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आपराधिक कानून

भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 35 के अधीन गिरफ्तारी

 31-Jul-2024

तवारागी राजशेखर शिव प्रसाद बनाम कर्नाटक राज्य

“BNSS की धारा 35 के अधीन जारी किये जाने वाले नोटिस में अपराध संख्या, अपराध में आरोपित अपराध का उल्लेख करना एवं उसके साथ FIR की एक प्रति संलग्न करना अनिवार्य है।”

न्यायमूर्ति एम. नागप्रसन्ना

स्रोत: कर्नाटक उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

न्यायमूर्ति एम. नागप्रसन्ना की पीठ ने कहा कि भारतीय नागरिक सुरक्षा संहिता, 2023 की धारा 35 के अधीन नोटिस में अपराध संख्या एवं कथित अपराध का विवरण होना चाहिये तथा इसके साथ FIR की प्रति संलग्न की जानी चाहिये।

  • कर्नाटक उच्च न्यायालय ने तवारागी राजशेखर शिव प्रसाद बनाम कर्नाटक राज्य के मामले में यह व्यवस्था दी।

तवारागी राजशेखर शिव प्रसाद बनाम कर्नाटक राज्य मामले की पृष्ठभूमि क्या है?

  • इस मामले में याचिकाकर्त्ता स्वयं को एक प्रतिष्ठित पत्रकार के रूप में प्रदर्शित करता है। 
  • उसे 6 जून 2024 को व्हाट्सएप पर एक नोटिस मिला। यह नोटिस दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 41 (1) (a) के अधीन जारी किया गया था, जिसमें किसी भी अपराध के पंजीकरण का उल्लेख नहीं है जिसके अधीन नोटिस जारी किया गया था। 
  • याचिकाकर्त्ता का दावा है कि उसने नोटिस के विषय में पूछताछ की तथा नोटिस जारी करने के कारणों की मांग की, हालाँकि उसे अपराध के विवरण के विषय में नहीं बताया गया। 
  • इसलिये याचिकाकर्त्ता न्यायालय में अपील की।

न्यायालय की क्या टिप्पणियाँ थीं?

  • इस मामले में उच्च न्यायालय ने पाया कि इस तरह जारी किया गया नोटिस हालाँकि CrPC की धारा 41 (1) (a) का हवाला देता है, लेकिन वास्तव में यह CrPC की धारा 41-A के अधीन जारी किया गया है क्योंकि याचिकाकर्त्ता को पुलिस के समक्ष प्रस्तुत होने का निर्देश दिया गया है। 
  • धारा 41-A के अधीन जारी किये गए किसी भी नोटिस का अगर पालन नहीं किया जाता है तो नोटिस प्राप्त करने वाले को गिरफ्तार किया जा सकता है। इसलिये, नोटिस प्राप्त करने वाले को पता होना चाहिये कि उसे पुलिस स्टेशन क्यों बुलाया जा रहा है।
  • नागरिक को यह पता होना चाहिये कि उसे क्यों बुलाया जा रहा है और नागरिक को दी गई सूचना अधूरी नहीं होनी चाहिये। नोटिस में अपराध संख्या एवं जिस उद्देश्य के लिये उसे बुलाया जा रहा है, उसका उल्लेख होना चाहिये। 
  • न्यायालय ने कहा कि नोटिस इलेक्ट्रॉनिक रूप से जारी किया जा सकता है, लेकिन पुलिस अधिकारी को अपराध संख्या का उल्लेख करना चाहिये तथा साथ ही संचार के साथ FIR की एक प्रति भी संलग्न करनी चाहिये।
  • इसके बाद न्यायालय ने BNSS की धारा 35 की तुलना CrPC की धारा 41 से की। 
  • न्यायालय ने अंततः किसी भी व्यक्ति को समन भेजने के लिये दिशा-निर्देश जारी किये। निम्नलिखित प्रक्रियाओं का पालन किया जाना चाहिये:
    • BNSS की धारा 35 के अधीन नोटिस में अपराध संख्या एवं अपराध संख्या में आरोपित अपराध का उल्लेख किया जाएगा। इसे नोटिस प्राप्तकर्त्ता को पारंपरिक तरीके से या इलेक्ट्रॉनिक मोड के माध्यम से सूचित किया जा सकता है।
    • संचार में दर्ज की गई FIR की एक प्रति संलग्न की जाएगी, क्योंकि FIR में शिकायत का सार होगा।
    • यदि नोटिस में अपराध संख्या, आरोपित अपराध या FIR संलग्न करने की सूचना नहीं है, तो अपवादों के अधीन, नोटिस प्राप्तकर्त्ता को उस अधिकारी के समक्ष उपस्थित होने के लिये बाध्य नहीं किया जाएगा जिसने उसे उपस्थित होने का निर्देश दिया है तथा उपस्थित न होने पर कोई दण्डात्मक कार्यवाही नहीं की जा सकती है। 
    • पुलिस विभाग के लिये यह भी आवश्यक है कि वह FIR को तुरंत उनके पंजीकरण पर अपलोड करने के लिये एक सशक्त प्रणाली लाए एवं इसे अंवेषण के अनुकूल बनाए।

गिरफ्तारी एवं गिरफ्तारी के लिये नोटिस का प्रावधान क्या है?

