पाएँ सभी ऑनलाइन कोर्सेज़, पेनड्राइव कोर्सेज़, और टेस्ट सीरीज़ पर पूरे 40% की छूट, ऑफर 24 से 26 जनवरी तक वैध।









करेंट अफेयर्स और संग्रह

होम / करेंट अफेयर्स और संग्रह

महत्त्वपूर्ण निर्णय

वर्ष 2024 में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये गए 100 महत्त्वपूर्ण निर्णय (भाग -2)

 27-Dec-2024

करनैल सिंह बनाम हरियाणा राज्य एवं अन्य

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि इस न्यायालय की संविधान पीठ द्वारा निर्धारित विधि की अनदेखी करना तथा उसके बिल्कुल विपरीत दृष्टिकोण अपनाना एक भौतिक त्रुटि होगी, जो आदेश के स्वरूप में स्पष्ट है।

और पढ़ें:

अजय ईश्वर घुटे एवं अन्य बनाम मेहर के. पटेल एवं अन्य का मामला

  • उच्चतम न्यायालय ने बॉम्बे उच्च न्यायालय द्वारा पारित आदेश को खारिज कर दिया तथा कहा कि उच्च न्यायालय प्रारंभिक जाँच करने में विफल रहा है तथा केवल आदेश के विवरण के आधार पर दिया गया आदेश पूरी तरह से अवैध है।

और पढ़ें:

उच्चतम न्यायालय बार एसोसिएशन बनाम बी.डी. कौशिक का मामला

  • उच्चतम न्यायालय ने उच्चतम न्यायालय बार एसोसिएशन में सुधार के निर्देश दिये हैं, जिसमें इसकी कार्यकारी समिति में महिलाओं के लिये आरक्षण अनिवार्य किया गया है। इसने महिलाओं के लिये एक पदाधिकारी पद सहित विशिष्ट सीटें आरक्षित की हैं, ताकि महिलाओं का पर्याप्त प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जा सके।

और पढ़ें:

कोलकाता नगर निगम एवं अन्य. बनाम बिमल कुमार शाह एवं अन्य का मामला

  •  उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्णीत किया कि कोलकाता नगर निगम द्वारा बिना उचित प्रक्रिया के निजी संपत्ति का अधिग्रहण करना अवैध था। न्यायालय ने संविधान के अनुच्छेद 300A के अंतर्गत संपत्ति के अधिकार को यथावत रखा, जिसमें नोटिस, उचित क्षतिपूर्ति एवं सार्वजनिक उद्देश्य सहित प्रमुख उप-अधिकारों की पहचान की गई।

और पढ़ें:

एस. शिवराज रेड्डी (मृत) बनाम रघुराज रेड्डी एवं अन्य का मामला

  •  उच्चतम न्यायालय ने परिसीमा अधिनियम, 1963 की धारा 3 के अनुसार परिसीमा अवधि का पालन करने के महत्त्व को रेखांकित किया। न्यायालय ने एक भागीदार की मृत्यु के कारण भागीदारी फर्म के विघटन के बहुत समय बाद दायर एक समय-बाधित वाद को खारिज कर दिया।

और पढ़ें:

शेंटो वर्गीस बनाम जुल्फिकार हुसैन एवं अन्य का मामला

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि जब संविधि में यह अनिवार्य नहीं है कि कार्य निर्धारित समयावधि के अंदर पूर्ण किया जाए, तो इसका अभिप्राय यह होगा कि कार्य उचित समयावधि के अंदर पूर्ण किया जाना चाहिये। यह अभिनिर्णय दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 102 (3) के संदर्भ में माना गया।

और पढ़ें:

अनीस बनाम NCT राज्य सरकार

  •  उच्चतम न्यायालय ने भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 106 के अनुप्रयोग से संबंधित सिद्धांतों का निर्वचन किया है जो इस प्रकार हैं:
  • न्यायालय को आपराधिक मामलों में IEA की धारा 106 को सावधानी एवं सतर्कता के साथ लागू करना चाहिये। यह नहीं कहा जा सकता कि आपराधिक मामलों में इसका कोई अनुप्रयोग नहीं है।
  •  अभियोजन पक्ष द्वारा अभियुक्त के अपराध की ओर इंगित करने वाली परिस्थितियों का साक्ष्य प्रस्तुत करने में असमर्थता की क्षतिपूर्ति के लिये इस धारा का प्रयोग नहीं किया जा सकता।
  •  इस धारा का प्रयोग दोषसिद्धि का समर्थन करने के लिये तब तक नहीं किया जा सकता जब तक कि अभियोजन पक्ष ने अपराध को सिद्ध करने के लिये आवश्यक सभी तत्त्वों को सिद्ध करके दायित्व का निर्वहन नहीं कर लिया हो।
  •  यह अभियोजन पक्ष को यह सिद्ध करने के कर्त्तव्य से मुक्त नहीं करता है कि कोई अपराध किया गया था, भले ही यह मामला विशेष रूप से अभियुक्त के ज्ञान में हो तथा यह अभियुक्त पर यह सिद्ध करने का भार नहीं डालता है कि कोई अपराध कारित नहीं किया गया था।
  •  यह धारा उन मामलों में लागू नहीं होती है, जहाँ प्रश्नगत तथ्य, अपनी प्रकृति को देखते हुए, ऐसा हो कि वह न केवल अभियुक्त को बल्कि अन्य लोगों को भी ज्ञात हो सकता है, यदि वे घटना के समय उपस्थित थे।
  •  यह धारा उन मामलों में लागू होगी, जहाँ अभियोजन पक्ष के विषय में यह कहा जा सकता है कि वह ऐसे तथ्य सिद्ध करने में सफल रहा है, जिनसे अभियुक्त के अपराध के विषय में उचित निष्कर्ष निकाला जा सकता है।

और पढ़ें:

शरीफ अहमद एवं अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य

  • उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्णीत किया कि गैर-जमानती वारंट तब तक जारी नहीं किया जाना चाहिये, जब तक कि अभियुक्त पर कोई जघन्य अपराध का आरोप न हो तथा उसके द्वारा विधिक प्रक्रिया से बचने या साक्ष्यों से छेड़छाड़ या उन्हें नष्ट करने की संभावना न हो।

और पढ़ें:

मेसर्स सास इंफ्राटेक प्राइवेट लिमिटेड बनाम तेलंगाना राज्य एवं अन्य

  •  उच्चतम न्यायालय ने माना है कि जब मजिस्ट्रेट अपने न्यायिक विवेक का प्रयोग करते हुए दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 156(3) के अधीन विवेचना का निर्देश देता है तो यह नहीं कहा जा सकता कि उसने किसी अपराध का संज्ञान लिया है।

और पढ़ें:

