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सांविधानिक विधि

मणिपुर जांच सुस्त, मंद

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 02-Aug-2023

उच्चतम न्यायालय ने मणिपुर हिंसा मामले में राज्य के डी.जी.पी. को तलब किया और न्यायिक समिति के गठन का सुझाव दिया। (observation) (उच्चतम न्यायालय)

चर्चा में क्यों?

उच्चतम न्यायालय ने मणिपुर में हिंसा से संबंधित याचिकाओं के समूह की सुनवाई के दौरान मणिपुर के पुलिस महानिदेशक (DGP) को 7 अगस्त, 2023 को न्यायालय में व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने का आदेश दिया है।

 पृष्ठभूमि:

  • मई 2023 में मणिपुर में इम्फाल घाटी में रहने वाले बहुसंख्यक मैतेई लोगों और आसपास की पहाड़ियों के कुकी आदिवासी समुदाय के बीच जातीय-धार्मिक हिंसा भड़क उठी।
  • जुलाई, 2023 तक इस हिंसा में 181 लोग मारे गए और 300 से अधिक घायल हुए तथा लगभग 54,488 लोग विस्थापित हुए।
  • वहां महिलाओं को निर्वस्त्र कर उनकी वीडियोग्राफी करने और सामूहिक बलात्कार की घटनाएं भी सामने आई हैं।
  • उच्चतम न्यायालय की तीन न्यायाधीशों की पीठ मणिपुर हिंसा से संबंधित कई याचिकाओं पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें यौन हिंसा के पीड़ितों द्वारा दायर याचिकाएं भी शामिल थीं।
  • भारत के सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता (राज्य की ओर से पेश) ने न्यायालय को आगे बताया कि इस संदर्भ में 6532 प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR) दर्ज की गई है और उनमें से 11 महिलाओं के खिलाफ अपराधों से संबंधित हैं।
  • भारत के सॉलिसिटर जनरल द्वारा यह भी कहा गया था कि राज्य में अभी तक मशीनरी पूरी तरह से खराब नहीं हुई है (जैसा कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 356 के तहत निर्दिष्ट है) और केंद्र सरकार द्वारा केंद्रीय जांच ब्यूरो (CBI) के आदेश के बाद भी व्यवस्था में बदलाव नहीं के बराबर है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ:

  • भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी. वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति जे. बी. पारदीवाला तथा न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने मणिपुर के अधिकारियों एवं राज्य पुलिस को चेतावनी देते हुए कहा कि "प्रारंभिक आंकड़ों के आधार पर, प्रथम दृष्टया ऐसा प्रतीत होता है कि घटना व एफ.आई.आर. के पंजीकरण के बीच चूक के साथ जांच धीमी रही है, गवाहों के बयान दर्ज करने की प्रक्रिया और गिरफ्तारियों की संख्या दोनों के आंकड़े सामान्य से कम हैं।" जांच की प्रकृति निर्धारित करने में न्यायालय की मदद करने के लिये, हम मणिपुर के डी.जी.पी. को न्यायालय की सहायता के लिये व्यक्तिगत रूप से उच्चतम न्यायालय में उपस्थित होने का निर्देश देते हैं।
  • भारत के मुख्य न्यायाधीश ने राज्य से 'शून्य' एफ.आई.आर. की संख्या के बारे में पूछा और उन तारीखों के बारे में भी पूछा जिस दिन 'शून्य' एफ.आई.आर. को नियमित एफ.आई.आर. के रूप में परिवर्तित किया गया था।
  • भारत के मुख्य न्यायाधीश ने आगे संकेत दिया कि न्यायालय स्थिति, पुनर्वास, घरों की बहाली का समग्र मूल्यांकन करने के लिये उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीशों की एक समिति गठित करने के बारे में विचार कर सकता है।
  • उच्चतम न्यायालय की ओर से यह भी कहा गया कि समिति यह भी सुनिश्चित करेगी कि बयान दर्ज करने से संबंधित पूर्व-जांच प्रक्रिया अब उचित तरीके से चले।

मणिपुर हिंसा:

  • मणिपुर भारत के पूर्वोत्तर में एक राज्य है जिसमें प्रमुख रूप से शामिल हैं:
    • मैतेई समूह
    • कुकी समूह
    • नागा समूह
  • नागा और कुकी लोगों को अनुसूचित जनजाति (ST) के तहत विशेष विशेषाधिकार प्राप्त हैं क्योंकि उनका उल्लेख पहले से ही जनजातियों की सरकारी सूची में है जबकि मैतेई समुदाय उस सूची का हिस्सा नहीं है।
  • मणिपुर भूमि राजस्व और भूमि सुधार अधिनियम, 1960 आदिवासी भूमि जोत को गैर-आदिवासी भूमि जोत में स्थानांतरित करने पर रोक लगाता है, जिससे मैतेई तथा अन्य लोगों को पहाड़ी जिलों में विस्तार करने से रोका जा सकता है।
  • मैतेई लोग, जो बड़े पैमाने पर हिंदू हैं, आबादी का बड़ा हिस्सा हैं और उन्हें मणिपुर के भूमि सुधार अधिनियम के अनुसार स्थानीय ज़िला परिषदों की अनुमति के अलावा राज्य के पहाड़ी क्षेत्रों में बसने से रोक दिया गया है।
  • अप्रैल 2023 में, मणिपुर उच्च न्यायालय ने राज्य सरकार को अनुसूचित जनजाति की सूची में शामिल करने के लिये मैतेई समुदाय के अनुरोध पर विचार करने का निर्देश दिया।
  • कुकी समूह को डर था कि मैतेई को अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने से मैतेई लोगों को निषिद्ध पहाड़ी क्षेत्रों में जमीन खरीदने की अनुमति मिल जाएगी।
  • इसके बाद मणिपुर के मुख्यमंत्री एन. बीरेन सिंह ने कहा कि दंगे "दो समुदायों के बीच व्याप्त गलतफहमी" के कारण भड़के थे।

कानूनी प्रावधान:

भारत का संविधान, 1950

अनुच्छेद- 356.राज्यों में सांविधानिक तंत्र के विफल हो जाने की दशा में उपबंध

(1) यदि राष्ट्रपति का किसी राज्य के 1[राज्यपाल] से प्रतिवेदन मिलने पर या अन्यथा, यह ज्ञात होने पर कि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है जिसमें उस राज्य का शासन इस संविधान के उपबंधों के अनुसार नहीं चलाया जा सकता है, तो राष्ट्रपति उद्घोषणा द्वारा-

(क) उस राज्य की सरकार के सभी या कोई कृत्य और 2[राज्यपाल] में या राज्य के विधान-मंडल से भिन्न राज्य के किसी निकाय या प्राधिकारी में निहित या उसके द्वारा प्रयोक्तव्य सभी या कोई शक्तियां अपने हाथ में ले सकेगा;

(ख) यह घोषणा कर सकेगा कि राज्य के विधान-मंडल की शक्तियां संसद द्वारा या उसके प्राधिकार के अधीन प्रयोक्तव्य होंगी;

(ग) राज्य के किसी निकाय या प्राधिकारी से संबंधित इस संविधान के किन्हीं उपबंधों के प्रवर्तन को पूर्णतः या भागतः निलंबित करने के लिये उपबंधों सहित ऐसे आनुषंगिक और पारिणामिक उपबंध कर सकेगा जो उद्घोषणा के उद्देश्यों को प्रभावी करने के लिये राष्ट्रपति को आवश्यक या वांछनीय प्रतीत हों;

(1) परन्तु इस खंड की कोई बात राष्ट्रपति को उच्च न्यायालय में निहित या उसके द्वारा प्रयोक्तव्य किसी शक्ति को अपने हाथ में लेने या उच्च न्यायालयों से संबंधित इस संविधान के किसी उपबंध के प्रवर्तन को पूर्णतः या भागतः निलंबित करने के लिये प्राधिकृत नहीं करेगी।

(2) ऐसी कोई उद्घोषणा किसी पश्चातवर्ती उद्घोषणा द्वारा वापस ली जा सकेगी या उसमें परिवर्तन किया जा सकेगा।