  • CrPC की धारा 41 और धारा 41 A में क्रमशः गिरफ्तारी एवं पुलिस अधिकारी के समक्ष उपस्थित होने की सूचना का प्रावधान है। यह BNSS की धारा 35 में निहित है। 
  • CrPC और BNSS के मध्य तुलना:

CrPC की धारा 41 एवं 41A 

BNSS की धारा 35

धारा 41: 

(1) कोई भी पुलिस अधिकारी मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना और वारंट के बिना किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है-

(क) जो किसी पुलिस अधिकारी की उपस्थिति में कोई संज्ञेय अपराध कारित करता है;

(ख) जिसके विरुद्ध उचित शिकायत की गई है, या विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई है, या उचित संदेह विद्यमान है कि उसने कोई संज्ञेय अपराध किया है, जिसके लिये कारावास की अवधि सात वर्ष से कम या सात वर्ष तक की हो सकेगी, चाहे ज़ुर्माने सहित या रहित, दण्डनीय है, यदि निम्नलिखित शर्तें पूरी होती हैं, अर्थात्—

(i) पुलिस अधिकारी के पास ऐसी शिकायत, सूचना या संदेह के आधार पर यह विश्वास करने का कारण है कि ऐसे व्यक्ति ने उक्त अपराध किया है; (ii) पुलिस अधिकारी का यह समाधान हो जाता है कि ऐसी गिरफ्तारी आवश्यक है-

(a) ऐसे व्यक्ति को आगे कोई अपराध करने से रोकने के लिये; या

(b) अपराध की उचित जाँच के लिये; या

(c) ऐसे व्यक्ति को अपराध के साक्ष्य को गायब करने या किसी भी तरीके से ऐसे साक्ष्य के साथ छेड़छाड़ करने से रोकने के लिये; या

(d) ऐसे व्यक्ति को मामले के तथ्यों से परिचित किसी व्यक्ति को कोई प्रलोभन, धमकी या वचन देने से रोकना जिससे कि वह ऐसे तथ्यों को न्यायालय या पुलिस अधिकारी के समक्ष प्रकट करने से विरत हो जाए; या

(e) जब तक ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया जाता है, तब तक जब भी आवश्यक हो, न्यायालय में उसकी उपस्थिति सुनिश्चित नहीं की जा सकती है, 

और पुलिस अधिकारी ऐसी गिरफ्तारी करते समय उसके कारणों को लिखित रूप में दर्ज करेगा: बशर्ते कि पुलिस अधिकारी उन सभी मामलों में जहां इस उपधारा के प्रावधानों के तहत किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी आवश्यक नहीं है, गिरफ्तारी न करने के कारणों को लिखित रूप में दर्ज करेगा।

(ba) जिसके विरुद्ध विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई है कि उसने कोई संज्ञेय अपराध किया है, जो सात वर्ष से अधिक की अवधि के कारावास से, ज़ुर्माने सहित या रहित, या मृत्युदण्ड से दण्डनीय है और पुलिस अधिकारी के पास उस सूचना के आधार पर यह विश्वास करने का कारण है कि ऐसे व्यक्ति ने उक्त अपराध किया है;

(c) जिसे इस संहिता के अधीन या राज्य सरकार के आदेश द्वारा अपराधी घोषित किया गया हो; या

(d) जिसके कब्ज़े में कोई ऐसी वस्तु पाई जाती है जिसके विषय में उचित रूप से संदेह हो कि वह चोरी की संपत्ति है और जिसके विषय में उचित रूप से संदेह हो कि उसने ऐसी वस्तु के संदर्भ में कोई अपराध किया है; या 

(e) जो किसी पुलिस अधिकारी को उसके कर्त्तव्य के निष्पादन में बाधा डालता है, या जो विधिपूर्ण अभिरक्षा से भाग निकला है, या भागने का प्रयास करता है; या

(f) जिसके विषय में उचित संदेह है कि वह संघ के किसी सशस्त्र बल का भगोड़ा है; या

(g) जो भारत से बाहर किसी स्थान पर किये गए किसी ऐसे कार्य में संलिप्त रहा है, या जिसके विरुद्ध उचित शिकायत की गई है, या विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई है, या उचित संदेह विद्यमान है, जो यदि भारत में किया जाता तो अपराध के रूप में दण्डनीय होता, और जिसके लिये वह प्रत्यर्पण से संबंधित किसी कानून के अधीन, या अन्यथा, भारत में पकड़ा जा सकता है या अभिरक्षा में रखा जा सकता है; या

(h) जो रिहा किया गया सिद्धदोष होते हुए धारा 356 की उपधारा (5) के अधीन बनाए गए किसी नियम का उल्लंघन करता है; या

(i) जिसकी गिरफ्तारी के लिये किसी अन्य पुलिस अधिकारी से लिखित या मौखिक कोई अध्यपेक्षा प्राप्त हुई है, बशर्ते कि अध्यपेक्षा में गिरफ्तार किये जाने वाले व्यक्ति और उस अपराध या अन्य कारण का उल्लेख हो जिसके लिये गिरफ्तारी की जानी है और उससे यह प्रतीत होता है कि अध्यपेक्षा जारी करने वाले अधिकारी द्वारा उस व्यक्ति को बिना वारंट के विधिपूर्वक गिरफ्तार किया जा सकता है।

धारा 35:

(1) कोई भी पुलिस अधिकारी मजिस्ट्रेट के आदेश के बिना और वारंट के बिना किसी भी व्यक्ति को गिरफ्तार कर सकता है-

(क) जो किसी पुलिस अधिकारी की उपस्थिति में कोई संज्ञेय अपराध कारित करता है; या

(ख) जिसके विरुद्ध उचित शिकायत की गई है, या विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई है, या उचित संदेह विद्यमान है कि उसने कोई संज्ञेय अपराध किया है, जिसके लिये कारावास की अवधि सात वर्ष से कम या सात वर्ष तक की हो सकेगी, चाहे ज़ुर्माने सहित या रहित, दण्डनीय है, यदि निम्नलिखित शर्तें पूरी होती हैं, अर्थात्—