विजय कुमार बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य

  •  उच्चतम न्यायालय (SC) ने अभियुक्त के अभिकथन को अभियोजन पक्ष के साक्ष्य के साथ शमनीय करने के महत्त्व पर बल दिया तथा प्रतिपरीक्षा के दौरान सहमति के संबंध में पीड़िता की गवाही को चुनौती देने में विफलता पर ध्यान दिया, जिससे यौन उत्पीड़न के मामलों में गहन मूल्यांकन के महत्त्व पर प्रकाश डाला गया।

और पढ़ें:

दसारी श्रीकांत बनाम तेलंगाना राज्य

  •  अपील की प्रक्रिया के दौरान शिकायतकर्त्ता से केवल उसके विवाह के आधार पर, पीछा करने एवं आपराधिक धमकी के लिये व्यक्ति की सजा को रद्द करने का उच्चतम न्यायालय का निर्णय व्यक्तिगत संबंधों एवं विधिक कार्यवाही के मध्य अंतरसंबंध के विषय में प्रश्न करता है। इसके अतिरिक्त, यह मामला न्यायिक निर्णयों में विवाह जैसी बदलती परिस्थितियों पर विचार करने के महत्त्व को प्रकटित करता है।

और पढ़ें:

रविकुमार धनसुखलाल महेता एवं अन्य बनाम गुजरात उच्च न्यायालय एवं अन्य

  • उच्चतम न्यायालय ने जिला न्यायाधीशों के रिक्त पदों के लिये गुजरात उच्च न्यायालय द्वारा लागू की गई पदोन्नति प्रक्रिया को यथावत रखा, तथा सरकारी कर्मचारियों में पदोन्नति की मांग करने के अंतर्निहित अधिकार के अभाव पर बल दिया।
  • इसने इस बात पर बल दिया कि पदोन्नति की नीतियाँ मुख्य रूप से विधायिका या कार्यपालिका का विशेषाधिकार हैं, तथा न्यायिक समीक्षा भारतीय संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 16 के अंतर्गत समानता के सिद्धांतों के उल्लंघन के मामलों तक सीमित है।

और पढ़ें:

XYZ बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य

  • उच्चतम न्यायालय ने XYZ बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य के मामले में माना है कि यौन अपराध के मामले में आरोपी की ओर से मेडिकल जाँच कराने से मना करना विवेचना में असहयोग करने के समान होगा।

और पढ़ें:

मधुसूदन एवं अन्य बनाम मध्य प्रदेश राज्य

  • न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय एवं न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने कहा कि आरोपों में परिवर्तन की स्थिति में, दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 217 के अधीन अभियोजन पक्ष एवं बचाव पक्ष दोनों को ऐसे परिवर्तित आरोपों के संदर्भ में साक्षियों को वापस बुलाने या उनसे पुनर्परीक्षा करने का अवसर दिया जाना चाहिये।

और पढ़ें:

अंकुर चौधरी बनाम मध्य प्रदेश राज्य

  • उच्चतम न्यायालय ने नारकोटिक ड्रग्स एंड साइकोट्रोपिक सब्सटेंस एक्ट (NDPS) 1985 के अधीन धारा 37 के कड़े मानदण्डों को पूरा न करने के बावजूद जमानत दिये जाने का संज्ञान लिया है।
  •  इसने इस बात पर बल दिया कि अभियोजन के वाद में अनावश्यक विलंब के कारण लंबे समय तक कारावास संविधान के अनुच्छेद 21 के अंतर्गत मौलिक अधिकार का हनन करता है, इस प्रकार ऐसे मामलों में सांविधिक प्रतिबंधों को अनदेखा करने के लिये सशर्त स्वतंत्रता की अनुमति देता है।

और पढ़ें:

NCT दिल्ली सरकार एवं अन्य बनाम मेसर्स BSK रियल्टर्स LLP एवं अन्य

  •  उच्चतम न्यायालय ने दिल्ली सरकार के पक्ष में निर्णय देते हुए कहा कि ऐसे मामलों में जहाँ जनहित दांव पर लगा हो, रेस ज्यूडिकाटा का सिद्धांत कठोरता से लागू नहीं हो सकता।
  • न्यायालय ने ऐसे मामलों में लचीले दृष्टिकोण की आवश्यकता पर बल दिया, जिसमें व्यक्तिगत विवादों से परे उनके व्यापक निहितार्थों को पहचाना गया।
  • न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता एवं न्यायमूर्ति उज्जवल भुइयाँ की पीठ द्वारा की गई यह टिप्पणी विधिक कार्यवाही में जनहित पर विचार करने के महत्त्व को प्रकटित करती है।

और पढ़ें:

  • दिल्ली विकास प्राधिकरण बनाम तेजपाल एवं अन्य
  •  न्यायमूर्ति सूर्यकांत, न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता एवं न्यायमूर्ति उज्जवल भुइयाँ की पीठ ने कहा कि “यदि संविधि में बाद में किये गए संशोधन द्वारा विलंब को क्षमा करने के वैध आधार के रूप में स्वीकार किया जाता है, तो यह भानुमती का पिटारा खोल देगा, जहाँ बाद में खारिज किये गए सभी मामले इस न्यायालय में आएंगे तथा विधि का नया निर्वचन के आधार पर राहत की मांग करेंगे।”

और पढ़ें:

कस्तूरीपांडियन बनाम RBL बैंक लिमिटेड

  • उच्चतम न्यायालय ने परक्राम्य लिखत अधिनियम, 1881 (NI अधिनियम) की धारा 138 से संबंधित स्थानांतरण याचिका पर निर्णय दिया। न्यायमूर्ति ए.एस. ओका एवं राजेश बिंदल ने शिकायत को स्थानांतरित करने के लिये आरोपी की याचिका को खारिज कर दिया, यह पुष्टि करते हुए कि इस तरह के निर्णय आम तौर पर शिकायतकर्त्ता के पास होते हैं, आरोपी के पास नहीं।
  •  यह निर्णय ऐसे मामलों में न्यायालय के अधिकार क्षेत्र की सीमाओं को स्पष्ट करता है, जबकि आरोपी को आवश्यकतानुसार व्यक्तिगत उपस्थिति से छूट मांगने की अनुमति देता है।

और पढ़ें:

उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य बनाम वीरेंद्र बहादुर कठेरिया एवं अन्य

  •  उच्चतम न्यायालय ने उत्तर प्रदेश में शिक्षा विभाग के अधिकारियों के वेतनमान को लेकर 22 वर्ष पुराने विवाद का निपटान कर दिया है, जिससे हजारों कर्मचारी प्रभावित हो सकते हैं।
  • न्यायालय ने मामले का निपटान करने के लिये संविधान के अनुच्छेद 142 के अंतर्गत अपनी असाधारण शक्तियों का प्रयोग किया, जिससे सेवानिवृत्त अधिकारियों एवं राज्य सरकार के हितों में संतुलन बना रहा। यह निर्णय उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय के मध्य मुकदमेबाजी के कई दौरों से जुड़े मामलों में विलय एवं न्यायिक निर्णय के सिद्धांत के अनुप्रयोग को स्पष्ट करता है।

