य है जहाँ पीड़ित महिला काम करती है।
- व्यापक परिभाषाओं के कारण व्यथित महिला के कार्यस्थल पर गठित आंतरिक परिवाद समिति को किसी अन्य कार्यस्थल के कर्मचारी पर भी अधिकारिता का प्रयोग करने की अनुमति मिल जाती है।
- न्यायालय ने स्पष्ट किया कि जिस भी व्यक्ति के विरुद्ध व्यथित महिला द्वारा उसके कार्यस्थल पर गठित आंतरिक परिवाद समिति के समक्ष परिवाद दर्ज कराया जाता है, वह महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम के अधीन प्रत्यर्थी है।
- न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम की धारा 13 के अधीन, आंतरिक परिवाद समिति की दोहरी भूमिका है : महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम के अधीन प्रारंभिक या तथ्य-खोज जांच करना और औपचारिक अनुशासनात्मक कार्यवाही में जांच प्राधिकरण के रूप में कार्य करना।
- न्यायालय ने निदेश दिया कि प्रत्यर्थी के नियोक्ता को, भले ही वह एक अलग विभाग हो, महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम की धारा 19(च) के अधीन अपने कर्त्तव्यों का पालन करना चाहिये और आंतरिक परिवाद समिति द्वारा पीड़ित महिला के कार्यस्थल के अनुरोध पर तुरंत सहयोग करना चाहिये और जानकारी उपलब्ध करानी चाहिये।
महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न (POSH) अधिनियम क्या है?
बारे में:
- महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न (निवारण, प्रतिषेध और प्रतितोष) अधिनियम, 2013, जिसे सामान्यत: महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम के रूप में जाना जाता है, कार्यस्थल पर महिलाओं को लैंगिक उत्पीड़न से बचाने के लिये बनाया गया एक ऐतिहासिक विधान है।
- भारत के पितृसत्तात्मक समाज में महिला संगठनों और अधिकार कार्यकर्त्ताओं द्वारा दशकों तक किये गए प्रयासों के बाद यह अधिनियम अस्तित्व में आया।
- यह अधिनियम 1997 में उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित विशाखा दिशा-निर्देशों के बाद अधिनियमित किया गया था।
- यह लैंगिक उत्पीड़न के परिवादों के निवारण के लिये एक तंत्र प्रदान करता है और इसका उद्देश्य महिलाओं के लिये एक सुरक्षित कार्य वातावरण बनाना है।
- इस अधिनियम में लैंगिक उत्पीड़न को व्यापक रूप से परिभाषित किया गया है, जिसमें अवांछित लैंगिक व्यवहार, शारीरिक संपर्क, लैंगिक अनुग्रह की मांग या अनुरोध, लैंगिक संबंधी टिप्पणियां और अश्लील सामग्री दिखाना सम्मिलित है।
महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम के उद्देश्य:
- निवारण : लैंगिक उत्पीड़न को रोकने के लिये जागरूकता उत्पन्न करना और तंत्र स्थापित करना।
- प्रतिषेध : कार्यस्थल पर उत्पीड़न के सभी रूपों को विधिक रूप से प्रतिबंधित किया जाए।
- प्रतितोष : प्रभावी और समयबद्ध शिकायत निवारण तंत्र प्रदान करना।
- संरक्षण : महिलाओं के सांविधानिक समता और गरिमा के अधिकारों की रक्षा करना।
- आत्मविश्वास बढ़ाना : महिला कर्मचारियों को सुरक्षा तंत्रों पर विश्वास दिलाना।
- सुरक्षित कार्यस्थलों का निर्माण : उत्पीड़न मुक्त कार्य वातावरण को बढ़ावा देना।
- त्वरित न्याय : परिवाद के कुशल समाधान के माध्यम से न्यायिक कार्यभार को कम करना।
आंतरिक परिवाद समिति (ICC) की अधिकारिता:
- महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम की धारा 2(ण) 'कार्यस्थल' की एक व्यापक और सर्वव्यापी परिभाषा प्रदान करती है, जिसमें नियोजन के दौरान या उसके परिणामस्वरूप कर्मचारी द्वारा दौरा किया गया कोई भी स्थान सम्मिलित है।
- न्यायालय के निर्वचन ने स्पष्ट किया कि धारा 11 में "जहाँ प्रत्यर्थी एक कर्मचारी है" वाक्यांश का निर्वचन इस अर्थ में नहीं किया जा सकता कि आंतरिक परिवाद समिति की कार्यवाही केवल प्रत्यर्थी के कार्यस्थल पर गठित आंतरिक परिवाद समिति के समक्ष ही संस्थित की जा सकती है।
- एक सीमित निर्वचन अधिनियम की योजना और इसके उपचारात्मक सामाजिक कल्याण के आशय के विपरीत होगी।
- व्यथित महिला के कार्यस्थल पर गठित आंतरिक परिवाद समिति को अन्य कार्यस्थलों के कर्मचारियों के विरुद्ध परिवादों की जांच करने की अधिकारिता है, जहाँ उत्पीड़न की घटना व्यथित महिला के कार्यस्थल पर हुई थी।