(i) पुलिस अधिकारी के पास ऐसी शिकायत, सूचना या संदेह के आधार पर यह विश्वास करने का कारण है कि ऐसे व्यक्ति ने उक्त अपराध किया है; (ii) पुलिस अधिकारी का यह समाधान हो जाता है कि ऐसी गिरफ्तारी आवश्यक है-

(a) ऐसे व्यक्ति को आगे कोई अपराध करने से रोकने के लिये; या

(b) अपराध की उचित जाँच के लिये; या

(c) ऐसे व्यक्ति को अपराध के साक्ष्य को गायब करने या किसी भी तरीके से ऐसे साक्ष्य के साथ छेड़छाड़ करने से रोकने के लिये; या

(d) ऐसे व्यक्ति को मामले के तथ्यों से परिचित किसी व्यक्ति को कोई प्रलोभन, धमकी या वचन देने से रोकना जिससे कि वह ऐसे तथ्यों को न्यायालय या पुलिस अधिकारी के समक्ष प्रकट करने से विरत हो जाए; या

(e) जब तक ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया जाता, तब तक जब भी आवश्यक हो, न्यायालय में उसकी उपस्थिति सुनिश्चित नहीं की जा सकती, और पुलिस अधिकारी ऐसी गिरफ्तारी करते समय उसके कारणों को लिखित रूप में दर्ज करेगा: बशर्ते कि पुलिस अधिकारी उन सभी मामलों में, जहां इस उपधारा के प्रावधानों के तहत किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी आवश्यक नहीं है, गिरफ्तारी न करने के कारणों को लिखित रूप में दर्ज करेगा; या

(ग) जिसके विरुद्ध विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई है कि उसने कोई संज्ञेय अपराध किया है, जो सात वर्ष से अधिक की अवधि के कारावास से, जुर्माने सहित या रहित, या मृत्युदण्ड से दण्डनीय है और पुलिस अधिकारी के पास उस सूचना के आधार पर यह विश्वास करने का कारण है कि ऐसे व्यक्ति ने उक्त अपराध किया है; या

(d) जिसे इस संहिता के अधीन या राज्य सरकार के आदेश द्वारा अपराधी घोषित किया गया हो; या

(e) जिसके कब्ज़े में कोई ऐसी वस्तु पाई गई हो जिसके बारे में उचित रूप से संदेह हो कि वह चोरी की संपत्ति है और जिसके बारे में उचित रूप से संदेह हो कि उसने ऐसी वस्तु के संदर्भ में कोई अपराध किया है; या

(f) जो किसी पुलिस अधिकारी को उसके कर्त्तव्य के निष्पादन में बाधा डालता है, या जो विधिपूर्ण अभिरक्षा से भाग निकला है, या भागने का प्रयास करता है; या

(g) जिसके बारे में उचित रूप से संदेह है कि वह संघ के किसी सशस्त्र बल का भगोड़ा है; या

(h) जो भारत से बाहर किसी स्थान पर किये गए किसी ऐसे कार्य में संलिप्त रहा है, या जिसके विरुद्ध उचित शिकायत की गई है, या विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई है, या उचित संदेह विद्यमान है, जो यदि भारत में किया जाता तो अपराध के रूप में दण्डनीय होता और जिसके लिये वह प्रत्यर्पण से संबंधित किसी कानून के अंतर्गत, या अन्यथा, भारत में पकड़ा जा सकता है या अभिरक्षा में रखा जा सकता है; या

(i) जो रिहा किया गया सिद्धदोष होते हुए धारा 394 की उपधारा (5) के अधीन बनाए गए किसी नियम का उल्लंघन करता है; या

(j) जिसकी गिरफ्तारी के लिये किसी अन्य पुलिस अधिकारी से लिखित या मौखिक अध्यपेक्षा प्राप्त हुई है, परंतु अध्यपेक्षा में गिरफ्तार किये जाने वाले व्यक्ति और उस अपराध या अन्य कारण का उल्लेख हो जिसके लिये गिरफ्तारी की जानी है और उससे यह प्रतीत होता है कि अध्यपेक्षा जारी करने वाले अधिकारी द्वारा उस व्यक्ति को बिना वारंट के विधिपूर्वक गिरफ्तार किया जा सकता है।

(2) धारा 42 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, किसी असंज्ञेय अपराध से संबंधित व्यक्ति या जिसके विरुद्ध कोई शिकायत की गई है या विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई है या उसके इस प्रकार संबंधित होने का उचित संदेह है, को मजिस्ट्रेट के वारंट या आदेश के सिवाय गिरफ्तार नहीं किया जाएगा, अन्यथा नहीं।

(2) धारा 39 के उपबंधों के अधीन रहते हुए, किसी असंज्ञेय अपराध से संबद्ध किसी व्यक्ति को या जिसके विरुद्ध कोई शिकायत की गई है या विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई है या उसके ऐसे संबद्ध होने का उचित संदेह है, मजिस्ट्रेट के वारंट या आदेश के अधीन ही गिरफ्तार किया जाएगा, अन्यथा नहीं।

धारा 41 A:

(1) पुलिस अधिकारी उन सभी मामलों में, जहाँ धारा 41 की उपधारा (1) के प्रावधानों के अधीन किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी अपेक्षित नहीं है, नोटिस जारी करेगा जिसमें उस व्यक्ति को निर्देश दिया जाएगा जिसके विरुद्ध उचित शिकायत की गई है या विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई है या उचित संदेह है कि उसने कोई संज्ञेय अपराध किया है, कि वह उसके समक्ष या ऐसे अन्य स्थान पर उपस्थित हो, जैसा कि नोटिस में निर्दिष्ट किया जा सकता है।

