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करेंट अफेयर्स और संग्रह

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आपराधिक कानून

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के अधीन कार्यरत महिला को भरणपोषण से वंचित किया गया

 12-Dec-2025

अंकित साहा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य 

"पर्याप्त आय अर्जित करने वाली और अपना भरणपोषण करने में सक्षम पत्नी धारा 125 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन भरणपोषण की हकदार नहीं हैविशेषत: तब जब उसने विचारण न्यायालय के समक्ष महत्त्वपूर्ण तथ्यों को छुपाया हो।" 

न्यायमूर्ति मदन पाल सिंह 

स्रोत: इलाहाबाद उच्च न्यायालय 

चर्चा  में क्यों? 

इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायमूर्ति मदन पाल सिंह ने अंकित साहा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2025)के मामले मेंकुटुंब न्यायालय के उस आदेश को अपास्त कर दियाजिसमें पति को अपनी पत्नी को प्रति माह 5,000 रुपए भरणपोषण के रूप में देने का निदेश दिया गया थायह मानते हुए किवह अपना भरणपोषण करने में सक्षम थीऔर उसने स्वच्छ नीयत से न्यायालय का रुख नहीं किया था। 

अंकित साहा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य और अन्य (2024) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • पत्नी (नेहा साहू) नेअपने पति से भरणपोषण की मांग करते हुए गौतम बुद्ध नगर स्थित कुटुंब न्यायालय में धारा 125 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अधीन एक आवेदन दायर किया। 
  • अपने आवेदन और शपथपत्र में पत्नी ने दावा किया कि वह निरक्षर हैबेरोजगार है और उसके पास आय का कोई स्रोत या स्वयं का भरणपोषण करने का कोई साधन नहीं है। 
  • पत्नी ने अपने शपथपत्र में कहा कि उसका उत्तरदायित्त्व "शून्य" हैं और उसने स्वयं को आर्थिक संकट में होने की स्थिति में बताया। 
  • कार्यवाही के दौरानपति ने ऐसे दस्तावेज़ प्रस्तुत किये जिनसे पता चला कि पत्नी वास्तव में स्नातकोत्तर थीवेब डिजाइनर के रूप में योग्य थी औरकीथ टेलीकॉम प्राइवेट लिमिटेड मेंवरिष्ठ विक्रय समन्वयक  (Senior Sales Coordinator) के रूप में कार्यरत थी। 
  • प्रतिपरीक्षा के दौरान इन दस्तावेज़ों का सामना करने पर पत्नी ने स्वीकार किया कि वह प्रति माह 36,000 रुपए कमा रही थी (प्रारंभ में उसने अपने शपथपत्र में 34,000 रुपए का दावा किया था)। 
  • कुटुंब न्यायालय ने पत्नी के नियोजन और आय को स्वीकार करते हुए भी, "दोनों पक्षकारों के बीच आय को संतुलित करने" और उन्हें समान दर्जा देने के लिये प्रति माह 5,000 रुपए का भरणपोषण प्रदान किया। 
  • पति ने इस आदेश को चुनौती देते हुए इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक आपराधिक पुनरीक्षण याचिका दायर कीजिसमें उसने तर्क दिया कि पत्नी के पास अपना भरणपोषण करने के लिये पर्याप्त साधन थे और उसने महत्त्वपूर्ण तथ्यों को छिपाया था। 
  • पति ने यह भी कहा कि उस पर अपने वृद्ध माता-पिता की देखरेख करने का उत्तरदायित्त्व हैजबकि पत्नी पर ऐसी कोई उत्तरदायित्त्व नहीं है।  

न्यायालय की क्या टिप्पणियां थीं? 