और पढ़ें:

अशोक डागा बनाम प्रवर्तन निदेशालय

  • उच्चतम न्यायालय ने माना है कि किसी अभियुक्त को दस्तावेज की वास्तविकता स्वीकार करने या अस्वीकार करने के लिये कहना, उसके आत्म-दोषी ठहराए जाने के अधिकार का उल्लंघन नहीं माना जाएगा।

और पढ़ें:

गौरव कुमार बनाम भारत संघ

  •  उच्चतम न्यायालय ने अभिनिर्णीत किया है कि स्टेट बार काउंसिल द्वारा लगाई गई उच्च नामांकन शुल्क असंवैधानिक है क्योंकि यह इच्छुक अधिवक्ताओं के विधिक व्यवसाय के अधिकार का उल्लंघन करती है और समानता के सिद्धांतों को क्षीण करती है।
  •  न्यायालय ने इन शुल्क पर एक सीमा निर्धारित की है, सामान्य श्रेणी के अधिवक्ताओं के लिये 750 रुपये और SC/उच्चतम न्यायालय अधिवक्ताओं के लिये 125 रुपये निर्धारित किये हैं, इस बात पर बल जोर देते हुए कि ऐसे शुल्क के द्वारा हाशिए पर पड़े अधिवक्ताओं के साथ भेदभाव नहीं होनी चाहिये।

और पढ़ें:

पश्चिम बंगाल राज्य बनाम भारत संघ

उच्चतम न्यायालय ने माना है कि वर्तमान मामले से निपटने के लिये उच्चतम न्यायालय को मूल अधिकारिता होगी तथा राज्य द्वारा संस्थित वाद संविधान के अनुच्छेद 131 के अंतर्गत स्वीकार्य है।

और पढ़ें:

फ्रैंक विटस बनाम नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो

  • उच्चतम न्यायालय ने जमानत की उन शर्तों की वैधता पर विचार किया, जिसके अधीन आरोपी व्यक्तियों को अपना स्थान गूगल मैप्स के माध्यम से साझा करना आवश्यक था। न्यायालय ने तर्क दिया कि ऐसी शर्तें भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 द्वारा गारंटीकृत निजता के अधिकार का उल्लंघन करती हैं।
  •  इस मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा लगाई गई इन कठोर शर्तों को चुनौती दी गई थी।
  • इस निर्णय ने जमानत के प्रतिबंधों को संवैधानिक अधिकारों के साथ संतुलित करने के महत्त्व को रेखांकित किया, विशेष रूप से भारत में विधिक कार्यवाही का सामना कर रहे विदेशी नागरिकों के संबंध में।

और पढ़ें:

डॉ. भीम राव अम्बेडकर विचार मंच बिहार, पटना बनाम बिहार राज्य

  • उच्चतम न्यायालय ने अनुच्छेद 341 के अंतर्गत अधिकार की कमी का तर्क देते हुए बिहार सरकार के 2015 के उस प्रस्ताव को अमान्य कर दिया है, जिसमें अत्यंत पिछड़ी जातियों की सूची से “तांती-तंतवा” समुदाय को अनुसूचित जाति की सूची में शामिल किया गया था।
  •  न्यायालय ने राज्य सरकार की कार्यवाही की आलोचना करते हुए इसे दुर्भावनापूर्ण बताया तथा निर्देश दिया कि प्रस्ताव के अंतर्गत की गई नियुक्तियों को अनुसूचित जाति कोटे में वापस कर दिया जाए।
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि अनुसूचित जातियों की सूची में किसी भी परिवर्तन के लिये संसदीय विधान की आवश्यकता होती है, न कि कार्यकारी आदेश की।

और पढ़ें:

मिनरल एरिया डेवलपमेंट बनाम मेसर्स स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया एवं अन्य

  •  उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि राज्यों को भारतीय संविधान, 1950 (COI) की दूसरी सूची की प्रविष्टि 50 के अंतर्गत खनिज अधिकारों पर कर लगाने का अधिकार है, जबकि पहली सूची की प्रविष्टि 54 के अंतर्गत संघ के पास नियामक शक्तियाँ हैं। न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि कर लगाने की शक्तियाँ स्पष्ट रूप से प्रदान की जानी चाहिये तथा सामान्य नियामक प्रविष्टियों से इसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता है।
  •  इसने यह भी पुष्टि की कि खान एवं खनिज (विकास एवं विनियमन) अधिनियम, 1957 (MMDR अधिनियम) विधायी क्षमताओं के संवैधानिक वितरण को बनाए रखते हुए खनिज अधिकारों या भूमि पर राज्यों की कराधान शक्तियों को प्रतिबंधित नहीं करता है।
  •  यह निर्णय 9 न्यायाधीशों की संविधान पीठ द्वारा सुनाया गया है जिसमें भारत के मुख्य न्यायाधीश माननीय न्यायमूर्ति डॉ. धनंजय वाई चंद्रचूड़ ने स्वयं, माननीय न्यायमूर्ति हृषिकेश रॉय, माननीय न्यायमूर्ति अभय एस ओका, माननीय न्यायमूर्ति जे बी पारदीवाला, माननीय न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा, माननीय न्यायमूर्ति उज्ज्वल भुइयाँ, माननीय न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा एवं माननीय न्यायमूर्ति ऑगस्टाइन जॉर्ज मसीह के द्वारा निर्णय दिया गया।
  • और पढ़ें:

जीन कैम्पेन एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य

  •  उच्चतम न्यायालय ने आनुवंशिक रूप से हाइब्रिड सरसो के लिये केंद्र सरकार की स्वीकृति को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर खंडित निर्णय दिया।
  •  न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना ने जनहित संबंधी चिंताओं एवं प्रक्रियागत कमियों का उदाहरण देते हुए स्वीकृति को अमान्य करार दिया, जबकि न्यायमूर्ति संजय करोल ने वैज्ञानिक अवधारणा पर बल देते हुए इसे यथावत रखा।
  • अलग-अलग राय के साथ, पीठ ने मामले को मुख्य न्यायाधीश को एक बड़ी पीठ गठित करने के लिये भेज दिया, जिससे आगे की समीक्षा लंबित रहने तक कार्यान्वयन में देरी हुई, जबकि सरकार ने निर्णय के साथ आगे न बढ़ने पर सहमति जताई थी।

और पढ़ें

पंजाब राज्य एवं अन्य बनाम दविंदर सिंह एवं अन्य

सात न्यायाधीशों की पीठ ने अनुसूचित जातियों/अनुसूचित जनजातियों के बीच उप-वर्गीकरण को यथावत रखा, ताकि आरक्षण का लाभ समाज के सबसे कमजोर वर्गों तक पहुँच सके।