(3) पुलिस अधिकारी उन सभी मामलों में, जहाँ उपधारा (1) के अधीन किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी अपेक्षित नहीं है, नोटिस जारी करके उस व्यक्ति को, जिसके विरुद्ध उचित शिकायत की गई है या विश्वसनीय सूचना प्राप्त हुई है या उचित संदेह है कि उसने कोई संज्ञेय अपराध किया है, अपने समक्ष या ऐसे अन्य स्थान पर, जैसा नोटिस में विनिर्दिष्ट किया जाए, उपस्थित होने का निर्देश देगा।

(2) जहाँ ऐसा नोटिस किसी व्यक्ति को जारी किया जाता है, वहाँ उस व्यक्ति का यह कर्त्तव्य होगा कि वह नोटिस की शर्तों का पालन करे।

(4) जहाँ ऐसा नोटिस किसी व्यक्ति को जारी किया जाता है, वहाँ उस व्यक्ति का यह कर्त्तव्य होगा कि वह नोटिस की शर्तों का पालन करे।

(3) जहाँ ऐसा व्यक्ति नोटिस का अनुपालन करता है और अनुपालन करना जारी रखता है, वहाँ उसे नोटिस में निर्दिष्ट अपराध के संबंध में तब तक गिरफ्तार नहीं किया जाएगा जब तक कि, अभिलिखित किये जाने वाले कारणों से, पुलिस अधिकारी की यह राय न हो कि उसे गिरफ्तार किया जाना चाहिये।

(5) जहाँ ऐसा व्यक्ति नोटिस का अनुपालन करता है और अनुपालन करना जारी रखता है, वहाँ उसे नोटिस में निर्दिष्ट अपराध के संबंध में तब तक गिरफ्तार नहीं किया जाएगा जब तक कि, अभिलिखित किये जाने वाले कारणों से, पुलिस अधिकारी की यह राय न हो कि उसे गिरफ्तार किया जाना चाहिये।

(4) जहाँ ऐसा व्यक्ति किसी भी समय नोटिस की शर्तों का पालन करने में असफल रहता है या अपनी पहचान बताने के लिये अनिच्छुक है, वहाँ पुलिस अधिकारी, सक्षम न्यायालय द्वारा इस संबंध में पारित आदेशों के अधीन रहते हुए, नोटिस में उल्लिखित अपराध के लिये उसे गिरफ्तार कर सकेगा।

(6) जहाँ ऐसा व्यक्ति किसी भी समय नोटिस की शर्तों का पालन करने में असफल रहता है या अपनी पहचान बताने के लिये अनिच्छुक है, वहाँ पुलिस अधिकारी, सक्षम न्यायालय द्वारा इस संबंध में पारित आदेशों के अधीन रहते हुए, नोटिस में उल्लिखित अपराध के लिये उसे गिरफ्तार कर सकेगा।

(7) किसी ऐसे अपराध के मामले में, जो तीन वर्ष से कम के कारावास से दण्डनीय है और ऐसा व्यक्ति अशक्त है या साठ वर्ष से अधिक आयु का है, पुलिस उपाधीक्षक से निम्न पद के अधिकारी की पूर्व अनुमति के बिना कोई गिरफ्तारी नहीं की जाएगी।

  • यह ध्यान दिया जाना चाहिये कि CrPC के अधीन पुलिस अधिकारी के समक्ष उपस्थित होने का नोटिस धारा 41 A में निहित है तथा गिरफ्तारी के आधार धारा 41 में उल्लिखित हैं। हालाँकि BNSS के अधीन इन दोनों प्रावधानों को BNSS की धारा 35 के अधीन समाहित कर दिया गया है। 
  • धारा 35 (7) के रूप में एक नया प्रावधान जोड़ा गया है। 
  • BNSS की धारा 35 (7) में प्रावधान है कि पुलिस उपाधीक्षक के पद से नीचे के अधिकारी की पूर्व अनुमति के बिना कोई गिरफ्तारी नहीं की जाएगी:
    • इस अपराध के लिये तीन वर्ष से कम की सज़ा का प्रावधान है; तथा 
    • ऐसा व्यक्ति अशक्त हो या उसकी आयु साठ वर्ष से अधिक हो।

सांविधानिक विधि

जीविका वृत्ति, सम्मान एवं समानता का अधिकार

 31-Jul-2024

गौरव कुमार बनाम भारत संघ 

“राज्य विधिज्ञ परिषदों द्वारा लगाया गया अत्यधिक नामांकन शुल्क संविधान के अनुच्छेद 14, 19(1)(g) और अनुच्छेद 21 का उल्लंघन है, जो विधिक अभ्यास करने के आकांक्षी अधिवक्ताओं के समानता, जीविकावृत्ति हेतु अभ्यास एवं गरिमा के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन करता है”।

CJI डी.वाई. चंद्रचूड़, जस्टिस जे.बी. पारदीवाला और मनोज मिश्रा

स्रोत: उच्चतम न्यायालय

चर्चा में क्यों?