  • न्यायालय ने कहा कि पत्नी एक सुशिक्षितआय अर्जित करने वाली पेशेवर महिला हैजिसका मासिक वेतन 36,000 रुपए हैजिसे अन्य देनदारियों से रहित किसी व्यक्ति के लिये कम नहीं माना जा सकता है। 
  • न्यायालय ने पाया कि भरणपोषण राशि तय करते समयविचारण न्यायालयपति के वृद्ध माता-पिता के भरणपोषण की जिम्मेदारी और अन्य सामाजिक दायित्त्वों पर विचार करने में विफल रही। 
  • न्यायमूर्ति सिंह ने इस बात पर बल दिया कि धारा 125(1)(दण्ड प्रक्रिया संहिता के अनुसारभरणपोषण केवल ऐसी पत्नी को दिया जा सकता है जो "स्वयं का भरणपोषण करने में असमर्थ" हो, जो कि यहाँ मामला नहीं था। 
  • न्यायालय ने पाया कि पत्नी ने निष्पक्ष आशय से विचारण न्यायालय का रुख नहीं किया थाक्योंकि उसने अपने आवेदन और शपथपत्र में जानबूझकर अपनी शैक्षणिक योग्यतानियोजन की स्थिति और आय को छिपाया था। 
  • न्यायालय ने माना कि पत्नी द्वारा अपने आवेदन में निरक्षर और बेरोजगार होने का दावा करनाजबकि वास्तव में वह स्नातकोत्तर थी और प्रति माह 36,000 रुपये कमाती थीमहत्वपूर्ण तथ्यों को छिपाने के बराबर था। 
  • इस सिद्धांत का हवाला देते हुए कि "जब कोई व्यक्ति न्यायालय में आता हैतो उसे न केवल स्वच्छ हाथों से बल्कि स्वच्छ मनस्वच्छ हृदय और स्वच्छ उद्देश्य के साथ भी न्यायालय में आना चाहिये," न्यायालय ने कहा कि ऐसे आचरण को पुरस्कृत नहीं किया जा सकता है। 
  • न्यायालय नेरेखा शरद उशीर बनाम सप्तश्रृंगी महिला नगरी सहकारी पटसंस्था लिमिटेड (2025)में उच्चतम न्यायालय के निर्णय का हवाला दियाजिसमें यह माना गया था कि जो वादी महत्त्वपूर्ण तथ्यों को छुपाता है या मिथ्या कथन करता हैवह न्यायालय से न्याय नहीं मांग सकता है। 
  • न्यायालय ने निर्णय दिया कि पत्नी द्वारा महत्त्वपूर्ण तथ्यों को छिपाना उसे किसी भी प्रकार की सहानुभूति या भरणपोषण के अधिकार से वंचित करने का पर्याप्त आधार है। 
  • न्यायालय नेकुटुंब न्यायालय के आदेश को अपास्त कर दिया औरआपराधिक पुनरीक्षण याचिका को स्वीकार कर लियाजिससे पत्नी को भरणपोषण देने से इंकार कर दिया गया। 

दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 (अब धारा 144 भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता) क्या है? 

बारे में: 

  • दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 की धारा 125 उन पत्नियोंसंतान और माता-पिता के भरणपोषण के लिये एक उपबंध था जो अपना भरणपोषण करने में असमर्थ हैं। 
  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता (BNSS), 2023 के लागू होने के साथ ही, दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 को भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 144 से प्रतिस्थापित कर दिया गया है।इस उपबंध को मूल रूप से यथावत अपनाया गया हैजिसमें मूल विषयवस्तु और उद्देश्य को बरकरार रखा गया है। 
  • यह सामाजिक न्याय का एक उपाय है जिसे बेघरपन और दरिद्रता को रोकने के लिये बनाया गया हैजिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि जो लोग अपना भरणपोषण करने में असमर्थ हैं उन्हें उनके नातेदारों से वित्तीय सहायता प्राप्त हो। 
  • यह उपबंध पक्षकारों पर लागू होने वाली व्यक्तिगत विधि की परवाह किये बिना लागू होता है और यह एक पंथनिरपेक्ष विधि है जो सभी नागरिकों पर लागू होता है। 

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता की धारा 144: 

  • भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 (BNSS) की धारा 144 एक सामाजिक न्याय उपबंध है जिसका उद्देश्य उपेक्षित पति या पत्नी और संतान की दरिद्रता और आर्थिक कठिनाई को रोकना है। यह प्रथम वर्ग मजिस्ट्रेट को उस पत्नीधर्मज या अधर्मज संतान को मासिक भरणपोषणअंतरिम भरणपोषण और कार्यवाही व्यय प्रदान करने का अधिकार देता हैजो स्वयं का भरणपोषण करने में असमर्थ हैंऐसे व्यक्ति से जो पर्याप्त साधनों से संपन्न होते हुए भी ऐसा करने से इंकार करता है या उपेक्षा करता है। 

प्रमुख सांविधिक विशेषताएँ: 

  • धारा 144(1): मजिस्ट्रेट को पत्नी और संतान को मासिक भरणपोषण का आदेश देने का अधिकार देती है। 
  • धारा 144(1) का दूसरा परंतुक: मजिस्ट्रेट को कार्यवाही लंबित रहने के दौरान अंतरिम भरणपोषण और व्यय प्रदान करने की अनुमति देता है। 
  • धारा 144(1) का तीसरा परंतुक: निर्देश देता है कि अंतरिम भरणपोषण आवेदनों का निपटारा आदर्श रूप से नोटिस की तामील की तारीख से 60 दिनों के भीतर किया जाना चाहिये 
  • धारा 144(2): भरणपोषण आवेदन या आदेश की तिथि से देय होगाजैसा मजिस्ट्रेट उचित समझे। 
  • धारा 144(3): भरणपोषण का संदाय न करने पर वारण्ट कार्यवाही और एक मास तक का कारावास हो सकता है। 
  • धारा 144(4): जारकर्मपर्याप्त कारण के बिना पति के साथ रहने से इंकारया पृथक् रहने के लिये आपसी सहमति के मामलों में पत्नी को भरणपोषण प्राप्त करने से अयोग्य ठहराता है। 
  • धारा 145(2) के अधीन प्रक्रियात्मक स्पष्टता प्रदान की गई हैजिसमें यह अनिवार्य है कि साक्ष्य प्रत्यर्थी या उनके अधिवक्ता की उपस्थिति में अभिलिखित किया जाना चाहियेजिसमें एकतरफा कार्यवाही और तीन मास के भीतर पर्याप्त कारण दिखाने पर ऐसे आदेशों को अपास्त करने का उपबंध है। 

सिविल कानून

सरकारी स्थान अधिनियम राज्य के किराया नियंत्रण विधियों पर वरीयता रखता है

 12-Dec-2025

भारतीय जीवन बीमा निगम और अन्य बनाम वीटा 

"सरकारी स्थान पर अप्राधिकृत अधिभोग करने वाला व्यक्ति किराया नियंत्रण अधिनियम के संरक्षण का लाभ नहीं उठा सकता।" 

न्यायमूर्ति विक्रम नाथसंदीप मेहता और एन.वी. अंजारिया  

स्रोत: उच्चतम न्यायालय 

चर्चा में क्यों? 

न्यायमूर्ति विक्रम नाथसंदीप मेहता और एन.वी. अंजारी की पीठ नेलाइफ इंश्योरेंस कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया और अन्य बनाम वीटा (2025)के मामले में यह निर्णय दिया कि एक बार स्थान "सरकारी स्थान" की परिभाषा के अंतर्गत आ जाता है और किराएदारी विधिक रूप से समाप्त हो जाती हैतोअप्राधिकृत अधिभोगी राज्य किराया नियंत्रण अधिनियमों का संरक्षण प्राप्त करने का दावा नहीं कर सकते हैंऔर उन्हें सरकारी स्थान (अप्राधिकृत अधिभोगियों की बेदखलीअधिनियम, 1971 के अधीन बेदखली का सामना करना पड़ेगा। 

भारतीय जीवन बीमा निगम और अन्य बनाम वीटा (2025) मामले की पृष्ठभूमि क्या थी? 