उच्चतम न्यायालय ने राज्यों को अनुसूचित जातियों (SC) को उप-वर्गीकृत करने की अनुमति दी, ताकि SC श्रेणी के अंतर्गत अपेक्षाकृत अधिक पिछड़े समूहों के लिये अलग कोटा प्रदान किया जा सके। लेकिन न्यायमूर्ति त्रिवेदी ने असहमति जताते हुए तर्क दिया कि यह उप-वर्गीकरण अनुच्छेद 341 के अंतर्गत स्थापित राष्ट्रपति सूची में उपबंधित SC में हस्तक्षेप करता है, जिसे केवल संसदीय विधान द्वारा संशोधित किया जा सकता है।

 उन्होंने चिंता व्यक्त की कि इस तरह के उप-वर्गीकरण से SC-उच्चतम न्यायालय सूची में राजनीतिक कारक शामिल हो सकते हैं, जिससे राजनीतिक प्रभाव को रोकने का इसका मूल उद्देश्य कमजोर हो सकता है।

और पढ़ें:

हर्ष भुवालका एवं अन्य बनाम संजय कुमार बाजोरिया

  • न्यायमूर्ति दीपांकर दत्ता एवं प्रशांत कुमार मिश्रा ने विशेष अनुमति याचिकाओं (SLP) के संबंध में एक नया निर्देश जारी किया है, जो 20 अगस्त 2024 से प्रभावी होगा।
  • इस निर्देश के अनुसार, किसी भी SLP में किसी विवादित आदेश की प्रमाणित प्रति दाखिल करने से छूट की मांग करने के लिये उच्च न्यायालय से एक रसीद शामिल करनी होगी, जिसमें प्रमाणित प्रति के निवेदन की पुष्टि की गई हो, यह बताया गया हो कि प्रति के लिये आवेदन अभी भी वैध है एवं प्रमाणित प्रति को तुरंत जमा करने का वचन देना होगा। इसका उद्देश्य प्रक्रिया को सुव्यवस्थित करना एवं आवश्यक दस्तावेजों को समय पर जमा करना सुनिश्चित करना है।

और पढ़ें:

रामनरेश उर्फ रिंकू कुशवाह बनाम मध्य प्रदेश राज्य एवं अन्य

  • न्यायमूर्ति बी.आर. गवई एवं न्यायमूर्ति के.वी. विश्वनाथन की पीठ ने कहा कि अपीलकर्त्ताओं को प्रवेश देने से मना नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे मेधावी थे और उन्हें अनारक्षित श्रेणी में प्रवेश दिया जा सकता था।

और पढ़ें:

रेखा शर्मा बनाम राजस्थान उच्च न्यायालय, जोधपुर एवं अन्य

  • न्यायमूर्ति बेला एम. त्रिवेदी एवं न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ ने कहा कि दिव्यांग व्यक्तियों को प्रदान किया गया आरक्षण समग्र क्षैतिज आरक्षण के रूप में है, इसलिये अलग से कटऑफ की कोई आवश्यकता नहीं है।

और पढ़ें:

के. निर्मला एवं अन्य बनाम केनरा बैंक एवं अन्य

  • उच्चतम न्यायालय ने केनरा बैंक द्वारा अनुसूचित जाति (SC) कोटे के अंतर्गत वैध जाति प्रमाणपत्रों के आधार पर नियुक्त किये गए कर्मचारियों को कारण बताओ नोटिस को खारिज कर दिया। ये नोटिस 1977 के सरकारी परिपत्र के बाद जारी किये गए थे, जिसमें ‘कोटेगारा’ समुदाय को SC श्रेणी के यथावत माना गया था, जिसे बाद में महाराष्ट्र राज्य बनाम मिलिंद (2000) में उच्चतम न्यायालय के निर्णय के बाद अमान्य माना गया।
  • न्यायालय ने स्पष्ट किया कि केवल राष्ट्रपति ही भारत के संविधान, 1950 के अनुच्छेद 341 एवं 342 के अंतर्गत SC एवं उच्चतम न्यायालय की सूचियों को संशोधित कर सकते हैं, जिससे राज्य सरकार का संशोधन अमान्य हो जाता है।

और पढ़ें:

मिनरल एरिया डेवलपमेंट अथॉरिटी बनाम स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया (MADA निर्णय)

  • उच्चतम न्यायालय ने MADA निर्णय को संभावित रूप से रद्द करने की याचिका को खारिज कर दिया (जुलाई 2024)।
  • हालाँकि, इसने राज्यों एवं करदाताओं के हितों को संतुलित करने के लिये कुछ शर्तें रखीं:
  • राज्य 1 अप्रैल 2005 से पहले के लेन-देन के लिये प्रासंगिक प्रविष्टियों के अंतर्गत कर नहीं लगा सकते।
  •  1 अप्रैल 2026 से शुरू होने वाले 12 वर्षों में कर मांगों का भुगतान किया जाएगा।
  • 25 जुलाई 2024 से पहले की अवधि के लिये मांगों पर ब्याज एवं जुर्माना सभी करदाताओं के लिये माफ किया जाएगा।

और पढ़ें:

किशोरचंद्र छंगनलाल राठौड़ बनाम भारत संघ एवं अन्य

  • उच्चतम न्यायालय ने परिसीमन आयोग के आदेशों की समीक्षा करने के अपने अधिकार को यथावत रखा है, यदि उन्हें स्पष्ट रूप से स्वेच्छाचारी या संवैधानिक सिद्धांतों का उल्लंघन करने वाला माना जाता है। हालाँकि परिसीमन के मामलों में न्यायिक समीक्षा सामान्य तौर पर प्रतिबंधित है, लेकिन न्यायालय तब हस्तक्षेप कर सकता है जब कोई आदेश संवैधानिक मूल्यों के साथ गंभीर रूप से संघर्ष करता हो।

और पढ़ें:

अल्लारखा हबीब मेमन बनाम गुजरात राज्य

  •  न्यायमूर्ति बी.आर. गवई एवं न्यायमूर्ति संदीप मेहता की पीठ ने कहा कि घटनास्थल की पहचान संबंधी परिस्थिति अस्वीकार्य है, क्योंकि अपराध स्थल पुलिस को पहले से ही ज्ञात था।

और पढ़ें:


महत्त्वपूर्ण निर्णय

उच्चतम न्यायालय के वर्ष 2024 के 100 निर्णय (भाग 1)

 27-Dec-2024

भारत के उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 2024 में कई ऐतिहासिक निर्णय सुनाए हैं, जिनमें कई महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर चर्चा की गई है, जिनके महत्त्वपूर्ण सामाजिक, कानूनी और संवैधानिक निहितार्थ हैं। ये निर्णय कुटुंब विधि, संवैधानिक अधिकार, आपराधिक न्याय, संविदा विधि आदि सहित विभिन्न क्षेत्रों में फैले हुए हैं। कुछ उल्लेखनीय मामलों में शामिल हैं (जनवरी से अप्रैल 2024 तक):