गौरव कुमार बनाम भारत संघ मामले में उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया है कि राज्य विधिज्ञ परिषदों द्वारा लगाया गया उच्च नामांकन शुल्क असंवैधानिक है, क्योंकि यह विधिक अभ्यास करने के आकांक्षी अधिवक्ताओं के अभ्यास करने के अधिकार का उल्लंघन करता है तथा समानता के सिद्धांतों को क्षीण करता है।

  • न्यायालय ने इन शुल्कों की एक सीमा निर्धारित करते हुए सामान्य श्रेणी के अधिवक्ताओं के लिये 750 रुपए तथा अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के अधिवक्ताओं के लिये 125 रुपए निर्धारित की तथा इस बात पर ज़ोर दिया कि ऐसे शुल्कों से हाशिए पर पड़े समूहों के साथ भेदभाव नहीं होना चाहिये।

गौरव कुमार बनाम भारत संघ मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • अधिवक्ता अधिनियम, 1961 (अधिनियम) विधिक व्यवसायियों से संबंधित विधानों को संशोधित एवं समेकित करने तथा भारत के लिये एक सामान्य विधिज्ञ संघ बनाने के लिये अधिनियमित किया गया था।
  • यह अधिनियम राज्य विधिज्ञ परिषद् (SBC) और भारतीय विधिज्ञ परिषद् (BCI) की स्थापना करता है।
  • राज्य विधिज्ञ परिषद् (SBC) अधिवक्ताओं को भर्ती करने, सूचियाँ (रोल) बनाने, कदाचार के मामलों को संभालने और अधिवक्ताओं के अधिकारों की रक्षा के लिये उत्तरदायी हैं।
  • भारतीय विधिज्ञ परिषद् (BCI) के कार्यों में व्यावसायिक आचरण मानक निर्धारित करना, SBC की देखरेख करना और विधिक शिक्षा को विनियमित करना शामिल है।
  • अधिवक्ता के रूप में भर्ती होने के लिये व्यक्ति को अधिनियम की धारा 24 में उल्लिखित विशिष्ट योग्यताएँ पूरी करनी होंगी।
  • धारा 24(1)(f), SBC और BCI को देय नामांकन शुल्क निर्धारित करती है।
  • SBC वैधानिक नामांकन शुल्क के अतिरिक्त भी अन्य शुल्क लेते हैं, जो कुल मिलाकर 15,000 रुपए से लेकर 42,000 रुपए तक होता है।
  • भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 32 के अंतर्गत एक याचिका दायर की गई थी जिसमें इन अतिरिक्त शुल्कों को अधिवक्ता अधिनियम की धारा 24(1)(f) का उल्लंघन बताते हुए चुनौती दी गई थी।
  • SBC की शुल्क संरचना अनुच्छेद 19(1)(g) का उल्लंघन है, संबंधित अधिकारी केवल मूल अधिनियम के विधायी आशय के अनुसार ही शुल्क लगा सकते हैं।
  • यह मामला, अनुच्छेद 19(1)(g) के अंतर्गत जीविकावृत्ति के अधिकार एवं अन्य मौलिक अधिकारों जैसे- अनुच्छेद 21 के अंतर्गत सम्मान के अधिकार तथा अनुच्छेद 14 के अंतर्गत समानता के अधिकार - पर प्रभाव डालता है तथा इन अनुच्छेदों के बीच सर्वोत्कृष्ट संबंध को प्रदर्शित करता है।
  • उच्चतम न्यायालय ने इस याचिका को एक महत्त्वपूर्ण मुद्दा मानते हुए इस पर अधिसूचना ज़ारी की।
  • विभिन्न उच्च न्यायालयों से इसी प्रकार की याचिकाएँ विचारण हेतु उच्चतम न्यायालय में स्थानांतरित कर दी गईं।
  • जिन मुख्य मुद्दों पर विचार किया गया, वे हैं कि क्या SBC द्वारा लिया जाने वाला नामांकन शुल्क अधिनियम की धारा 24(1)(f) का उल्लंघन करता है और क्या अन्य विविध शुल्कों को नामांकन के लिये पूर्व शर्त बनाया जा सकता है।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • न्यायालय ने माना कि राज्य विधिज्ञ परिषद् (SBC) द्वारा लिया जाने वाला अत्यधिक नामांकन शुल्क, संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) और अनुच्छेद 21 के अंतर्गत एक आकांक्षी अधिवक्ता के वृत्ति को चुनने और सम्मान के अधिकार का उल्लंघन करती है।
  • न्यायालय ने निर्णय किया कि सामान्य श्रेणी के अधिवक्ताओं के लिये नामांकन शुल्क 750 रुपए और SC/ST श्रेणी के अधिवक्ताओं के लिये 125 रुपए से अधिक नहीं हो सकता।
  • न्यायालय ने अनुच्छेद 19(1)(g) के अंतर्गत जीविकावृत्ति के अधिकार और अनुच्छेद 21 के अंतर्गत सम्मान के अधिकार तथा अनुच्छेद 14 के अंतर्गत समानता के अधिकार पर इसके प्रभाव के बीच संबंध पर ज़ोर दिया।
  • न्यायालय ने पाया कि उच्च नामांकन शुल्क विधिक वृत्ति में प्रवेश करने में बाधाएँ उत्पन्न करता है, विशेष रूप से हाशिए पर पड़े और आर्थिक रूप से कमज़ोर वर्गों के लोगों के लिये, जिससे मौलिक समानता के सिद्धांत का उल्लंघन होता है।
  • न्यायालय ने माना कि SBC द्वारा निर्धारित अत्यधिक नामांकन शुल्क अनुच्छेद 14 के अंतर्गत स्पष्ट रूप से स्वेच्छाचारी है और हाशिए पर पड़े वर्गों के अधिवक्ताओं के लिये आर्थिक बाधाएँ उत्पन्न करता है।
  • न्यायालय ने अधिवक्ता अधिनियम के उद्देश्य की व्याख्या, बार की समावेशिता को बढ़ावा देने के रूप में की, जिसे स्वेच्छाचारी नामांकन शुल्क को लागू करके विफल नहीं किया जा सकता।
  • न्यायालय ने निर्णय दिया कि SBC की अत्यधिक शुल्क वसूलने की नीति स्पष्ट रूप से स्वैच्छिक है और अधिवक्ता अधिनियम की धारा 24(1)(f) के अनुरूप नहीं है।
  • न्यायालय ने कहा कि विधिक व्यवसाय का अधिकार, अधिवक्ता अधिनियम की धारा 30 के अंतर्गत वैधानिक है और संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) द्वारा मौलिक रूप से संरक्षित है, जो अनुच्छेद 19(6) के अंतर्गत तर्कसंगत प्रतिबंधों के अधीन है।
  • न्यायालय ने माना कि SBC द्वारा लिया जाने वाला वर्तमान नामांकन शुल्क अनुचित है और अनुच्छेद 19(1)(g) का उल्लंघन करता है।
  • न्यायालय ने निष्कर्ष निकाला कि SBC, अधिवक्ता अधिनियम की धारा 24(1)(f) के अंतर्गत दिये गए स्पष्ट विधिक उपबंधों से परे नामांकन शुल्क नहीं ले सकते।
  • न्यायालय ने निर्णय दिया कि SBC और BCI नामांकन की पूर्व शर्त के रूप में निर्धारित नामांकन शुल्क और स्टाम्प शुल्क के अतिरिक्त अन्य शुल्क के भुगतान की मांग नहीं कर सकते।
  • न्यायालय के निर्णय का भावी प्रभाव होगा तथा SBC को इस निर्णय की तिथि से पहले एकत्रित अतिरिक्त नामांकन शुल्क वापस करने की आवश्यकता नहीं होगी।