  • इस मामले में LIC ने मुंबई स्थित एक फ्लैट से वीटा प्राइवेट लिमिटेड को बेदखल करने की मांग की थी। 
  • वीटा अप्रैल 1957 में किराएदार बनी थी, सरकारी स्थान अधिनियम के 16 सितंबर, 1958 से पूर्वव्यापी रूप से लागू होने सेबहुत पहले और LIC की स्थापना से पहले। 
  • जब LIC ने किराएदारी समाप्त करने के बाद सरकारी स्थान अधिनियम के अधीन बेदखली की कार्यवाही शुरू कीतो वीटा ने महाराष्ट्र किराया नियंत्रण अधिनियम के अधीन संरक्षण का दावा करते हुए इसका विरोध किया। 
  • 2014 मेंसुहास एच. पोफले बनाम ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड के मामले में दो न्यायाधीशों की पीठ ने किराएदारी की तारीख के आधार पर एक अंतर स्थापित कियाजिससे उन किराएदारों को संरक्षण मिला जो स्थान के "सरकारी स्थान" बनने से पहले उसमें प्रवेश कर चुके थे। 
  • सुहास पोफले के निर्णय में यह माना गया कि सरकारी स्थान अधिनियम उन किराएदारों पर लागू नहीं किया जा सकता है जो स्थान के "सरकारी स्थान" बनने से पहले (अर्थात्, LIC या राष्ट्रीयकृत बैंक जैसी सरकारी संस्था द्वारा अधिग्रहण किये जाने से पहले) उस स्थान पर कब्जा कर रहे थे। 
  • ऐसे अधिभोगियों के लियेराज्य किराया नियंत्रण अधिनियम का सुरक्षात्मक दायरा लागू रहना सुनिश्चित किया गया। 
  • बॉम्बे उच्च न्यायालय ने सुहास पोफले (2014) के निर्णय पर विश्वास करते हुए किराएदार का पक्ष लिया और बेदखली के आदेश को रद्द कर दियाजिसके बाद LIC ने उच्चतम न्यायालय में अपील की। 
  • अशोका मार्केटिंग लिमिटेड बनाम पंजाब नेशनल बैंक (1990) के मामले में संविधान पीठ के पूर्व के निर्णय से मतभेद को देखते हुएदो न्यायाधीशों की पीठ ने इस मामले को एक आधिकारिक निर्णय के लिये एक बड़ी पीठ के पास निर्दिष्ट किया 

न्यायालय की क्या टिप्पणियां थीं? 