जयपुर विद्युत वितरण निगम लिमिटेड बनाम एम.बी. पावर (मध्य प्रदेश) लिमिटेड एवं अन्य

  • उच्चतम न्यायालय ने माना है कि भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 226 के प्रावधानों के तहत उच्च न्यायालय को अपनी वैवेकिक शक्ति का प्रयोग बहुत सावधानी से करना चाहिये।
  • न्यायालय को यह निर्णय लेने के लिए सदैव व्यापक जनहित को ध्यान में रखना चाहिये कि उसका हस्तक्षेप आवश्यक है या नहीं।
  • न्यायालय को केवल तभी हस्तक्षेप करना चाहिए जब यह निष्कर्ष निकले कि अत्यधिक सार्वजनिक हित में हस्तक्षेप की आवश्यकता है।

और पढ़ें

कंटेनर कॉर्पोरेशन ऑफ इंडिया लिमिटेड बनाम अजय खेड़ा एवं अन्य

  • उच्चतम न्यायालय ने भारत संघ को छह महीने के भीतर हेवी-ड्यूटी डीज़ल वाहनों को चरणबद्ध तरीके से हटाने और उनकी जगह BS­-VI वाहनों को लाने के लिये नीति बनाने का निर्देश दिया। 
  • न्यायालय ने कहा कि प्रदूषण नियंत्रण संहिता के अनुच्छेद 21 के तहत प्रदूषण मुक्त पर्यावरण का अधिकार पूरे देश के सभी नागरिकों पर लागू होता है, न कि केवल दिल्ली एनसीआर के लोगों पर।

और पढ़ें

जय श्री बनाम राजस्थान राज्य

  • उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट किया कि संविदा का मात्र उल्लंघन भारतीय दंड संहिता की धारा 420 या 406 के अंतर्गत आपराधिक अपराध नहीं माना जाता, जब तक कि धोखाधड़ी या बेईमानी का आशय शुरू से ही स्पष्ट न हो। 
  • इस निर्णय में आपराधिक कार्यवाही के दुरुपयोग को रोकने के लिये सिविल और आपराधिक मामलों के बीच अंतर करने के महत्त्व पर ज़ोर दिया गया है।

और पढ़ें

मरियम फसीहुद्दीन एवं अन्य बनाम अडुगोडी पुलिस स्टेशन एवं अन्य के माध्यम से राज्य

  • उच्चतम न्यायालय ने माना कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 के तहत, उच्च न्यायालय के पास प्रक्रिया के दुरुपयोग को रोकने या न्याय के उद्देश्यों को सुरक्षित करने के लिये आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने की अंतर्निहित शक्तियाँ हैं।
  • इस निर्णय में कहा गया कि न्यायालयों को इस शक्ति का प्रयोग सावधानी से करना चाहिये और केवल उन मामलों में करना चाहिये जहाँ FIR या चार्जशीट में लगाए गए आरोप प्रथम दृष्टया किसी अपराध का खुलासा नहीं करते हैं।
  • न्यायालय ने यह भी कहा कि आपराधिक कार्यवाही को उत्पीड़न या व्यक्तिगत प्रतिशोध के साधन के रूप में नहीं अपनाया जाना चाहिये।

और पढ़ें 

अजीत सिंह बनाम उत्तर प्रदेश राज्य

  • उच्चतम न्यायालय ने माना कि यह आरोप कि अपीलकर्त्ता द्वारा विवाह करने का झूठा वचन करके शारीरिक संबंध बनाए रखा गया था, निराधार है क्योंकि उनके संबंध के कारण ही विवाह संपन्न हुआ। 
  • न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्त्ता के विरुद्ध विवाह करने का झूठा वचन करके शारीरिक संबंध बनाने का मामला साबित करने के लिये पर्याप्त सबूत नहीं हैं।

और पढ़ें 

गुरदेव सिंह भल्ला बनाम पंजाब राज्य एवं अन्य

  • उच्चतम न्यायालय ने  भ्रष्टाचार के अभियुक्त पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध CrPC की धारा 319 के तहत दायर एक आवेदन को बरकरार रखा।
  • न्यायालय ने कहा कि अपीलकर्त्ता के विरुद्ध मुकदमा चलाने के लिये रिकॉर्ड पर प्रथम दृष्टया साक्ष्य प्रतीत होते हैं।
    • न्यायालय ने भ्रष्टाचार के अभियुक्त पुलिस अधिकारियों के विरुद्ध CrPC की धारा 319 के तहत दायर आवेदन को बरकरार रखा। इस प्रकार, न्यायालय विवादित आदेश में हस्तक्षेप करने के लिये इच्छुक नहीं है।
  • न्यायालय ने यह भी स्पष्ट किया कि इस आदेश में की गई कोई भी टिप्पणी ट्रायल कोर्ट के सामने प्रस्तुत किये गए साक्ष्यों के आधार पर अपनी योग्यता के अनुसार मुकदमे का निर्णय लेने में बाधा नहीं बनेगी, जो इस निर्णय से पूर्ण रूप से अप्रभावित है।

और पढ़ें 

राजाराम शर्मा बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य

  • उच्चतम न्यायालय ने माना है कि दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 482 के प्रावधानों के अनुसार, उच्च न्यायालय को सावधानीपूर्वक जाँच करनी चाहिये कि क्या आरोप अभियुक्त व्यक्ति के विरुद्ध लगाए गए अपराधों की श्रेणी में आते हैं। 
  • न्यायालय ने एक उच्च न्यायालय के उस आदेश को खारिज कर दिया जिसमें एक व्यक्ति-अभियुक्त के विरुद्ध लंबित आपराधिक कार्यवाही को रद्द करने से इनकार कर दिया गया था, और उच्च न्यायालय के आदेश पर असंतोष व्यक्त करते हुए कहा कि अपराध का गठन करने के लिये आवश्यक तत्त्व सामने नहीं आए।

और पढ़ें

स्मृति तुकाराम बडाडे बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य

  • उच्चतम न्यायालय ने उच्च न्यायालयों को 30 अप्रैल, 2024 तक प्रत्येक ज़िले में संवेदनशील साक्षी का अभिसाक्ष्य केंद्र (VWDC) स्थापित करने और मई 2024 के पहले सप्ताह तक अद्यतन स्थिति रिपोर्ट प्रस्तुत करने के निर्देश दिये। 
  • ओडिशा और तमिलनाडु के दो उच्च न्यायालयों ने अभी तक VWDC दिशानिर्देशों को पूरी तरह से लागू नहीं किया है। 
  • न्यायालय ने न्यायमूर्ति मित्तल को यह सुनिश्चित करने का आदेश दिया है कि दोनों उच्च न्यायालय 30 अप्रैल, 2024 की समय सीमा तक इसका अनुपालन करें।