(3) इस अनुच्छेद के अधीन की गई प्रत्येक उद्घोषणा संसद् के प्रत्येक सदन के समक्ष रखी जाएगी और जहां वह पूर्ववर्ती उद्घोषणा को वापस लेने वाली उद्घोषणा नहीं है। वहां वह दो मास की समाप्ति पर प्रवर्तन में नहीं रहेगी यदि उस अवधि की समाप्ति से पहले संसद् के दोनों सदनों के संकल्पों द्वारा उसका अनुमोदन नहीं किया जाता है:

परन्तु यदि ऐसी कोई उद्घोषणा (जो पूर्ववर्ती उद्घोषणा को वापस लेने वाली उद्घोषणा नहीं है) उस समय की जाती है जब लोक सभा का विघटन हो गया है या लोक सभा का विघटन इस खंड में निर्दिष्ट दो मास की अवधि के दौरान हो जाता है और यदि उद्घोषणा का अनुमोदन करने वाला संकल्प राज्य सभा द्वारा पारित कर दिया गया है, किन्तु ऐसी उद्घोषणा के संबंध में कोई संकल्प लोक सभा द्वारा उस अवधि की समाप्ति से पहले पारित नहीं किया गया है तो, उद्घोषणा उस तारीख से जिसको लोक सभा अपने पुनर्गठन के पश्चात् प्रथम बार बैठती है, तीस दिन की समाप्ति पर, प्रवर्तन में नहीं रहेगी यदि उक्त तीस दिन की अवधि की समाप्ति से पहले उद्घोषणा का अनुमोदन करने वाला संकल्प लोक सभा द्वारा भी पारित नहीं किया जाता है।

(4) इस प्रकार अनुमोदित उद्घोषणा, यदि वापस नहीं ली जाती है तो,  3[ऐसी उद्घोषणा के किये जाने की तारीख से छह मास की अवधि की समाप्ति पर प्रवर्तन में नहीं रहेगी:

परन्तु यदि और जितनी बार ऐसी उद्घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने का अनुमोदन करने वाला संकल्प संसद् के दोनों सदनों द्वारा पारित कर दिया जाता है और उतनी बार वह उद्घोषणा, यदि वापस नहीं ली जाती है तो, उस तारीख से जिसको वह इस खंड के अधीन अन्यथा प्रवर्तन में नहीं रहती, छह मास की अवधि तक प्रवृत्त बनी रहेगी, किन्तु ऐसी उद्घोषणा किसी भी दशा में तीन वर्ष से अधिक प्रवृत्त नहीं रहेगी;

परन्तु इसके अतिरिक्त यदि लोक सभा का विघटन 5[छह मास) की ऐसी अवधि के दौरान हो जाता है और ऐसी उद्घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने का अनुमोदन करने वाला संकल्प राज्य सभा द्वारा पारित कर दिया गया है, किन्तु उद्घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने के संबंध में कोई संकल्प लोक सभा द्वारा उक्त अवधि के दौरान पारित नहीं किया गया है तो, उद्घोषणा उस तारीख से, जिसको लोक सभा अपने पुनर्गठन के पश्चात् प्रथम बार बैठती है, तीस दिन की समाप्ति पर, प्रवर्तन में नहीं रहेगी यदि उक्त तीस दिन की अवधि की समाप्ति से पहले उद्घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने का अनुमोदन करने वाला संकल्प लोक सभा द्वारा भी पारित नहीं किया जा सकता है:

परन्तु यह भी कि पंजाब राज्य की बाबत (मुद्दे) 11 मई, 1987 को खंड (1) के अधीन अनुमोदित की गई उद्घोषणा की दशा में, इस खंड के पहले परन्तुक में "तीन वर्ष" के प्रति निर्देश का इस प्रकार अर्थ लगाया जाएगा मानो वह पांच वर्ष" के प्रति निर्देश हों।

(5) खंड (4) में किसी बात के होते हुए भी, खंड (3) के अधीन अनुमोदित उद्घोषणा के किये जाने की तारीख से एक वर्ष की समाप्ति से आगे किसी अवधि के लिये ऐसी उद्घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखने के संबंध में कोई संकल्प संसद् के किसी सदन द्वारा तभी पारित किया जाएगा जब-

(क) ऐसे संकल्प के पारित किये जाने के समय आपात की उद्घोषणा, यथास्थिति, संपूर्ण भारत में अथवा संपूर्ण राज्य या उसके किसी भाग में प्रवर्तन में है; और