इसमें प्रासंगिक विधिक प्रावधान क्या हैं?

  • अधिवक्ता अधिनियम, 1961: 
    • अधिवक्ता अधिनियम 1961 की धारा 24 उन व्यक्तियों से संबंधित है जिन्हें राज्य सूची (रोल) पर अधिवक्ता के रूप में भर्ती किया जा सकता है।
    • धारा 24(1)(f) में निर्धारित किया गया है कि उसने नामांकन के संबंध में भारतीय स्टाम्प अधिनियम, 1899 (1899 का 2) के अधीन प्रभार्य स्टाम्प शुल्क, यदि कोई हो, का भुगतान कर दिया है तथा राज्य विधिज्ञ परिषद् को छह सौ रुपए तथा भारतीय विधिज्ञ परिषद् को एक सौ पचास रुपए का नामांकन शुल्क उस परिषद् के पक्ष में बैंक ड्राफ्ट के माध्यम से देय है।

संवैधानिक विधि: 

  • अनुच्छेद 14 विधि के समक्ष समानता से संबंधित है।
    • अनुच्छेद 14 में कहा गया है कि राज्य भारत के राज्यक्षेत्र में किसी व्यक्ति को विधि के समक्ष समानता या विधि के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।
  • अनुच्छेद 19 अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता आदि से संबंधित अधिकारों के संरक्षण से संबंधित है।
    • अनुच्छेद 19(1)(g) में कहा गया है कि सभी नागरिकों को कोई भी जीविका वृत्ति अपनाने, या कोई भी व्यवसाय, व्यापार या कारोबार करने का अधिकार होगा।
  • अनुच्छेद 21 जीवन तथा व्यक्तिगत स्वतंत्रता की सुरक्षा से संबंधित है।
    • अनुच्छेद 21 में कहा गया है कि किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं।
  • प्राधिकारियों द्वारा शुल्क लगाने के लिये निर्धारित सिद्धांत: 
    • अनुच्छेद 19(1)(g) के अंतर्गत प्रतिबंध लगाने की शक्ति निरपेक्ष नहीं है और इसका प्रयोग उचित तरीके से किया जाना चाहिये।
    • शुल्क या लाइसेंस वैध होने चाहिये तथा विधिक आधार पर लगाए जाने चाहिये।
    • जो भी मूल विधान की नीति के दायरे के विपरीत या उससे परे प्रत्यायोजित विधान द्वारा अनुचित प्रतिबंध लगाता है, वह अनुच्छेद 19(1)(g) का उल्लंघन करता है।

जीविकावृत्ति, सम्मान एवं समानता का अधिकार:

  • जीविकावृत्ति का अधिकार: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1)(g) के अनुसार "सभी नागरिकों को कोई भी वृत्ति अपनाने, या कोई भी व्यवसाय, व्यापार या कारोबार करने का अधिकार होगा”।
    • अनुच्छेद 19(6) के अधीन, जो तर्कसंगत प्रतिबंधों की अनुमति देता है।
  • सम्मान का अधिकार: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21के अनुसार "किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित किया जाएगा, अन्यथा नहीं।"
    • उच्चतम न्यायालय ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है कि इसमें मानवीय गरिमा के साथ जीने का अधिकार भी शामिल है।
  • समानता का अधिकार: भारतीय संविधान के अनुच्छेद 14 के अनुसार "राज्य भारत के राज्यक्षेत्र में किसी भी व्यक्ति को विधि के समक्ष समानता या विधि के समान संरक्षण से वंचित नहीं करेगा।"
  • पेशेवर क्षेत्रों में मौलिक समानता और व्यक्तिगत गरिमा की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिये न्यायालयों द्वारा अक्सर इन मौलिक अधिकारों को एक साथ पढ़ा जाता है।

इस मामले में किन प्रमुख न्यायदृष्टांतों का उल्लेख किया गया है?