और पढ़ें 

अस्मा लतीफ एवं अन्य बनाम शब्बीर अहमद एवं अन्य

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि किसी सिविल वाद में अंतरिम अनुतोष मुकदमे की स्वीकार्यता के प्रथम दृष्टया निर्धारण के बाद ही दिया जाना चाहिये।
  • इसने निर्णय सुनाया कि न्यायालयों को स्थिरता के बारे में धारणाओं के आधार पर अनुतोष नहीं देना चाहिये, क्योंकि यह शक्ति का अनुचित प्रयोग हो सकता है।
  • न्यायालय ने इस बात पर बल दिया कि असाधारण परिस्थितियों में, जहाँ अंतरिम अनुतोष न दिये जाने से अपूरणीय क्षति हो सकती है, वहाँ अनावश्यक कठिनाई को रोकने या यह सुनिश्चित करने के लिये कि मुकदमा अप्रभावी न हो जाए, अनंतिम आदेश पारित किया जा सकता है।
  • यह मामला सिविल कार्यवाही में अंतरिम अनुतोष पर निर्णय लेने से पहले स्थिरता संबंधी मुद्दों पर ध्यान देने के महत्त्व को उजागर करता है।
  • उच्चतम न्यायालय ने यह भी माना कि "केवल प्रतिवादी द्वारा वाद में वर्णित तथ्यों का खंडन करने वाला लिखित बयान दाखिल करने में विफलता या उपेक्षा, सभी मामलों में, उसे अपने पक्ष में निर्णय का हकदार नहीं बना सकती, जब तक कि वह साक्ष्य प्रस्तुत करके अपने मामले/दावे को साबित नहीं कर देता"।

और पढ़ें 

और पढ़ें 

राजा गौंडर एवं अन्य बनाम  वी. एम सेनगोडन एवं अन्य

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि शून्य और शून्यकरणीय विवाह से पैदा हुई संतानों को वैध संतान माना जाता है, तो वैध विवाह से पैदा हुए बच्चों के समान ऐसे बच्चे संपत्ति में पूर्वज के  उत्तराधिकारियों के समान हिस्से के हकदार होंगे।
  • न्यायालय ने कहा कि एक बार पूर्वज ने स्वीकार कर लिया है, कि शून्य और शून्यकरणीय विवाह से पैदा हुई संतानों को वैध संतान माना जाता है, तो वैध विवाह से पैदा हुए बच्चों के समान ऐसे बच्चे संपत्ति में पूर्वज के  उत्तराधिकारियों के समान हिस्से के हकदार होंगे।
  • न्यायालय ने कहा कि शून्य विवाह से पैदा हुए बच्चों को मुथुसामी गौंडर के हित में उत्तराधिकारी माना जाएगा और तद्नुसार साझा आवश्यकताओं पर कार्य किया जाना चाहिये।

और पढ़ें 

रूपश्री एच.आर. बनाम कर्नाटक राज्य एवं अन्य

  • उच्चतम न्यायालय ने माना है कि स्वयं की प्रतिरक्षा करने का अधिकार COI के भाग III के अधीन एक मौलिक अधिकार है। 
  • न्यायालय ने कहा कि स्वयं की प्रतिरक्षा करने का अधिकार COI के भाग III के अधीन एक मौलिक अधिकार है तथा एक अधिवक्ता के रूप में किसी के पेशे को आगे बढ़ाने का एक हिस्सा होने के नाते एक ग्राहक के लिये उपस्थित होने का अधिकार भी एक मौलिक अधिकार है।

और पढ़ें 

लखनऊ नगर निगम एवं अन्य बनाम कोहली ब्रदर्स कलर लैब प्राइवेट लिमिटेड एवं अन्य

  • उच्चतम न्यायालय ने माना है कि भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 300A के तहत प्रदत्त संपत्ति का अधिकार उन व्यक्तियों पर भी लागू होता है जो भारत के नागरिक नहीं हैं।
  • न्यायालय ने कहा कि हम अभिरक्षक द्वारा प्रशासन के उद्देश्य से शत्रु संपत्ति पर कब्ज़ा लेने को वास्तविक स्वामी से अभिरक्षक और उसके बाद संघ को स्वामित्व अंतरण के उदाहरण के रूप में नहीं समझ सकते।
  • संपत्ति शब्द का दायरा भी व्यापक है और इसमें न केवल मूर्त या अमूर्त संपत्ति शामिल है, बल्कि संपत्ति में सभी अधिकार, शीर्षक और हित भी शामिल हैं।

और पढ़ें 

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य

  • उच्चतम न्यायालय ने चुनावी बॉण्ड योजना को असंवैधानिक घोषित कर दिया।
  • चुनावी बॉण्ड योजना, लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की कुछ धाराएँ, कंपनी अधिनियम और उनमें संशोधन अनुच्छेद 19(1)(a) का उल्लंघन करते हैं और असंवैधानिक हैं।
  • कंपनी अधिनियम की धारा 182(1) के प्रावधान को हटाना, जो राजनीतिक दलों को असीमित कॉर्पोरेट योगदान की अनुमति देता है, मनमाना है और अनुच्छेद 14 का उल्लंघन करता है।

और पढ़ें 

मैसर्स ब्रह्मपुत्र कंक्रीट पाइप इंडस्ट्रीज़ आदि बनाम असम राज्य विद्युत बोर्ड

  • न्यायालय ने कहा कि रजिस्ट्री को यह निर्णय लेने का अधिकार नहीं दिया जा सकता कि खुले न्यायालय में सुनवाई के बाद पुनर्विचार याचिका खारिज होने के बाद उपचारात्मक क्षेत्राधिकार के माध्यम से पुनर्विचार योग्य है या नहीं।
  • उपचारात्मक याचिकाओं पर विचार करने से इनकार करना उच्चतम न्यायालय नियम, 2013 के आदेश XV नियम 5 के अनुरूप नहीं है और न ही यह रजिस्ट्री के अधिकार क्षेत्र में आता है।
  • न्यायालय ने आदेश LV के नियम 2 का हवाला दिया, जिसमें निर्देशों के लिये सदन न्यायधीश के साथ संचार पर ज़ोर दिया गया।
  • न्यायालय ने विवादित आदेश को रद्द कर दिया, लेकिन उपचारात्मक क्षेत्राधिकार लागू करने का कोई आधार न पाते हुए, उसे वापस भेजने से इनकार कर दिया, और तदनुसार अपील का निपटारा कर दिया।