- यह निर्वचन सुनिश्चित करता है कि महिलाओं को न्याय प्राप्त करने में व्यावहारिक बाधाओं का सामना न करना पड़े और महिलाओं का कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम के सुरक्षात्मक ढाँचे को प्रभावी ढंग से लागू किया जा सके।
आपराधिक कानून
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 102 के अधीन बैंक खाते फ्रीज करने हेतु पुलिस की शक्तियां
11-Dec-2025
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पश्चिम बंगाल राज्य बनाम अनिल कुमार डे "दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन अभिग्रहण की शक्तियां और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अधीन कुर्की की शक्तियां पृथक्-पृथक् और विशिष्ट हैं, और दोनों परस्पर विरोधी हुए बिना सह-अस्तित्व में रह सकती हैं।" न्यायमूर्ति संजय करोल और प्रशांत कुमार मिश्रा |
स्रोत: उच्चतम न्यायालय
चर्चा में क्यों?
न्यायमूर्ति संजय करोल और प्रशांत कुमार मिश्रा की पीठ ने पश्चिम बंगाल राज्य बनाम अनिल कुमार डे (2025) के मामले में निर्णय दिया कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के अधीन आरंभ किये गए मामलों में पुलिस और अन्वेषण अभिकरणों को दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 102 (अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 106) के अधीन बैंक खातों को फ्रीज करने का अधिकार है।
पश्चिम बंगाल राज्य बनाम अनिल कुमार डे (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?
- इस मामले में पुलिस इंस्पेक्टर प्रबीर कुमार डे सरकार पर 2007-2017 की अवधि के दौरान अपनी ज्ञात आय से अधिक संपत्ति जमा करने का अभिकथन किया गया था।
- अन्वेषण के दौरान, उनके पिता अनिल कुमार डे (प्रत्यर्थी) द्वारा धारित कई फिक्स्ड डिपॉजिट को भ्रष्टाचार विरोधी शाखा द्वारा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 102 के अधीन फ्रीज कर दिया गया था।
- प्रत्यर्थी ने संपत्ति ज़ब्त करने के आदेशों को चुनौती देते हुए तर्क दिया कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के मामलों में कुर्की केवल भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 18क के अधीन विशेष प्रक्रिया का पालन करते हुए ही की जानी चाहिये।
- कलकत्ता उच्च न्यायालय ने रतन बाबूलाल लाथ बनाम कर्नाटक राज्य (2022) के मामले में दिये गए अवलोकन पर विश्वास करते हुए खातों को डी-फ्रीज करने का आदेश दिया।
- उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम एक संपूर्ण संहिता है और इसलिये दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन खाता फ्रीज करना अग्राह्य है।
- पश्चिम बंगाल राज्य ने उच्च न्यायालय के निर्णय के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय में अपील की।
न्यायालय की क्या टिप्पणियां थीं?
- उच्चतम न्यायालय ने यह माना कि दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन अभिग्रहण की शक्ति और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अधीन कुर्की की शक्ति पृथक्-पृथक् और विशिष्ट शक्तियां हैं जो सह-अस्तित्व में हैं और परस्पर अनन्य नहीं हैं।
- पीठ ने टिप्पणी की कि अन्वेषणकर्त्ताओं को धारा 102 के अधीन कार्रवाई करने से पहले धारा 18क के अधीन विशेष कुर्की प्रक्रिया का सहारा लेने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि दोनों सांविधिक मार्ग स्वतंत्र रूप से संचालित होते हैं।
- न्यायालय ने कहा कि अन्वेषण के दौरान संपत्ति के दुरुपयोग को रोकने के लिये संदिग्ध अवैध धन को तुरंत फ्रीज करना अक्सर आवश्यक होता है।
- उच्चतम न्यायालय ने रतन बाबूलाल लाथ बनाम कर्नाटक राज्य के मामले पर प्रत्यर्थी के विश्वास को नामंजूर कर दिया, यह मानते हुए कि भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम को एक संपूर्ण संहिता मानने संबंधी टिप्पणी अनुच्छेद 141 के अधीन बाध्यकारी पूर्व निर्णय नहीं है, क्योंकि यह विस्तृत विश्लेषण के बिना की गई थी।
- उच्च न्यायालय के निर्णय को अपास्त करते हुए, उच्चतम न्यायालय ने पुलिस द्वारा जारी किये गए फ्रीजिंग आदेशों को बरकरार रखा और अभियुक्त लोक सेवक द्वारा उठाई गई चुनौती को खारिज कर दिया।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 102 क्या है?