  • रविंदर कुमार धारीवाल बनाम भारत संघ (2023):
    • न्यायालय ने माना कि सकारात्मक कार्यवाही के विभिन्न रूपों के माध्यम से परिणामों में समानता सुनिश्चित करना, वास्तविक समानता के बड़े उद्देश्य में योगदान देता है।
  • खोडे डिस्टिलरीज़ लिमिटेड बनाम कर्नाटक राज्य (1996): 
    • प्रत्यायोजित विधान को चुनौती देने के लिये स्थापित सिद्धांत: a) कार्यकारी कार्यों के लिये स्वैच्छिक कार्यवाही का परीक्षण आवश्यक रूप से प्रत्यायोजित विधान पर लागू नहीं होता है। b) प्रत्यायोजित विधान को केवल तभी रद्द किया जा सकता है जब वह स्पष्ट रूप से स्वेच्छाचारी हो। c) स्पष्ट स्वैच्छिकता तब होती है जब वह विधि के अनुरूप नहीं होती है। d) प्रत्यायोजित विधान भी स्पष्ट रूप से स्वेच्छाचारी है यदि वह अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है।
  • मोहम्मद यासीन बनाम टाउन एरिया कमेटी (1952):
    • इस मामले में उपनियमों की वैधता तथा लाइसेंस शुल्क लगाने में अधिकरण के दायरे पर ध्यान केंद्रित किया गया।
    • न्यायमूर्ति एस.आर. दास ने कहा कि लाइसेंस शुल्क, व्यवसाय स्स्वामियों को प्रभावित करता है: (1) उनकी संपत्ति (धन) छीन लेना (2) उनके व्यवसाय करने के अधिकार को प्रतिबंधित करता है।
    • लाइसेंस शुल्क, अनुच्छेद 19(1)(g) का उल्लंघन करता पाया गया और यह 'तर्कसंगत प्रतिबंधों' के अंतर्गत नहीं आता।
  • आर. एम. शेषाद्रि बनाम ज़िला मजिस्ट्रेट (1954):
    • यह मूवी थिएटर लाइसेंसधारियों पर लगाई गई शर्तों से निपटने वाला एक संविधान पीठ का मामला था।
    • इस मामले में न्यायालय ने पाया कि शर्तें अस्पष्ट, व्यापक रूप से प्रस्तुत की गई थीं तथा उनमें स्पष्ट निर्देशों का अभाव था।
    • इन शर्तों को अनुच्छेद 19(1)(g) का उल्लंघन माना गया क्योंकि इनसे सिनेमा व्यवसाय पर बुरा असर पड़ा।

पारिवारिक कानून

तलाक-ए-सुन्नत

 31-Jul-2024

साजिद मुहम्मदकुट्टी बनाम केरल राज्य एवं अन्य

“यदि तलाक-ए-सुन्नत, पूर्व अपेक्षित आवश्यकताओं के अनुपालन के अभाव में अवैध पाया जाता है, तो उक्त तलाक, तलाक-उल-बिद्दत नहीं माना जाएगा”।

न्यायमूर्ति ए. बदरुद्दीन

स्रोत: केरल उच्च न्यायालय

चर्चा में क्यों?

हाल ही में केरल उच्च न्यायालय ने साजिद मुहम्मदकुट्टी बनाम केरल राज्य एवं अन्य मामले में यह माना है कि तलाक-उल-बिद्दत की घोषणा, अपरिवर्तनीय एवं तत्काल तलाक के इरादे से किया जाना चाहिये और मात्र विधि का पालन न करना ही तलाक के रूप में स्वीकार नहीं किया जाएगा।

साजिद मुहम्मदकुट्टी बनाम केरल राज्य एवं अन्य मामले की पृष्ठभूमि क्या थी?

  • इस मामले में, प्रतिवादी ने याचिकाकर्त्ता के विरुद्ध मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 2019 (PRM अधिनियम) की धारा 3 के साथ धारा 4 के अधीन अपराध करने के लिये न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम श्रेणी के समक्ष मामला दायर किया।
  • प्रतिवादी ने आरोप लगाया कि याचिकाकर्त्ता ने उन्हें तत्काल तलाक दे दिया, जो तलाक-उल -बिद्दत (तीन तलाक) के समान है और PRM अधिनियम के अनुसार अवैध है।
  • यह भी आरोप लगाया गया कि प्रतिवादी ने अपरिवर्तनीय तलाक करने के इरादे से तलाक दिया है, क्योंकि उसने विधि के अनुसार दो मध्यस्थों द्वारा सुलह का प्रयास भी नहीं किया।
  • याचिकाकर्त्ता ने दलील दी कि तलाक, क्रमशः तीन अलग-अलग तिथियों में दिया गया था और इसलिये यह तलाक-ए-सुन्नत है तथा अवैध नहीं है।
  • याचिकाकर्त्ता ने अपने विरुद्ध कार्यवाही रद्द करने के लिये केरल उच्च न्यायालय के समक्ष वर्तमान याचिका दायर की।

न्यायालय की टिप्पणियाँ क्या थीं?

  • केरल उच्च न्यायालय ने कहा कि तलाक-उल-बिद्दत का मूल आशय, तत्काल एवं अपरिवर्तनीय तलाक देना है परंतु यदि आशय ऐसा नहीं है तथा विधि का अनुपालन नहीं किया गया है तो इसे तलाक-उल-बिद्दत नहीं माना जाएगा।
  • केरल उच्च न्यायालय ने आगे स्पष्ट किया कि तलाक-ए-सुन्नत जब विधिक रूप से घोषित किया जाता है तथा पूरा नहीं किया जाता है, तो यह स्वचालित रूप से तलाक-उल-बिद्दत नहीं माना जाएगा।
  • उच्च न्यायालय ने कहा कि याचिकाकर्त्ता का आशय, तत्काल एवं अपरिवर्तनीय तलाक देने का नहीं था, इसलिये उसे PRM अधिनियम की धारा 4 के अधीन दण्डित नहीं किया जा सकता।
  • केरल उच्च न्यायालय ने याचिका स्वीकार कर ली और प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्रेट की कार्यवाही को रद्द कर दिया।

मुस्लिम महिला (विवाह अधिकार संरक्षण) अधिनियम, 2019 के प्रासंगिक प्रावधान क्या हैं?