और पढ़ें 

वेल्थेपु श्रीनिवास बनाम आंध्र प्रदेश राज्य (अब तेलंगाना राज्य) एवं अन्य

  • उच्चतम न्यायालय ने माना है कि भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 34 के प्रावधानों के तहत सामान्य आशय का अनुमान केवल अपराध स्थल के पास अभियुक्त की उपस्थिति के आधार पर नहीं लगाया जा सकता। 
  • न्यायमूर्ति बी. आर. गवई और पी. एस. नरसिम्हा की खंडपीठ ने कहा कि अभियुक्त 3 को हत्या के आशय से दोषी ठहराने के लिये न तो मौखिक और न ही दस्तावेज़ी साक्ष्य उपलब्ध हैं। केवल अपराध स्थल के पास उसकी उपस्थिति और अन्य अभियुक्तों के साथ उसके पारिवारिक संबंधों के आधार पर धारा 34 के तहत यांत्रिक रूप से निष्कर्ष निकाला गया था।

और पढ़ें 

नरेश कुमार बनाम हरियाणा राज्य

  • उच्चतम न्यायालय ने माना है कि केवल इस तथ्य पर कि मृतक ने अपने विवाह के सात वर्ष की अवधि के भीतर आत्महत्या कर ली, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 113A के तहत उपधारणा स्वचालित रूप से लागू नहीं होगी।
  • इसलिये, IEA की धारा 113A के तहत कोई उपधारणा लागू करने से पूर्व, अभियोजन पक्ष को उस संबंध में क्रूरता या लगातार उत्पीड़न का साक्ष्य दिखाना होगा।
  • उच्चतम न्यायालय ने माना है कि केवल इस तथ्य पर कि मृतक ने अपने विवाह के सात वर्ष की अवधि के भीतर आत्महत्या कर ली, भारतीय साक्ष्य अधिनियम, 1872 (IEA) की धारा 113A के तहत उपधारणा स्वचालित रूप से लागू नहीं होगी। इसलिये, IEA की धारा 113A के तहत कोई उपधारणा लागू करने से पूर्व, अभियोजन पक्ष को उस संबंध में क्रूरता या लगातार उत्पीड़न का साक्ष्य दिखाना होगा।

और पढ़ें 

शेख आरिफ बनाम महाराष्ट्र राज्य एवं अन्य

  • भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) के तहत विवाह करने का झूठा वचन करके बलात्कार करने के अपराध से जुड़ा मामला। 
  • न्यायालय ने कहा कि "अगर प्रारंभ से ही यह स्थापित हो जाता है कि पीड़िता की सहमति विवाह के झूठे वचन का परिणाम है, तो कोई सहमति नहीं होगी, और ऐसे मामले में बलात्कार का अपराध बनाया जाएगा।"

और पढ़ें 

सुंदर लाल बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि किसी साक्षी को बचाव पक्ष के साक्षी के रूप में बुलाया जा सकता है, जिसका नाम अभियोजन सूची में तो है, लेकिन अभियोजन पक्ष द्वारा उससे पूछताछ नहीं की गई है।

और पढ़ें

वसंता (मृत) थ्रू एल.आर. बनाम राजलक्ष्मी @ राजम (मृत) थ्रू एल.आर.एस

  • उच्चतम न्यायालय ने माना है कि विनिर्दिष्ट अनुतोष अधिनियम, 1963 (SRA) की धारा 34 के तहत स्पष्ट किया गया है कि वादी के पास कब्ज़ा नहीं होने की स्थिति में कब्ज़ा पुनःप्राप्ति के दावे के बिना स्वामित्व की घोषणा के लिये मुकदमा सुनवाई योग्य नहीं है। 
  • न्यायालय ने कहा कि यह कानून की एक अच्छी तरह से स्थापित स्थिति है कि SRA की धारा 34 के तहत स्पष्ट किया गया है कि वादी के पास कब्ज़ा नहीं होने की स्थिति में कब्ज़ा पुनःप्राप्ति के दावे के बिना स्वामित्व की घोषणा के लिये मुकदमा सुनवाई योग्य नहीं है।

और पढ़ें

पंजाब राज्य बनाम गुरप्रीत सिंह एवं अन्य

  • उच्चतम न्यायालय ने माना है कि भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 136 के तहत शक्तियों का प्रयोग करते हुए न्यायालय, अभियुक्त को दोषमुक्त करने के आदेश में हस्तक्षेप कर सकता है, यदि अभियुक्त को दोषमुक्त करने से न्याय में महत्त्वपूर्ण चूक होने की संभावना हो।
  • न्यायालय ने कहा कि  "यदि दोषमुक्ति अप्रासंगिक आधारों पर आधारित है, यदि उच्च न्यायालय स्वयं को ध्यान भटकाने के कारण गुमराह होने की अनुमति देता है, यदि उच्च न्यायालय ट्रायल कोर्ट द्वारा स्वीकार किये गए साक्ष्य को उचित विचार किये बिना खारिज़ कर देता है, या यदि उच्च न्यायालय के त्रुटिपूर्ण दृष्टिकोण के कारण महत्त्वपूर्ण साक्ष्य की उपेक्षा होती है, तब यह न्यायालय न्याय के हितों को बनाए रखने और न्यायिक विवेक के भीतर किसी भी चिंता का समाधान करने के लिये हस्तक्षेप करने के लिये बाध्य है।''

और पढ़ें 

सीता सोरेन बनाम भारत संघ

  • भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डी वाई चंद्रचूड़, और न्यायमूर्ति ए. एस. बोपन्ना, एम. एम. सुंदरेश, पी. एस. नरसिम्हा, जे. बी. पारदीवाला, संजय कुमार और मनोज मिश्रा की संविधान पीठ ने राज्यसभा को संविधान के मूल ढाँचे के सिद्धांत का एक हिस्सा माना है।
  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि रिश्वतखोरी को अनुच्छेद 105(2) और अनुच्छेद 194 के संबंधित प्रावधान के तहत उन्मुक्ति नहीं दी गई है क्योंकि रिश्वतखोरी में लिप्त एक सदस्य ऐसा अपराध करता है जो वोट देने के लिये आवश्यक नहीं है या वोट कैसे डाला जाना चाहिये, उसके पास यह तय करने की क्षमता नहीं है।
  • यही सिद्धांत सदन या किसी समिति में भाषण के संबंध में रिश्वतखोरी पर भी लागू होता है।
  • रिश्वतखोरी का अपराध सहमत कार्रवाई के निष्पादन के प्रति अज्ञेयवादी है और अवैध परितोषण के आदान-प्रदान पर केंद्रित है।
  • इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वोट सहमत पक्ष के लिये डाला गया है या वोट डाला ही गया है।
  • उच्चतम न्यायालय ने अंततः कहा कि रिश्वतखोरी का अपराध उस समय पूरा हो जाता है जब विधायक रिश्वत लेता है।

और पढ़ें 

हाई कोर्ट बार एसोसिएशन इलाहाबाद बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एवं अन्य