  • न्यायमूर्ति अंजारिया द्वारा लिखित निर्णय में उच्च न्यायालय की इस बात के लिये आलोचना की गई कि उसने ' stare decisis (निर्णीत बातों पर कायम रहना)' के सिद्धांत का पालन करने में असफल रहते हुए अशोका मार्केटिंग लिमिटेड (1990) के बाध्यकारी पूर्व निर्णय को नजरअंदाज कर दियाजो सुहास पोफले (2014) के निर्णय से बहुत पहले दिया गया था। 
  • न्यायालय ने माना कि सरकारी स्थान अधिनियम एक बाद की और विशेष विधि हैजिसे विशेष रूप से सार्वजनिक स्थानों पर अप्राधिकृत अधिभोगियों से निपटने के लिये बनाई गई हैऔर यह अनिवार्य रूप से राज्य किराया नियंत्रण संविधि के परस्पर विरोधी प्रावधानों पर प्रभावी है।  
  • न्यायालय ने आगे कहा कि सरकारी स्थान अधिनियम की प्रयोज्यता अवधारित करने के लिये किराएदार द्वारा स्थान में प्रवेश करने की तिथि अप्रासंगिक है। 
  • न्यायालय नेसुहास एच. पोफले बनाम ओरिएंटल इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेड (2014) के निर्णय को खारिज कर दिया, इसे एक गलत निर्वचन बताते हुए कहा कि यह अशोका मार्केटिंग लिमिटेड (1990) के बाध्यकारी संविधान पीठ के पूर्व निर्णय के विपरीत है। 
  • न्यायालय ने अशोका मार्केटिंग लिमिटेड (1990) मामले से संबंधितविधि के प्रमुख सिद्धांतों कोइस प्रकार दोहराया: 
    • किराया नियंत्रण अधिनियम 1971 और राज्य किराया नियंत्रण अधिनियम दोनों विशेष विधि हैं। किसी भी प्रकार के टकराव की स्थिति मेंदोनों विधियों के अंतर्निहित उद्देश्य और नीति का संदर्भ लिया जाना चाहिये। किराया नियंत्रण विधियों में उल्लिखित प्रावधानों पर किराया नियंत्रण अधिनियम 1971 का प्रभुत्व होगा। 
    • इन दोनों विशेष अधिनियमों के बीच सामान्य विशेषीकरण का नियम लागू नहीं होगा। उद्देश्यनीति और विधायी आशय को ध्यान में रखते हुए, सरकारी स्थानों के अप्राधिकृत अधिभोगियों को बेदखल करने के संबंध में 1971 का सरकारी स्थान अधिनियम राज्य किराया नियंत्रण अधिनियमों पर प्रभावी होगा। 
    • सरकारी स्थान अधिनियम, 1971 के प्रावधानजहाँ तक ​​वे किराया नियंत्रण अधिनियम के दायरे में आने वाले स्थानों की बात करते हैंकिराया नियंत्रण अधिनियम के प्रावधानों पर वरीयता होगी 
    • अधिनियम की धारा 2(ङ) के अधीन 'सरकारी स्थानपर अप्राधिकृत अधोभोग वाला व्यक्तिकिराया नियंत्रण अधिनियम का संरक्षणप्राप्त नहीं कर सकता है। 
    • जिन मामलों में किराए पर दी गई संपत्तियों को राज्य किराया नियंत्रण अधिनियम के अंतर्गत आने का दावा किया जाता है और वे 'सरकारी स्थानभी बन गई हैंउन पर अप्राधिकृत अधोभोग के लिये सरकारी स्थान अधिनियम 1971 लागू होगा। 
    • सरकारी स्थान अधिनियम 1971 के अधीन परिकल्पित सांविधिक तंत्र को परिभाषा में उल्लिखित किसी भी सरकार या सरकारी संस्था द्वारा सरकारी स्थानों पर अधिभोग वापस लेने के लिये सक्रिय किया जा सकता है। 
    • सरकारी स्थान अधिनियम 1971 उन किराएदारियों पर लागू होता है जो अधिनियम के लागू होने से पहले बनाया गया था और अस्तित्व में था या जो अधिनियम के लागू होने के बाद बनाया गया हों। 
    • लागू होने के लिये दो शर्तें पूरी होनी चाहिये: पहलीकिराए पर दिया गया स्थान सरकारी स्थान अधिनियम 1971 की धारा 2(ङ) के अधीन परिभाषा के दायरे में आना चाहिये। दूसरीस्थान पर अप्राधिकृत अधिभोग होना चाहिये 
    • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 106 के अधीन नोटिस जारी करके 'सरकारी स्थानकी किराएदारी समाप्त करनाकिराएदार के कब्जे को अप्राधिकृत घोषित करने के तरीकों में से एक है। यह नियम संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1971 के लागू होने से पहले या बाद में बनाई गई किराएदारियों पर भी लागू होगा। 
    • सरकारी स्थान अधिनियम 1971 के प्रावधानों का आह्वान और प्रयोज्यता कब्जे के पहलू पर निर्भर नहीं है। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि स्थान पर अधिभोग अप्राधिकृत अधिभोग बन गया है। अधिभोग एक सतत प्रक्रिया है। 

सरकारी स्थान (अप्राधिकृत अधिभोगियों की बेदखली) अधिनियम, 1971 क्या है? 