(ख) निर्वाचन आयोग यह प्रमाणित कर देता है कि ऐसे संकल्प में संबंधित राज्य की विधान सभा के साधारण निर्वाचन कराने में कठिनाइयों के कारण  विनिर्दिष्ट अवधि के दौरान खंड (3) के अधीन अनुमोदित उद्घोषणा को प्रवृत्त बनाए रखना आवश्यक है:

परन्तु इस खंड की कोई बात पंजाब राज्य की बाबत 11 मई, 1987 को खंड (1) के अधीन की गई उद्घोषणा के साथ लागू नहीं होगी।

फौजदारी कानून:

प्रथम सूचना रिपोर्ट (FIR)

  • दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 या किसी अन्य कानून में एफ.आई.आर. को कहीं भी परिभाषित नहीं किया गया है, लेकिन संहिता की धारा 154 बताती है कि प्रथम सूचना क्या है।
  • इसका मतलब है किसी संज्ञेय अपराध के घटित होने के संबंध में पीड़ित व्यक्ति या किसी अन्य व्यक्ति द्वारा पुलिस स्टेशन के प्रभारी अधिकारी द्वारा सबसे पहले दर्ज की गई जानकारी।
  • यदि पुलिस स्टेशन का प्रभारी अधिकारी सूचना दर्ज करने से इंकार करता है तो सूचना का सार सी.आर.पी.सी. की धारा 156(3) के तहत लिखित रूप में संबंधित पुलिस अधीक्षक को भेजा जाएगा।
  • एफ.आई.आर. की एक प्रति सूचना देने वाले को तुरंत निःशुल्क दी जाएगी।
  • एफ.आई.आर. के आधार पर पुलिस अपनी जांच शुरू करती है ।
  • धारा 154(1) के तहत इस संहिता द्वारा यह भी प्रावधान है कि यदि सूचना उस महिला द्वारा दी गई है जिसने धारा 326a, 326b, 354, 354a, 354b, 354c, 354d, 376, 376a, 376ab, 376b के तहत अपराध किया है या उसपर भारतीय दंड संहिता की धारा 376c, 376d, 376da, 376db, 376e, 509 के तहत अपराध करने या प्रयास करने का आरोप है/हैं, तो ऐसी जानकारी महिला पुलिस अधिकारी या किसी महिला अधिकारी द्वारा दर्ज की जाएगी।
  • कानून का स्वर्णिम सिद्धांत यह बताता है कि एफ.आई.आर. हमेशा तुरंत और बिना समय बर्बाद किये दर्ज की जानी चाहिये क्योंकि इस तरह की रिपोर्ट में छेड़छाड़ के न्यूनतम बदलाव के कारण रिपोर्ट अधिकतम विश्वसनीयता प्राप्त करती है।
  • ललिता कुमारी बनाम उत्तर प्रदेश सरकार (2013) के मामले में उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में कहा कि पुलिस को उन मामलों में एफ.आई.आर. दर्ज करनी चाहिये जहां संज्ञेय अपराध का खुलासा करने वाली जानकारी हो और जहां पुलिस अधिकारी एफ.आई.आर. दर्ज करने से इनकार करता है तो यह कर्तव्य में लापरवाही के समान है।

शून्य या ज़ीरो एफ.आई.आर.:

  • शून्य या ज़ीरो एफ.आई.आर. एक ऐसी एफ.आई.आर. है जिसे किसी भी पुलिस स्टेशन द्वारा, क्षेत्राधिकार की परवाह किये बिना, संज्ञेय अपराध के संबंध में शिकायत मिलने पर दर्ज किया जा सकता है।
  • इस स्तर पर नियमित एफ.आई.आर. नंबर निर्दिष्ट नहीं किया जाता है।
  • जीरो एफ.आई.आर. मिलने के बाद रेवेनेंट पुलिस स्टेशन नई एफ.आई.आर. दर्ज करता है और जांच शुरू करता है।
  • इस एफ.आई.आर. का उद्देश्य गंभीर अपराधों के पीड़ितों, विशेषकर महिलाओं एवं बच्चों को एक पुलिस स्टेशन से दूसरे पुलिस स्टेशन तक जाए बिना, जल्दी और आसानी से शिकायत दर्ज कराने में मदद करना है।