  • उच्चतम न्यायालय ने वर्ष 2018 के एशियन रिसर्फेसिंग निर्णय को पलट दिया है और स्वचालित स्थगन अवकाश नियम को अलग रखा है। 
  • उच्चतम न्यायालय ने भारत के संविधान, 1950 (COI) के अनुच्छेद 142 के तहत अपनी शक्तियों के प्रयोग पर महत्त्वपूर्ण दिशा-निर्देश भी जारी किये।

और पढ़ें Read More: 

दत्तात्रेय बनाम महाराष्ट्र राज्य

  • न्यायालय ने हत्या की सज़ा को आपराधिक मानव वध की सज़ा में बदल दिया। 
  • उच्चतम न्यायालय ने पाया कि हालाँकि अपीलकर्त्ता को अपने कृत्य के परिणामों का ज्ञान था, लेकिन मृत्यु का कारण बनने का उसका कोई आशय नहीं था। 
  • न्यायालय ने इस घटना को आवेश में अचानक हुआ झगड़ा माना और धारा 302 IPC के निष्कर्षों को IPC की धारा 304 भाग-2 में परिवर्तित कर दिया।

और पढ़ें 

कुमार @ शिव कुमार बनाम कर्नाटक राज्य

  • न्यायालय ने माना है कि क्रोध या भावना में बिना किसी परिणाम की चिंता किए बोले गए शब्द को भारतीय दंड संहिता, 1860 (IPC) की धारा 306 के प्रावधानों के तहत अपराध करने के लिए उकसाना नहीं कहा जा सकता।
  • इसमें आगे कहा गया है कि केवल उत्पीड़न के आरोप पर, घटना के समय अभियुक्त की ओर से कोई सकारात्मक कार्रवाई न करना, जिसने मृतक को आत्महत्या के लिये उकसाया या मजबूर किया, IPC की धारा 306 के संदर्भ में दोषसिद्धि संधार्य नहीं होगी।

और पढ़ें 

श्रीमती नजमुनिशा, अब्दुल हामिद चांदमिया उर्फ लाडू बापू बनाम गुजरात राज्य

  • श्रीमती नजमुनिशा, अब्दुल हामिद चांदमिया उर्फ लाडू बापू बनाम गुजरात राज्य, नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के मामले में उच्चतम न्यायालय ने माना है कि भारत के संविधान, 1950 (COI) का अनुच्छेद 20 (3) नारकोटिक्स ड्रग्स एंड साइकोट्रॉपिक पदार्थ अधिनियम, 1985 (NDPS अधिनियम) के तहत तलाशी और ज़ब्ती के प्रावधानों द्वारा अपरिवर्तित रहता है।

और पढ़ें 

एम.के. रणजीतसिंह एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि "अनुच्छेद 14 के तहत समता के अधिकार और अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के अधिकार को इस न्यायालय के निर्णयों, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर राज्य की कार्रवाइयों और प्रतिबद्धताओं तथा जलवायु परिवर्तन और इसके प्रतिकूल प्रभावों पर वैज्ञानिक आम सहमति के संदर्भ में समझा जाना चाहिये। इनसे यह बात उभर कर आती है कि जलवायु परिवर्तन के प्रतिकूल प्रभावों से मुक्त रहने का अधिकार है।"

और पढ़ें 

खेंगरभाई लाखाभाई डंभाला बनाम गुजरात राज्य

  • उच्चतम न्यायालय ने माना कि ज़ब्त वाहन को छुड़ाने के लिये भारतीय संविधान, 1950 के अनुच्छेद 226/227 के तहत उच्च न्यायालय में अपील की, दंड प्रक्रिया संहिता, 1973 (CrPC) की धारा 451 के तहत मजिस्ट्रेट के पास जाने के बिना उचित उपाय नहीं होगा।

और पढ़ें

X बनाम Y 

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा है कि दिव्यांग बच्चों की माताओं को बाल देखभाल अवकाश देने से इनकार करना कार्यबल में महिलाओं की समान भागीदारी सुनिश्चित करने के संवैधानिक कर्तव्य का उल्लंघन होगा।

और पढ़ें

केरल राज्य बनाम भारत संघ

  • केरल राज्य और भारत संघ के बीच कानूनी विवाद राज्य के उधार को नियंत्रित करने वाले संवैधानिक प्रावधानों के इर्द-गिर्द घूमता है, जिसका राजकोषीय संघवाद और आर्थिक शासन पर महत्त्वपूर्ण प्रभाव पड़ता है। इस मामले के केंद्र में अनुच्छेद 293 की व्याख्या और राज्य के वित्त को विनियमित करने के लिये संघ के अधिकार के साथ इसका अंतर्संबंध है।

और पढ़ें

संदीप कुमार बनाम GB पंत इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी घुड़दौरी

  • न्यायालय ने माना है कि अनुशासनात्मक जाँच किये बिना कर्मचारी की सेवाएँ समाप्त करना प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन है।

और पढ़ें

पंकज सिंह बनाम हरियाणा राज्य

  • न्यायालय ने कहा कि "जब तक कोई विशिष्ट विधायी प्रावधान न हो जो अभियुक्त पर नकारात्मक भार डालता हो, तब तक अभियुक्त पर अपनी बेगुनाही साबित करने के लिये सबूत पेश करने का कोई भार नहीं है। साक्ष्य अधिनियम की धारा 114A जैसे वैधानिक नुस्खे के मामले में अभियुक्त पर कुछ भार हो सकता है। इस मामले में, अभियुक्त के अपराध को उचित संदेह से परे साबित करने के लिये सबूत पेश करने का भार अभियोजन पक्ष पर था।"

और पढ़ें

उत्पल मंडल @ उत्पल मंडल बनाम पश्चिम बंगाल राज्य एवं अन्य

  • उच्चतम न्यायालय ने कहा कि लैंगिक अपराधों से बालकों का संरक्षण अधिनियम, 2012 (POCSO अधिनियम) का सम्पूर्ण उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि बालक की पहचान तब तक उजागर न की जाए, जब तक कि विशेष न्यायालय लिखित रूप में कारण दर्ज करके ऐसी पहचान उजागर करने की अनुमति न दे।

और पढ़ें 

भारत संघ एवं अन्य. बनाम अपने विधिक प्रतिनिधि के माध्यम से जहाँगीर बायरामजी जीजीभॉय (D)

  • परिसीमा का प्रश्न केवल एक तकनीकी विचार नहीं है। परिसीमा के नियम ध्वनि लोक नीति के सिद्धांतों और समानता के सिद्धांतों पर आधारित हैं। हमें प्रतिवादी के सिर पर अनिश्चित काल के लिये 'डेमोकल्स की तलवार' नहीं लटकानी चाहिये, जिसे अपीलकर्त्ताओं की सनक और कल्पनाओं के अनुसार तय किया जाना चाहिये।

और पढ़ें