  • धारा 3: तलाक अमान्य और अवैध होगा: 
    • इस धारा में कहा गया है कि किसी मुस्लिम पति द्वारा अपनी पत्नी को मौखिक या लिखित रूप में या इलेक्ट्रॉनिक रूप में या किसी भी अन्य तरीके से तलाक देना अमान्य और अवैध होगा।
  • धारा 4. तलाक की उद्घोषणा करने पर दण्ड:
    • इस धारा में कहा गया है कि कोई भी मुस्लिम पति जो अपनी पत्नी को धारा 3 में उल्लिखित तलाक देता है, उसे तीन वर्ष तक के कारावास से दण्डित किया जाएगा तथा अर्थदण्ड भी देना होगा।

उद्धृत ऐतिहासिक निर्णयज विधियाँ क्या हैं?

  • सजनी ए. बनाम डॉ. बी. कलाम पाशा और अन्य (2021): इस मामले में केरल उच्च न्यायालय ने माना कि यह अनुमान लगाने के लिये कि तलाक तत्काल नहीं हुआ था, दोनों ही पक्षों को प्रत्येक पक्ष के परिवार से चुने गए दो मध्यस्थों द्वारा सुलह का प्रयास करना चाहिये।
  • जाफर सादिक ई.ए. एवं अन्य बनाम वी. मारवा एवं अन्य (2021): इस मामले में यह माना गया कि यदि तलाक तत्काल और अपरिवर्तनीय नहीं है, तो इसे PRM अधिनियम की धारा 4 के साथ धारा 3 के तहत अपराध नहीं कहा जा सकता है।

तलाक क्या है?

परिचय:

  • इसे PRM अधिनियम की धारा 2 (c) के अंतर्गत परिभाषित किया गया है, जिसमें कहा गया है कि तलाक का अर्थ है तलाक-उल-बिद्दत या तलाक का कोई अन्य समान रूप, जो मुस्लिम पति द्वारा घोषित तात्कालिक एवं अपरिवर्तनीय तलाक का प्रभाव रखता है।

तलाक के प्रकार:

  • तलाक-ए-सुन्नत: यह दो प्रकार से उद्घोषित किया जा सकता है:
    • तलाक-ए-हसन:
      • इसमें लगातार तुहरों (स्त्री के 2 लगातार मासिक धर्मों के बीच का समय) के दौरान की गई तीन घोषणाएँ शामिल हैं तथा तीनों तुहरों के दौरान कोई भी संभोग नहीं होता है।
      • पहली घोषणा एक तुहर के दौरान, दूसरी अगले तुहर के दौरान तथा तीसरी उसके बाद वाले तुहर के दौरान की जानी चाहिये।
    • तलाक-ए-अहसन:
      • इसमें एक बार तुहर (मासिक धर्म के बीच की अवधि) के दौरान तलाक की घोषणा की जाती है, जिसके बाद इद्दत की अवधि के दौरान संभोग से परहेज़ किया जाता है। 
      • जब विवाह संपन्न नहीं हुआ हो, तो अहसन के रूप में तलाक दिया जा सकता है, भले ही पत्नी मासिक धर्म में हो।
      • जहाँ पत्नी मासिक धर्म की आयु पार कर चुकी है, वहाँ तुहर के दौरान घोषणा की आवश्यकता लागू नहीं होती।
      • इसके अतिरिक्त, यह आवश्यकता केवल मौखिक तलाक पर लागू होती है, लिखित तलाक पर नहीं।
  • तलाक-उल-बिद्दत:
    • इसमें एक ही तुहर के दौरान की गई तीन घोषणाएँ शामिल हैं, या तो एक वाक्य में जैसे "मैं तुम्हें तीन बार तलाक देता हूँ, या अलग-अलग वाक्यों में जैसे "मैं तुम्हें तलाक देता हूँ, मैं तुम्हें तलाक देता हूँ, मैं तुम्हें तलाक देता हूँ"।
    • तुहर के दौरान की गई एक भी घोषणा स्पष्ट रूप से विवाह को अपरिवर्तनीय रूप से भंग करने के आशय को इंगित करती है जैसे "मैं तुम्हें अपरिवर्तनीय रूप से तलाक देता हूँ।"

तलाक-ए-सुन्नत और तलाक-उल-बिद्दत के बीच अंतर:

                  तलाक-ए-सुन्नत

          तलाक-उल-बिद्दत

इस्लामी विधि की निर्धारित प्रक्रियाओं का पालन करना, जिसमें परामर्श, मध्यस्थता और प्रतीक्षा अवधि (इद्दत) का पालन शामिल हो सकता है।

इसकी उद्घोषणा केवल तलाक शब्द को तीन बार बोलकर की जा सकती है।

यह तलाक का एक वैध रूप है।

यह तलाक का वैध रूप नहीं है।

इद्दत के दौरान प्रतिसंहरणीय

अपरिवर्तनीय एवं तत्काल।

पुनर्विचार और सुलह का अवसर प्रदान करता है।

महिलाओं के अधिकारों में बाधा डालता है तथा पुनर्विचार और सुलह का कोई अवसर प्रदान नहीं करता है।