बारे में:
- दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 102 अन्वेषण के दौरान कुछ संपत्ति अभिगृहीत करने के लिये पुलिस अधिकारियों की शक्ति से संबंधित है।
- इस उपबंध को अब भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS) की धारा 106 द्वारा प्रतिस्थापित कर दिया गया है, जो 1 जुलाई, 2024 से प्रभावी हुई है।
- यह धारा पुलिस अधिकारियों को ऐसी किसी भी संपत्ति को अभिगृहीत करने का अधिकार देती है जिसके बारे में यह अभिकथित किया गया हो या संदेह हो कि वह चोरी की गई है, या जो ऐसी परिस्थितियों में पाई जाती है जिससे किसी अपराध के घटित होने का संदेह उत्पन्न होता है।
- यह अन्वेषण के प्रारंभिक प्रक्रम में अन्वेषण अधिकारियों को उपलब्ध एक सामान्य अभिग्रहण की शक्ति है।
- इस उपबंध का उद्देश्य आपराधिक अन्वेषण के दौरान संपत्ति के दुरुपयोग को रोकना और साक्ष्यों को सुरक्षित रखना है।
भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 106 (संबंधित उपबंध):
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 106 दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 102 का उत्तराधिकारी उपबंध है।
- यह उपबंध दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 102 के समान ही आवश्यक शक्तियों को बरकरार रखता है, जिससे पुलिस अधिकारियों को अपराधों में सम्मिलित होने के संदेह वाली संपत्ति को अभिगृहीत करने की अनुमति मिलती है।
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता भारत में दण्ड प्रक्रिया विधियों के आधुनिकीकरण का प्रतिनिधित्व करता है, जो औपनिवेशिक काल की दण्ड प्रक्रिया संहिता का स्थान लेता है।
- भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 106 के अधीन अभिग्रहण की शक्तियां भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 के अधीन मामलों सहित सभी दाण्डिक अन्वेषणों पर लागू होती हैं।
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 102 और बैंक खाते को फ्रीज करना:
- उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 102 पुलिस को भ्रष्टाचार के मामलों में बैंक खातों को फ्रीज करने का अधिकार देती है, जो उनकी सामान्य अभिग्रहण शक्तियों का भाग है।
- यह शक्ति स्वतंत्र रूप से कार्य करती है और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम, 1988 की धारा 18क के अधीन प्रदान किये गए विशेष कुर्की तंत्र द्वारा विस्थापित नहीं होती है।
- दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन सामान्य अभिग्रहण शक्ति और भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अधीन विशेष कुर्की शक्ति दोनों सह-अस्तित्व में रह सकती हैं और परस्पर विरोधी नहीं हैं।
- अन्वेषणकर्त्ताओं को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 102 के अधीन कार्यवाही करने से पहले धारा 18क के अधीन विशेष कुर्की प्रक्रिया का सहारा लेने की आवश्यकता नहीं है।
- धारा 102 के अधीन संदिग्ध अवैध निधियों को तुरंत फ्रीज करना अन्वेषण के दौरान संपत्तियों के दुरुपयोग को रोकने के लिये आवश्यक है।
- धारा 102 के अधीन अभिगृहीत और धारा 18क के अधीन कुर्की का प्रभाव समान प्रतीत हो सकता है (संपत्ति को अभिरक्षा में लिया जाना), किंतु शक्तियां स्वयं पृथक् और विशिष्ट हैं।
- यह निर्णय अन्वेषण अभिकरणों को भ्रष्टाचार के अन्वेषण के प्रारंभिक प्रक्रम में तेजी से कार्यवाही करने के लिये एक प्रभावी तंत्र प्रदान करता है, जिससे वे भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम के अधीन विशेष प्रक्रियाओं तक सीमित नहीं रहेंगी।