बारे में: 

  • सरकारी स्थान (अप्राधिकृत अधिभोगियों की बेदखली) अधिनियम, 1971 (PP Act) एक विशेष विधान है जिसे सरकारी स्थानों से अप्राधिकृत अधिभोगियों को शीघ्रता से बेदखल करने के लिये अधिनियमित किया गया है।  
  • यह अधिनियम 16 ​​सितंबर, 1958 से भूतलक्षी रूप से लागू हुआ।   
  • धारा 2(ङ) के अंतर्गत "सरकारी स्थान" से तात्पर्य सरकारी संस्थाओंसरकारी क्षेत्र के उपक्रमोंराष्ट्रीयकृत बैंकों, LIC जैसी बीमा कंपनियों और अन्य निर्दिष्ट सार्वजनिक प्राधिकरणों के स्वामित्व या नियंत्रण वाले स्थानों से है। 
  • यह अधिनियम सामान्य किराया नियंत्रण विधियों के अधीन आवश्यक लंबी प्रक्रियाओं के बिनाअप्राधिकृत अधिभोगियों को बेदखल करने के लिये एक संक्षिप्त प्रक्रिया प्रदान करता है। 

उद्देश्य एवं लक्ष्य: 

  • सरकारी स्थान अधिनियम का प्राथमिक उद्देश्य अप्राधिकृत अधिभोगियों से सरकारी स्थानों को शीघ्रता से वापस लेना है जिससे सार्वजनिक संपत्ति का कुशल उपयोग सुनिश्चित किया जा सके। 
  • इस अधिनियम का उद्देश्य सार्वजनिक प्रयोजनों के लिये निर्धारित स्थानों पर अप्राधिकृत अधिभोगियों को रोककर जनहित की रक्षा करना है।  
  • इसे राज्य किराया नियंत्रण अधिनियमों के अधीन लंबी बेदखली प्रक्रियाओं को दरकिनार करने के लिये बनाया गया थाजो अक्सर सरकारी स्थानों की वसूली में वर्षों का विलंब होता था।  

जब अधिभोग अप्राधिकृत हो जाता है: 

  • संपत्ति अंतरण अधिनियम, 1882 की धारा 106 के अधीन उचित नोटिस के माध्यम से या समाप्ति के अन्य वैध तरीकों से किराएदारी समाप्त होने पर कब्जा अप्राधिकृत हो जाता है। 
  • एक बार किराएदारी समाप्त हो जाने के बादसरकारी स्थान पर निरंतर कब्जा अप्राधिकृत हो जाता हैजिससे सरकारी स्थान अधिनियम लागू हो जाता है। 
  • यह अधिनियम इस बात पर ध्यान दिये बिना लागू होता है कि मूल किराएदारी कब बनाई गई थी - चाहे परिसर "सरकारी स्थान" बनने से पहले या बाद मेंया सरकारी स्थान अधिनियम के लागू होने से पहले या बाद में। 

राज्य किराया नियंत्रण अधिनियमों के साथ संबंध: 

  • सरकारी स्थान अधिनियम और राज्य किराया नियंत्रण अधिनियम दोनों ही विशेष विधान हैंकिंतु अपने विशिष्ट उद्देश्य और नीति के कारण विवाद की स्थिति में सरकारी स्थान अधिनियम ही प्रभावी होता है।  
  • एक बार जब स्थान "सरकारी स्थान" के रूप में योग्य हो जाता है और उस पर आधिभोग अप्राधिकृत हो जाता हैतो किराएदार राज्य किराया नियंत्रण अधिनियमों के अधीन संरक्षण की मांग नहीं कर सकते हैं। 
  • सरकारी स्थान अधिनियम की संक्षिप्त बेदखली प्रक्रिया सरकारी स्थानों के अप्राधिकृत अधिभोगों के लिये राज्य किराया नियंत्रण अधिनियमों के सुरक्षात्मक प्रावधानों पर वरीयता रखती है।